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Updated: 25 सितम्बर, 2020 01:24 PM
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अपडेट: मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुनील अरोरा ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है. ये चुनाव तीन चरणों में होंगे. पहले चरण का मतदान 28 नवंबर को, दूसरा चरण 3 नवंबर और तीसरे चरण का मतदान 7 नवंबर को होगा. चुुुुुनाव परिणाम 10 नवंबर को घोषित किए जाएंगे. कोरोना वायरस के दौर में कराए जा रहे इन चुनावों को लेकर कई सख्त प्रोटोकॉल जारी किए गए हैं.  

बिहार चुनाव की तारीखें जो भी हों, नीतीश कुमार (Nitish Kumar) चुनाव नतीजों को लेकर पूरी तरह बेफिक्र हैं - क्योंकि टीना (TINA) फैक्टर में पक्का यकीन रखने वालों में से एक वो भी हैं. टीना फैक्टर उस स्थिति को कहते हैं जब जनता के सामने कोई और विकल्प न हो. ऐसी मजबूरी में जनता खामियों को भी नजरअंदाज कर एक ही नेता को बार बार मौके देने को मजबूर होती है.

नीतीश कुमार के ऐसा मानने की खास वजह भी है क्योंकि उनका विकल्प विपक्ष की कौन कहे हर तरह से मजबूत बीजेपी के पास भी नहीं है. ऐसे में नीतीश कुमार को लगता है कि बीजेपी के साथ मिल कर चुनाव नतीजे (Bihar Election 2020) तो पक्ष में आने तय हैं, लेकिन उनको फिक्र आगे की सताये जा रही है - आगे के पांच साल कुर्सी पर बने रहना नीतीश कुमार के लिए आज की तारीख में सबसे बड़ा चैलेंज है.

और राजनीति में भविष्य के चैलेंज से मुकाबले के लिए भी इंतजाम तभी शुरू कर देने पड़ते हैं जब ये आभास होने लगे. चिराग पासवान का चुप न होना और बीजेपी का सीधे तौर पर दखल न देना - साफ संकेत हैं जो सबको समझ आ रहा है और वो तो बिहार की राजनीति के चाणक्य ही माने जाते हैं.

असल बात तो ये है कि नीतीश कुमार और बीजेपी नेतृत्व (BJP Leadership) दोनों ही एक दूसरे का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं - बिहार के लोग भी ये सब अच्छी तरह समझ रहे हैं, लेकिन सवाल वहीं आकर खत्म हो जाता है - करें तो करें क्या? कहें तो कहें क्या?

अगर ये नहीं तो खास बात क्या है?

जनता का मूड भांप पाना मुश्किल होता है. हर चुनाव में हर कोई अपने अपने तरीके से नतीजों का पूर्वाकलन करता है - राजनीतिक दलों के नेता, चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले और आम लोग. फिर अक्सर नतीजे चौंकाने वाले आ जाते हैं और उसके पीछे वजह मानी जाती है वो बातें जो जनता खामोशी से मन में रखे रहती है - जिसे अंडर करंट कहते हैं.

नीतीश कुमार को लगता नहीं कि ऐसी बातों की कोई परवाह भी है. दूसरों को भले लग रहा हो कि चिराग पासवान उनके खिलाफ हर तरफ से धावा बोले हुए हैं, लेकिन नीतीश कुमार ऐसा कुछ भी जाहिर नहीं करते. यहां तक कि पूछने पर भी ऐसे ही संकेत देते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो.

महागठबंधन के पुराने साथियों से कहीं ज्यादा नीतीश कुमार को मौजूदा साथी बीजेपी की चिंता खाये जा रही है - जो हर वक्त मौके की ताक में बैठी हुई है. नीतीश कुमार बीजेपी के खिलाफ सेफगार्ड धीरे धीरे ऐसे जुटाने की कोशिश में हैं जैसे पूरी दुनिया कोरोना वायरस के लिए वैक्सीन बनाने में दिन रात एक किये हुए है. जैसे पुराने जमाने में गांवों के लोग हथिया नक्षत्र की बरसात से पहले एहतियातन सारे राशन और जलावन का इंतजाम करके रखते थे, नीतीश कुमार भी वैसे ही इंतजाम कर रहे हैं. ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे एलआईसी की रिटायरमेंट पॉलिसी की तरह कोई पुख्ता इंतजाम हो जो गाढ़े वक्त में काम आ सके - और कुर्सी को लंबी उम्र बख्श सके. चुनाव के साथ भी और चुनाव के बाद भी!

एनडीए में गठबंधन साथियों के साथ सीट शेयरिंग की जो टेंशन है वो तो पहले से बरकरार है, टिकट की दावेदारी तो अभी अलग ही है. जेडीयू दफ्तर में कार्यकर्ताओं से नीतीश कुमार ऐसी ही बातों पर चर्चा करते रहे. समझते रहे कि अगर कोई टिकट मांग रहा है तो क्यों और जीतने की कितनी संभावना है. जेडीयू कार्यकर्ताओं के सुझाव भी समझने थे और अपनी तरफ से टिप्स भी देने थे, लिहाजा करीब आठ घंटे इसी में बीत गये.

भीतर की बातें तो भीतर ही रहीं, लेकिन जो बाहर सुनने को मिलीं और वो भी खुद नीतीश कुमार के मुंह से वो भी राजनीति का छोटा पैकेट ही रहा. बोले तो बहुत कम लेकिन समझने के लिए बहुद ज्यादा छोड़ दिये. अब बारी बारी हर कोई अपने अपने हिसाब से समझने की कोशिश कर रहा है. समझ सबकी अपनी अपना है लेकिन एक राय तो यही बन रही है कि चिराग पासवान के बहाने ये छोटा पैकेट नीतीश कुमार की राजनीतिक रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है.

चिराग पासवान के सवाल पर नीतीश कुमार का ये छोटा पैकेट रिएक्शन था - 'कोई खास बात नहीं है!'

जिस बात को चिराग पासवान पूरी ताकत से खास बनाये हुए हैं, वो भला नीतीश कुमार की नजर में बाकी बातों की तरह ही आम बात क्यों है? क्या बीजेपी नेतृत्व की तरफ से नीतीश कुमार को कोई ठोस आश्वासन मिला हुआ है - आप चुपचाप अपना काम कीजिये बाकी बातें सही वक्त आने पर देख ली जाएंगी.

narendra modi, nitish kumarनीतीश कुमार और बीजेपी नेतृत्व एक दूसरे के खिलाफ जो खेल खेल रहा है उसे ही असली राजनीति कहते हैं!

क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह या बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सीधे चिराग पासवान की जगह नीतीश कुमार को कोई संकेत दे दिया है कि ऐसी बातों की बीजेपी और जेडीयू के रिश्ते में कोई जगह नहीं है?

नीतीश कुमार भले ही चिराग पासवान को सार्वजनिक तौर पर तवज्जो न देने का प्रदर्शन कर रहे हों, लेकिन हाल फिलहाल उनके कई कदम तो ऐसे लगते हैं जैसे वो अंदर से हिल गये हों. जीतनराम मांझी को सारे गिले-शिकवे भुला कर फिर से अपने साथ कर लेना. वही जीतनराम मांझी जिसको अपना आदमी मान कर वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाये थे, लेकिन नौ महीने में ही वो नाको चने चबाने के लिए मजबूर करने लगे. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने से पहले जीतनराम मांझी ऐसे पेश आ रहे थे कि नीतीश कुमार के आदमी उनको इस्तीफा देने के लिए धमका भी रहे हैं. वैसे नीतीश कुमार के लिए लालू यादव से लंबी दुश्मनी के बाद मौके के लिए हाथ मिला लेने और मौका लगते ही पाला बदल कर महागठबंधन से एनडीए में शिफ्ट होने के मुकाबले मांझी के साथ समझौता कर लेना तो बहुत मामूली बात रही होगी. दलितों के परिवार में हत्या की स्थिति में किसी सदस्य को नौकरी देने का ऐलान और जेडीयू में दलित चेहरे जुटाना देखकर तो यही लगता है कुछ न कुछ बात तो है ही. सवाल वही है सबके सामने बोलें भी तो क्या बोलें!

चिराग पासवान को लेकर नीतीश कुमार जो भी कहें, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह या जेपी नड्डा ने ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ा है जब एनडीए के मामले में लोक जनशक्ति पार्टी का नाम न लेते हों. बीजेपी नेतृत्व जिस मजबूती के साथ सार्वजनिक तौर पर कह रहा है कि नीतीश कुमार ही बिहार में एनडीए के नेता हैं, ऐन उसी वक्त ये भी जोर देकर कहा जाता है कि बीजेपी, जेडीयू और एलजेपी मिल कर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ने जा रहे हैं. अभी तक इस सूची में जीतनराम मांझी को जगह नहीं दी गयी है.

ये सब तो साफ संकेत है कि बीजेपी नेतृत्व चिराग पासवान को पूरी अहमियत दे रहा है - और उसमें इस बात की भी परवाह नहीं है कि नीतीश कुमार क्या राय रखते हैं.

नीतीश को फिक्र तो बस बीजेपी की है

नीतीश कुमार को ये तो मालूम है ही कि बगैर बैसाखी के चुनावों में उनके लिए दो कदम बढ़ाने भी भारी पड़ेंगे. बैसाखी भी कोई मामूली नहीं बल्कि इतनी मजबूत होनी चाहिये तो साथ में तो पूरी ताकत से डटी ही रहे, विरोधी पक्ष की ताकत पर भी बीस पड़े. अगर वो बीजेपी को बैसाखी बनाते हैं और विरोध में खड़े लालू परिवार पर भारी पड़ते हैं और अगर लालू यादव के साथ मैदान में उतरते हैं तो बीजेपी की ताकत हवा हवाई कर देते हैं.

लगे हाथ नीतीश कुमार ये धारणा भी खत्म होने नहीं देते कि पाला बदलना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं है. फायदा ये होता है कि जो साथ रहता है उसे साथ बनाये रखने की फिक्र होती है और जो विरोधी छोर पर होता है उसे कभी भी साथ हो जाने की उम्मीद बनी रहती है. हाल के बीजेपी नेताओं के आंतरिक सर्वे में पाया गया कि लालू प्रसाद यादव के प्रति नीतीश कुमार नरम रूख रखते हैं. दरअसल, नीतीश कुमार काम की जरूरी बातों के अलावा ज्यादातर मामलों में खामोशी ही अख्तियार किये रखते हैं और उसी परदे में अपने नरम रूख को भी छिपा लेते हैं. बीजेपी को लग रहा है कि जिस तरीके से बीजेपी नेतृत्व से लेकर बाकी नेता भी लालू यादव, तेजस्वी यादव और राबड़ी देवी के खिलाफ आक्रामक बना हुआ है, नीतीश कुमार का वैसा तेवर कभी नहीं देखने को मिलता.

अगर बीजेपी को ऐसा लगता है तो बहुत गलत भी नहीं है. नीतीश कुमार तो 'चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग' की थ्योरी में यकीन रखने वाले नेता हैं - और मौके के हिसाब से वो ये भी जानते हैं कि भुजंग किसे समझाना चाहिये. अब अगर बीजेपी को लगता है कि जब महागठबंधन में रहते नीतीश कुमार बीजेपी को भुंजग बता दिया करते थे तो एनडीए में आने के बाद भी उनकी सोच बदली नहीं है. बीजेपी को ये बातें नीतीश कुमार की गतिविधियों से भी साफ समझ में आ रही हैं और आतंरिक सर्वे से भी उस पर मुहर लग जाती है.

मालूम तो नीतीश कुमार को भी होगा ही कि उनकी लोकप्रियता में कमी आयी है, सत्ता विरोधी लहर काफी ज्यादा है - लेकिन टीना फैक्टर भी तो कोई चीज होती है. ये बातें बीजेपी नेतृत्व को भी अच्छी तरह मालूम है - तभी तो दोनों ही पक्ष एक दूसरे का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं.

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