सबसे बड़ा सवाल: चुनाव के बाद राहुल गांधी अमेठी छोड़ेंगे या वायनाड?
राहुल गांधी के दो सीटों से चुनाव लड़ने के बाद सवाल उठ रहा है कि जीतने की हालत में वो अमेठी छोड़ेंगे या वायनाड? देखना होगा इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी की तरह क्या राहुल गांधी भी सीट छोड़ने की गांधी परिवार की परंपरा ही निभाते हैं या नहीं?
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अमेठी में राहुल गांधी के लिए लड़ाई हर बार की तरह आसान नहीं रह गयी है. लोग राहुल गांधी का पलड़ा भारी मान कर तो चल रहे हैं लेकिन स्मृति ईरानी को कोई नजरअंदाज नहीं कर रहा. अमेठी के लोगों के संपर्क में लगातार बने रहने के चलते स्मृति ईरानी मजबूती से अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं.
अमेठी के साथ साथ वायनाड से चुनाव लड़ने को लेकर राहुल गांधी की अपनी दलील है और बीजेपी नेता स्मृति ईरानी का अपना तर्क है. दोनों की किस्मत पर अमेठी के लोगों ने क्या मन बनाया है और क्या फैसला सुनाते हैं 23 मई को पता चल ही जाएगा.
मान लिया जाये कि राहुल गांधी दोनों सीटें जीतने में कामयाब हो जाते हैं, फिर सवाल उठता है कि वो किसे छोड़ेंगे - अमेठी को या वायनाड को?
गांधी परिवार के लिए अमेठी की अहमियत
अमेठी को यूं ही गांधी परिवार का गढ़ नहीं कहा जाता. सिर्फ दो चुनावों में अमेठी कांग्रेस के हाथ नहीं लग सका, बाकी शुरू से अब तक या तो गांधी परिवार के लोग या फिर कांग्रेस उम्मीदवार जीतते आये हैं. 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर रवींद्र प्रताप सिंह और 1998 में बीजेपी उम्मीदवार संजय सिंह अमेठी से लोक सभा पहुंचे थे.
चौथी बार अमेठी से नामांकन दाखिल करने वाले राहुल गांधी अमेठी से दिल का रिश्ता बताते हैं - और पूरे परिवार के साथ भाई के रोश शो में शामिल प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी ऐसा ही इजहार किया.
कुछ रिश्ते दिल के होते हैं। आज भाई के नामांकन के लिए पूरा परिवार मौजूद था। मेरे पिता की यह कर्मभूमि थी, हमारे लिए पवित्र भूमि है। pic.twitter.com/GPzwNs9mmT
— Priyanka Gandhi Vadra (@priyankagandhi) April 10, 2019
1980 में पहली बार गांधी परिवार की ओर से संजय गांधी अमेठी से चुनाव लड़े और जीते. हादसे में संजय गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी राजनीति में आये और अमेठी को ही संसदीय क्षेत्र चुना. राजीव गांधी के बाद 1999 में सोनिया गांधी और 2004 से अब तक राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ते आ रहे हैं.
वायनाड में तो राहुल गांधी के साथ प्रियंका गांधी वाड्रा साथ रहीं ही, अमेठी में तो पति और बच्चे भी रोड शो में शामिल हुए
इस बार स्मृति ईरानी भले ही राहुल गांधी को टक्कर दे रही हों, लेकिन अमेठी को लेकर एक धारणा बनी हुई है कि वहां के लोगों को विकास से जितना मतलब नहीं उतना गांधी परिवार से है. कुछ लोगों का मानना है कि गांधी परिवार ने अमेठी का जितना विकास कर दिया है वो किसी भी हिसाब से कम नहीं है. ऐसे लोगों को लगता है कि भी गांधी परिवार के हाथ सत्ता होगी, सारी कसर पूरी हो जाएगी. 2014 के चुनाव में स्मृति को मिले वोट, हालांकि, ऐसी मान्यता की पुष्टि नहीं करते. राहुल गांधी और स्मृति ईरानी को मिले वोटों का फासला करीब एक लाख रहा. साफ है गांधी परिवार के प्रति लगाव और सहानुभूति के बावजूद एक तबका ऐसा जरूर उभर रहा है जो भावनाओं में तो बहता है, लेकिन दूसरे मामलों में.
कांग्रेस के हिसाब से वायनाड का महत्व
उत्तर और दक्षिण भारत को जो बराबरी दिलाने की बात राहुल गांधी आज कर रहे हैं, वो तो पहले भी कर सकते थे - लेकिन ऐसा नहीं किया. पहले तो लगातार दो बार कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की केंद्र में सरकार भी रही.
अमेठी को लेकर बीजेपी नेतृत्व की तत्परता और स्मृति ईरानी की सक्रियता ने ही राहुल गांधी को दूसरा चुनाव क्षेत्र चुनने के लिए मजबूर किया होगा. अमेठी की ही तरह प्रियंका गांधी वाड्रा ने वायनाड से राहुल गांधी के नामांकन के दौरान ट्वीट कर इलाके के लोगों को भरोसा दिलाया था कि वो कभी उन्हें निराश नहीं करेंगे.
My brother, my truest friend, and by far the most courageous man I know. Take care of him Wayanad, he wont let you down. pic.twitter.com/80CxHlP24T
— Priyanka Gandhi Vadra (@priyankagandhi) April 4, 2019
2009 के आम चुनाव के बाद 2014 में भी कांग्रेस ने केरल वायनाड सीट पर जीत का सिलसिला बरकरार रखा. इस बार वायनाड सीट पर केरल कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे के. करुणाकरन के बेटे के. मुरलीधरन दावेदार रहे - लेकिन राहुल गांधी के चुनाव लड़ने की हामी भर देने के बाद वो दूसरी जगह शिफ्ट हो गये.
गांधी परिवार न सही वायनाड को भी कांग्रेस का भले ही गढ़ माना जा रहा हो, लेकिन एकतरफा तो कुछ भी नहीं होने जा रहा है. राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव मैदान में तीन निर्दलीय उम्मीदवार ऐसे हैं जो मिलते जुलते नाम वाले हैं - राहुल गांधी केई, राघुल गांधी के और केएम शिवप्रसाद गांधी. इनमें से दो को तो कांग्रेस समर्थक ही बताया जा रहा है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है. ये वोटकटवा और डमी कैंडिडेट ही लगते हैं.
दो सीटों से चुनाव लड़ने की पहली वजह तो जीत के भरोसे की कमी होती है. जब भी कोई नेता दो-दो सीटों से चुनाव लड़ने का फैसला करता है तो दूसरी सीट बैकअप के लिहाज से खोजी जाती है. मतलब ये कि दोनों में से एक पर तो जीत पक्की ही होनी चाहिये. नेताओं के सीटें छोड़ने को लेकर अब तक कोई एक कंडीशन नहीं लगती. हर नेता अपनी जरूरत और अहमियत के हिसाब से सीटें छोड़ने का फैसला करता है.
राहुल गांधी से पहले गांधी परिवार में ही इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी दो-दो सीटों से चुनाव लड़ चुके हैं. गांधी परिवार के अलावा एक से ज्यादा सीटों से चुनाव लड़ने वालों में तो बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक का नाम शुमार है. 2014 में तो मोदी के अलावा मुलायम सिंह यादव भी दो-दो सीटों से चुनाव लड़े थे. तब जीतने के बाद जो सीट मुलायम सिंह ने छोड़ दी थी, इस बार उसी मैनपुरी से चुनाव मैदान में हैं जबकि उनकी जीती हुई सीट आजमगढ़ से मुलायम के बेटे अखिलेश यादव लड़ने जा रहे हैं.
गांधी परिवार में जीतने के बाद दूसरी सीट छोड़ने की परंपरा के हिसाब से देखा जाय तो हर बार पुराने गढ़ को ही तरजीह दी गया है. परंपरा के हिसाब से तो ऐसा लगता है कि जीतने की हालत में राहुल गांधी अमेठी नहीं बल्कि वायनाड ही छोड़ेंगे.
1980 में इंदिरा गांधी और 1999 में सोनिया गांधी दोनों ने ही रायबरेली को ही तरजीह दी. 1980 में इंदिरा गांधी रायबरेली के अलावा मेडक सीट पर भी चुनाव जीती थीं, लेकिन रायबरेली नहीं छोड़ा. 1999 में बहू सोनिया गांधी ने भी सास की ही परंपरा का निर्वहन किया और रायबरेली की जगह जीत के बाद बेल्लारी सीट छोड़ दी थी.
गांधी परिवार की परंपरा तो यही बता रही है कि राहुल गांधी भी छोड़ने की सूरत में वायनाड को ही चुन सकते हैं. मुश्किल सिर्फ इतनी ही नहीं है कि राहुल गांधी कौन सी सीट छोड़ेंगे. एक सीट छोड़ देने के बाद नयी चुनौती ये होगी कि उत्तर और दक्षिण को बराबर समझने और बराबरी दिलाने का क्या होगा?
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