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Updated: 12 नवम्बर, 2020 09:08 PM
सुजीत कुमार झा
सुजीत कुमार झा
  @suj.jha
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बिहार ने एक बार फिर नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को सत्ता सौंप दी है. काफी मशक्कत के बाद इस बार उन्हें सत्ता हासिल हुई है. जो चीज ज्यादा मुश्किल से मिलती है उसका महत्वा उतना ही ज्यादा होता हैं. इसलिए इस बार का नीतीश शासन कुछ अलग होगा यह तय हैं. नीतीश कुमार यूं तो बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर सातवीं बार शपथ लेंगे लेकिन ओवर ऑल ये इनका चौथा टर्म होगा. तीन टर्मों की बात करें तो नीतीश कुमार के सामने इतनी बड़ी चुनौती नहीं आई थी जितनी इस चौथे टर्म को लेकर सामने आई. तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) का कद बढ़ा हुआ है क्योंकि अकेले दम पर वो सत्ता की दहलीज तक पहुंचने में कामयाब रहे. चुनाव से ठीक पहले और चुनाव के बाद बिहार के मूड में जो बदलाव दिखा वो इस चुनाव से पहले कभी नही दिखा। जिस एनडीए के लिए चुनाव से पहले सबकुछ बेहद आसान लग रहा था वो बाद में इतना भारी पडने लगा कि बहुमत का जादूई आंकडा पाने में पसीने निकलने लगे. दिल की धकडने तेज हो गई. इस चुनाव में सबसे खास बात ये रही है कि चुनाव के नैरेटिव, कैम्पैनिंग के दौरान तय हुए. पहले के चुनाव के पहले वाले नैरेटिव पर जनता ने भरोसा नहीं किया. 2020 में हुए इस चुनाव में मुकाबला 15-15 वर्षो का रहा जिसने तेजस्वी यादव को एक मजबूत नेता के रूप में स्थापित कर दिया. जिस तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन (Mahagathbandhan) पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव (Loksabha Election) में बुरी तरह से चरमरा गया गया था वो एक बार मजबूती से विपक्ष के तौर पर खड़ा है.

Bihar Legislative Assembly Election, Bihar, Nitish Kumar, Chief Minister, JDUबिहार चुनाव 2020 के मद्देनजर जेडीयू और आरजेडी दोनों तमाम उतार चढ़ाव देखने को मिले हैं

चुनाव से पहले ऐसा लग रहा था कि नीतीश कुमार के सामने कोई चुनौती ही नही हैं. विपक्ष एक जुट नही दिख रहा था. यहां तक कि तेजस्वी यादव को नेता नही मानने के कारण महागठबंधन से आरएलएसपी अलग हो गयी. कांग्रेस भी तेजस्वी को नेता मानने को तैयार नहीं थी लेकिन जब चुनाव का ऐलान हुआ उसके बाद महागठबंधन के लिए सारी परिस्थिथियां अनूकूल होती चली गई. कांग्रेस भी 70 सीट मिलने के बाद तेजस्वी को नेता मानने लगी दरअसल कांग्रेस ज्यादा सीट पाने के लिए तेजस्वी को नेता नहीं मान रही थी. तेजस्वी और उनके सहयोगियों की सूझबूझ से लेफ्ट की तीनों पार्टियां महागठबंधन में शामिल हो गई जिसकी वजह से महागठबंधन की ताकत बढ़ी. हालांकि अब महागठबंधन अगर बहुमत से दूर हुआ तो उसका कारण भी कांग्रेस को ही माना जा रहा है.

तेजस्वी का युवा चेहरा और रैलियों में आ रही भीड़ और जोश ने तेजस्वी यादव के अन्दर आत्मविश्वास और बढा दिया. 10 लाख युवाओं को नौकरी देने के वायदे से उम्मीद जगा रही थी तो दूसरी तरफ आरजेडी का 15 वर्षों का शासन उनके मन में खौफ भी भर रहा था. युवा, उम्मीद कायम रहे, इसके लिए ये कहते नहीं थकते थे कि तेजस्वी का शासन पहले के आरजेडी शासन जैसा नहीं होगा. लेकिन कहीं न कहीं उस उम्मीद में विश्वास की कमी थी. हांलाकि कोरोना और लॉक डाउन की वजह से विभिन्न प्रदेशो में काम करने वाले लोग बेरोजगार होकर बिहार में थे उनसे भी रोजगार एक बड़ा मुद्दा बना.

बिहार की जनता जानती है कि नीतीश कुमार जिस वायदा को पूरा नहीं कर सकते उसका वादा भी नहीं करते हैं और जब मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने कहा कि इतनी नौकरी देने के लिए सरकार के पास पैसे कहां से आयेंगे. और जब तेजस्वी यादव की तरफ से ये कहा गया कि विधायकों मंत्रियों का वेतन काट कर युवाओं को नौकरी दी जायेगी तो ये विश्वास भी टूट गया. इसलिए महागठबंधन ने पहले चरण के चुनाव में तो अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन बाद के चरणों में वो उसे कायम नहीं रख पाई.

एनडीए की हालत खराब हुई तो उसके पीछे का उसका अति आत्मविश्वास, 2019 लोकसभा चुनाव में मिली भारी सफलता से चूर एनडीए के नेताओं को खतरे का अहसास ही नहीं था. इसलिए सीट बंटवारे में देरी हुई सीटों और उम्मीदवारों का चयन भी बेहद खराब रहा है. एनडीए के नेता ये मान कर चल रहे थे कि वो जिसे टिकट देंगे उसके विधानसभा पहुंचने की गारंटी हैं. रही सही कसर एनडीए के घटक दल रहे लोक जनशक्ति पार्टी ने पूरी कर दी.

चिराग पासवान को लेकर जो कंफ्यूजन की स्थिति बनी उसके लिए वो एनडीए और खासकर जेडीयू के लिए काफी नुकसानदायक रहे. और इस कंफ्यूजन की वजह कहीं न कहीं बीजेपी से रही है लेकिन सरकार बन जाने के बाद ये बातें तो छुप जाती हैं लेकिन नीतीश कुमार के लिए ये पचा पाना मुश्किल है कि इसी कंफ्यूजन की वजह से उनकी पार्टी की सीटें 71 से घटकर 43 सीटों पर आ गई हैं. इस चुनाव में नीतीश कुमार के खिलाफ लोगों की नाराजगी दिखी तो कहीं न कहीं इसके पीछे भी चिराग पासवान हैं. उन्होंने लगातार इस चुनाव के दौरान नीतीश कुमार को निशाना बनाया भ्रष्ट्राचार का आरोप लगाया क्योंकि जितनी एन्टीइंकम्बैंसी चुनाव के दौरान दिखी उतनी चुनाव के पहले नहीं थी.

नीतीश कुमार ने अपने पूर्व चुनावों की तरह विकास को ही अपना मुद्दा बनाया था. लेकिन जब 10 लाख युवाओं का सरकारी नौकरी देने का मुद्दा विपक्ष की तरफ से आया तो बौखला भी गए क्योंकि उन्हें वस्तुत स्थिति की जानकारी थी कि यह असंभव वायदा है इसे पूरा नहीं किया जा सकता। अपने स्वाभाव के विपरित नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव पर कुछ कटाक्ष भी किए जिसे जनता ने पसंद नहीं किया. हांलाकि एक दो मौकों को बाद वो विकास को लेकर ही जनता के बीच गए लेकिन अंतिम चरण के चुनाव के आखरी प्रचार में उनका ये कहना कि ये मेरा आखरी चुनाव है वो काम कर गया. अंतिम चरण में हुए 78 सीटों में से 53 सीटों पर कब्जा जमाने में एनडीए सफल रही.

इस चुनाव में मुख्य तौर पर बीजेपी को फायदा पहुंचा उसकी सीटे 53 से बढकर 74 हो गई लेफ्ट पार्टियों को जीवनदान मिला। पिछले विधानसभा में एक सीट पर कब्जा जमाने वाले माले के 12 विधायक हुए तो सीपीआई और सीपीएम का काफी समय बाद खाता खुला. लेकिन इन सबके बीच औवैसी की पार्टी ने सीमांचल में काफी अच्छा प्रदर्शन कर 5 सीटें अपनी झोली में कर ली और अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्र में महागठबंधन की कमर तोड दी.

कुल मिला कर देखा जाये तो बिहार की जनता ने इस बार काफी अच्छा और सूझबूझ वाला जनादेश दिया है. दोनों गठबंधनों में संख्या का बहुत ज्यादा अंतर नही हैं. सरकार पूरी निश्चितता से नहीं चल सकती है. पिछले तीन टर्म की बात करें तो नीतीश कुमार एक मजबूत जनादेश लेकर सरकार चला रहे थे लेकिन इस बार उन्हें अपने सहयोगियों का पूरा ध्यान रखना होगा. साथ ही जनता के मूड को भी बार बार आंकना होगा.

नीतीश कुमार ने बिहार के लिए काफी कुछ किया है. वो मेहनत भी करते हैं. थकते नहीं हैं लेकिन उनकी ये मेहनत जनता तक नही पहुंच पा रही है. लोगों के बीच उनका जाना कम हुआ है. पहले वो जनता दरबार के दौर में जनता से रूबरू होते थे. उन्हें डायरेक्ट फीड बैक मिलता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. मीडिया से उनका ज्यादा इन्टरेक्शन नहीं हो पा रहा हैं. नतिजा अफसरशाही बढ़ी है. उन्हें अफसरों की नई टीम बनानी चाहिए ताकि भ्रष्ट्राचार की शिकायतो पर काबू पाया जा सके. शराबबंदी को लेकर भी लोगों में नाराजगी है क्योंकि यह सही ढंग से लागू नहीं हो पाई. इन तमाम तथ्यों का ध्यान रखना होगा.

वरना क्या वजह हो सकती है कि 2005, 2010, 2015 के चुनाव में जिस नीतीश कुमार के चेहरे पर जीत हासिल होती रही है उसी चेहरे को लेकर 2020 में नाराजगी का माहौल दिखने लगा जबकि साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी चेहरा था. इस बार तो आसान जीत होनी चाहिए थी.

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लेखक

सुजीत कुमार झा सुजीत कुमार झा @suj.jha

लेखक आजतक में पत्रकार हैं

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