मुस्कुराते मोदी और सख्त नीतीश के बीच ओवैसी का करंट
ये पाटलीपुत्र का युद्ध है, देखना होगा कि किसकी रणनीति कितनी कारगर होगी.
-
Total Shares
चुनावी हवा को ओवैसी ने दिया 'करंट'
असदुद्दीन ओवैसी के बिहार चुनाव में हिस्सा लेने और सीमांचल में अपनी पार्टी AIMIM के उम्मीदवारों के उतारने की घोषणा से बीजेपी खुश है. वहीं, महागठबंधन में इसे लेकर एक झुंझलाहट है. नीतीश कुमार की पार्टी के वरिष्ठ नेता और शिक्षा मंत्री पीके शाही सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि ओवैसी को बिहार चुनाव में हिस्सा लेने के लिए पैसा दिया गया है. बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें भेजा है ताकि मुस्लिम वोट को काटा जा सके. ओवैसी जोरदार तरीके से ऐसे आरोप का खंडन कर चुके हैं और धमकी भी दी कि अगर किसी ने उन पर आरएसएस-बीजेपी का प्रतिनिधि होने का आरोप लगाया तो हैदराबाद में वह उसके खिलाफ क्रिमिनल डेफेमेशन यानि मानहानि का केस दर्ज कराने से भी नहीं चूकेंगे.
राजनीतिक तौर पर ओवैसी और बीजेपी अलग-अलग भले ही हैं. लेकिन यह भी सच है कि ओवैसी की मौजूदगी हिंदू वोटरों को बीजेपी के पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित करेगी. ओवैसी कह चुके हैं कि वह सीमांचल में 24 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे. चुनाव से पहले की गतिविधियों को देखते हुए कह सकते हैं कि ओवैसी के उम्मीदवारों की जीत की उम्मीद कम है. लेकिन उनके उम्मीदवार न केवल अल्पसंख्यक वोटों के विभाजन में अहम भूमिका निभा सकते हैं बल्कि मुस्लिम आधारित उनकी राजनीति राज्य में अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक की सोच को भी भड़काने का काम करेगी.
पिछले लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की बड़ी जीत का सबसे बड़ा कारण यही था कि ज्यादातर लोगों ने पारंपरागत जातिगत लाइन को छोड़ धार्मिक आधार पर वोट किया. नीतीश के शासन में बिहार में सांप्रदायिक तनाव पड़ोसी राज्य यूपी के मुकाबले कम रहा. लेकिन अब जबकि बिहार त्योहारों के मौसम में जा रहा है, तो हो सकता है कि आने वाले हफ्तों में धार्मिक भावनाएं भड़क उठे. खासकर, असदुद्दीन के छोटे भाई अकबरूद्दीन अगर अपने भड़काऊ भाषणों के साथ बिहार आ जाएं तो.
क्या नए कांशीराम की तरह हैं ओवैसी
लंदन से वकालत की पढ़ाई करने वाले असदुद्दीन ओवैसी को इस बात का पूरा एहसास है कि अल्पसंख्यक समुदाय के बड़े और असरदार नेता भी उनकी मौजूदगी को शंकाभरी नजरों से देख रहे हैं. बिहार में चुनाव लड़ने के अपने फैसले को सही बताते हुए ओवैसी ने अब बीएसपी के संस्थापक कांशीराम का हवाला देना शुरू कर दिया है. कांशीराम कहते थे, 'पहला चुनाव होता है हारने के लिए, दूसरा चुनाव होता है हराने के लिए, तीसरा होता है जीतने के लिए.'
कांशीराम की तरह ओवासी की नजरें भी मुस्लिम-दलित वोट बैंक पर है. कोसी क्षेत्र में गरीब मुसलमानों और दलितों के पास विकास की गाड़ी नहीं पहुंच सकी है, इसे दिखाने के लिए ओवैसी ने तमाम डाटा भी जमा कर लिए हैं. उनकी दलील है कि 25 वर्षों तक कथित सेक्यूलर नेताओं के शासन के बाद भी बिहार के अल्पसंख्यक और दलितों की हालत में सुधार नहीं हुआ. बिहार की कुल आबादी में मुस्लिम और दलित समुदाय की हिस्सेदारी 15-15 फीसदी है. अगर ये दोनों साथ आते हैं तो किसी भी पार्टी के लिए बड़े वोट बैंक साबित होंगे. ओवैसी उम्मीद यही कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में बिहार में वह अपनी छाप छोड़ सकें और पूरे भारत में सबसे विश्वसनीय मुस्लिम नेता के तौर पर उभरें. ओवैसी को लगता है कि हिंदू छवि वाले मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में मौजूदगी उनके लिए एक उपजाऊ जमीन की तरह है, जिस पर वे मुस्लिमों के मजबूत चेहरे के बतौर अपनी छवि को उभार सकते हैं.
ओवैसी हालांकि इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं दे रहे कि उन्होंने दिल्ली चुनाव में हिस्सा क्यों नहीं लिया. उस समय ओवैसी का कहना था कि अल्पसंख्यक तब मोदी के विरोध और केजरीवाल के पक्ष में थे. वह नहीं चाहते थे कि 'आप' की जीत की संभावनाओं को नुकसान पहुंचे या बीजेपी को किसी तरह का लाभ हो. अब लालू और नीतीश पूछ रहे हैं कि ओवैसी उसी नजरिए से बिहार को क्यों नहीं देख रहे हैं.
लालू का जंगलराज और जवाबी हमला
नीतीश कुमार लगातार कोशिश कर रहे हैं कि बिहार चुनाव उनकी और मोदी की शासन-प्रणाली के बीच वाली जंग के रूप में तब्दील हो जाए. हालांकि बीजेपी लोगों के पास जाकर यही कह रही है कि अगर वे महागठबंधन के पक्ष में वोट करते हैं तो लालू का जंगलराज फिर से वापस आ जाएगा. राज्यों में हो रही चुनावी रैलियों में बीजेपी नेता यही कहते फिर रहे हैं, 'लॉ (कानून) तो नीतीश का होगा लेकिन ऑर्डर (आदेश) लालू की ओर से आएंगे.'
लगातार हमलों के बीच, लालू यादव ने भी अब बीजेपी के जंगलराज के आरोपों का आक्रामक तौर पर जवाब देने का फैसला कर लिया है. लालू अब जाति कार्ड का भी सहारा ले रहे हैं और अपने समर्थक यदुवंशियों से पूछ रहे हैं कि क्या उनका 15 साल का शासन जंगल राज था? लालू दावा कर रहे हैं कि चूंकि उन्होंने पिछड़ी जातियों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की, उन्हें आवाज दी, राजनैतिक तौर पर मजबूत किया इसलिए अगड़ी जातियों की पार्टी बीजेपी उनके शासन को जंगलराज के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश कर रही है. लालू की पार्टी आरजेडी ने पूरे राज्य में होर्डिंग भी लगवाने शुरू कर दिए है जिसमें लिखा है, 'हमने दी गरीबों को आवाज, वो कहते हैं जंगल राज.'
मेरी हार बिहार की हार होगी
चुनाव के चलते नीतीश कुमार को अगले दो महीनों तक राजनीति की आड़ी-तिरछी राहों से गुजरना तो ही है, भारी दबाव और अनिश्चितताओं के दौर से भी निजात नहीं मिलने वाली. नीतीश मतदाताओं को समझा रहे हैं कि किस तरह वो पिछले 10 साल से बिहार को तरक्की के रास्ते पर ले जाने में जी जान से जुटे हैं और बीजेपी के झांसे में आकर लोगों ने फिर एक बार उन्हें सत्ता नहीं सौंपी तो सारा किया धरा बेकार चला जाएगा.
नीतीश कहते हैं, "मैं अपने करने के लिए तो कुछ न कुछ ढूंढ ही लूंगा, लेकिन झेलना तो राज्यर के लोगों को पड़ेगा, अगर उन्होंने मुझे वोट नहीं दिया. क्याह आप वोट उसे देना चाहेंगे जो आपके लिए अथक परिश्रम कर रहा है या उसे जो सिर्फ बड़े बड़े वादे करता है?"
नीतीश खुद को ऐसे नेता के तौर पर पेश कर रहे हैं जो वही वादे करता है जिन्हें वो पूरा भी कर सके. नीतीश मोदी को निशाने पर लेते हैं और कहते हैं कि मोदी की तरह बड़े वादे करना और उन पर न के बराबर अमल करना उनकी फितरत तो बिलकुल नहीं है.
नीतीश ने उन वादों की एक सूची भी तैयार कर रखी है जो मोदी ने लोक सभा चुनाव से पहले बिहार के लोगों से किए थे. एक एक करके वो मोदी का हर वादा गिनाते हैं और लोगों से पूछते हैं कि क्या पिछले 16 महीने में उनमें से एक भी पूरा हुआ है. नीतीश कहते हैं आगे का सफर इसी बात से तय होता है कि शुरुआत कैसी है, और अगर डेढ़ साल में आप कुछ नहीं कर पाए तो आखिर तक टिके रहने की संभावना भी कम ही बनती है.
मोदी का साथी, अब नीतीश के खेमे में
पिछले साल दिसंबर में ही नीतीश ने चुनावी कैंपेन के माहिर प्रशांत किशोर के साथ इस सफर का आगाज किया. फिलहाल इंडियन पीपुल्स एक्शन कमेटी को संचालित कर रहे किशोर तब सिटिजंस अकाउंटेबल गवर्नेंस चलाते थे - और लोक सभा चुनाव से पहले कई महीने तक मोदी के गांधी नगर आवास पर रहे. ये किशोर ही थे जिन्होंने मोदी का राजनीतिक संदेश आम लोगों तक पहुंचाया. किशोर का दावा है कि मोदी का साथ उन्होंने इसलिए छोड़ा ताकि नई चुनौतियों से रूबरू हो सकें. साथ ही इस बात की तस्दीक भी कर सकें कि चुनावों में वो कुछ अलग कर पाते भी हैं या नहीं. क्या वे अपने दम पर किसी को जीत दिला सकते हैं. वो समझना चाहते थे कि मोदी के साथ उन्हें जो कामयाबी मिली कहीं वो सिर्फ इसी वजह से तो नहीं मिली कि वो सही जगह सही वक्त पर थे.
बीजेपी के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि किशोर हवा में उड़ने लगे थे. उन्हें लगता था कि मोदी को उन्हीं की बदौलत जीत हासिल हो पाई, इसलिए पार्टी में उन्हें कोई सीनियर पोजीशन भी मिलनी चाहिए. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो एक बार प्रशांत ने उनसे पूछा, "मई के बाद क्या?" इस बीजेपी नेता ने उसी अंदाज में जवाब भी दिया, "जून". धीरे धीरे बीजेपी आलाकमान को भी लगने लगा कि किशोर को कुछ ज्यादा ही गुमान हो गया है और पार्टी में बड़ी पोजिशन के लिए तमाम तिकड़म अख्तियार करने के लिए प्रयासरत हैं.
किशोर, फिलहाल, नीतीश के सरकारी आवास 1, अणे मार्ग पर डेरा जमाए हुए हैं और उनकी इस मौजूदगी का असर भी दिखता है. निश्चित रूप से, लोगों से संवाद कायम करने की नीतीश की रणनीति में बदलाव देखा जा सकता है. लोक सभा चुनाव में मोदी ने माहौल ऐसा बनाया कि लालू विपक्ष की अगुवाई करते नजर आने लगे और नीतीश छिटक कर काफी दूर जा पहुंचे.
मोदी के साथ काम करने की वजह से किशोर उनके सारे तौर तरीके और बारीकियों से बखूबी वाकिफ हैं. इसीलिए वे नीतीश के लिए खबरों का एजेंडा तय करते हैं, बजाए मोदी की बातों का पीछा करने के. जिस दिन मुजफ्फरनगर में मोदी की रैली थी उस दिन किशोर ने तब तक इंतजार किया जब तक कि उनकी फ्लाइट ने दिल्ली से उड़ान नहीं भर ली. उसके बाद ही उन्होंने मोदी से पूछे जाने वाले चार सवाल रिलीज किए. नतीजा ये हुआ कि रैली की तैयारियों से जुड़े विजुअल दिखाना छोड़ न्यूज चैनलों का फोकस उन चार सवालों पर शिफ्ट हो गया, जिन्हें नीतीश ने ट्विटर पर पूछे थे. किशोर को मालूम था कि एक बार प्लेन में सवार हो जाने के बाद मोदी का अपनी टीम से वैसा संपर्क नहीं रह पाएगा, जैसा राजधानी में रहते संभव था.
ये वही मौका था जब मोदी ने नीतीश के डीएनए पर हमला बोला था. जिसे किशोर ने बिहार के डीएनए पर हमले के तौर पर घुमा कर दे मारा. अब तक बिहार के एक लाख लोग बतौर डीएनए सैंपल अपने बाल और नाखून प्रधानमंत्री आवास भेज चुके हैं.
अनुबंध-1 की अहमियत
राजनीतिक विशेषज्ञ मोटे तौर पर यह मान रहे हैं कि आरजेडी-जेडीयू के पक्ष में यदि मुस्लिम ध्रुवीकरण हुआ तो वह अगड़ी जातियों के बीजेपी की तरफ आ जाने से शून्य हो जाएगा. महागठबंधन को बहुतायत में यादव वोट मिलने का भी कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि बीजेपी को दलित वोटों का बड़ा हिस्सा मिलेगा. जब दोनों खेमे अपने अपने करीब 30% वोट के साथ चुनावी युद्ध में जाने के लिए तैयार हैं, तो सारा दारोमदार उन 130 अति पिछड़ी जातियों पर आकर सिमट जाएगा, जो मुंगेरीलाल कमिशन की रिपोर्ट के अनुबंध-1 में शामिल हैं. इसे कर्पूरी ठाकुर सरकार ने 1978 में लागू किया था. इस अनुबंध में खटिक, धानुक, नाई, बिंद और बढ़ई जैसी छोटी छोटी जातियां हैं, जिन्होंने पहले कभी एक होकर वोट नहीं दिया. नीतीश कुमार ने अपने कई सामाजिक आर्थिक कार्यक्रमों के जरिए इन जातियों को 2010 में एक वोट बैंक के रूप में तैयार करने में कामयाबी हासिल की. लेकिन उपेंद्र कुशवाह जैसे नेताओं के नीतीश के अलग हो जाने से बीजेपी को अनुबंध-1 में शामिल जातियों के वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिलने की उम्मीद है. हकीकत में ये हिस्सा जिस भी खेमे के हाथ लगेगा, वही पाटलीपुत्र की जंग का विजेता होगा.
पासवान विरुद्ध मांझी
ऐसी राजनीतिक उदारता कम ही देखने को मिलती है, जैसी कि रामविलास पासवान ने आज तक पंचायत प्रोग्राम में ये कहते हुए दिखाई कि जितन राम मांझी उनसे बड़े दलित नेता हैं. लेकिन इस सार्वजनिक सौहार्द्र के पीछे दोनों दलित नेताओं के बीच थोड़ी अनबन भी है. पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी मानती है कि अमित शाह मांझी के चुनावी असर को कुछ ज्यादा ही आंक रहे हैं. और मांझी समझ रहे हैं कि मुख्यमंत्री रहते उनके फैसलों ने उन्हें बिहार के दलितों का करीबी बना दिया है और अब वे कई दलित जातियों के एकमात्र सर्वमान्य नेता हैं, जबकि इसके उलट पासवान सिर्फ पासवान समुदाय के ही नेता हैं.पासवान दलित जातियों में सबसे आक्रामक मानी जाती हैं और समझा जाता है कि उनमें क्षत्रियों (योद्धाओं) वाले गुण हैं. स्थानीय अंतरविरोधों के चलते पिछले चुनावों में शायद ही ऐसा हुआ कि पासवान और मुसहर ने एक खेमे का वोट दिया हो. बिहार के वोटों में पासवानों का हिस्सा 4% है और मुसहरों का भी. अमित शाह की बड़ी रणनीति का अहम हिस्सा यही है कि वे इन दोनों जातियों के वोट हासिल करें. लेकिन इन दो विरोधी जातियों को एक ओर लाना है उसी तरह मुश्किल होगा, जैसा कि लालू और नीतीश के लिए हमेशा एक दूसरे के विरोधी रहे यादव और कुर्मी-कोइरी वोटों को एक तरफ लाना.
सुशील मोदी सबसे प्रबल दावेदार
बीजेपी ने अब तक बिहार में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में किसी का नाम प्रस्तावित नहीं किया है लेकिन आंतरिक विचार-विमर्श में, अगर बीजेपी जीतती है तो सुशील मोदी के मुख्यमंत्री बनने की संभावना है. सुशील मोदी जेडीयू-बीजेपी सरकार में उप मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री थे, लेकिन नरेंद्र मोदी के साथ उनके समीकरण बिगड़ गए क्योंकि उन्हें नीतीश कुमार के ज़्यादा करीब देखा गया. सीनियर मोदी का मानना था कि सुशील मोदी नीतीश के खिलाफ उनके लिए कभी खड़े नहीं हुए. लेकिन बिहार चुनाव प्रचार की संभाल रहे नेताओं का कहना है कि सुशील मोदी के प्रति प्रधानमंत्री के अविश्वास की बात अब पुरानी हो चुकी है और हाल में हुई एक बैठक में नरेंद्र मोदी ने कहा कि उनके मन में सुशील मोदी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है.
भूलने की बीमारी
बिहार में आज के राजनीतिक मित्र कल के कट्टर दुश्मन थे. लालू और नीतीश. मांझी और बीजेपी. किसी राजनेता को उलझाने का सबसे आसान तरीका है उसे उन बयानों की याद दिलाना, जो अतीत में उन्होंने अपने 'मित्र' के बारे में बोले थे. शिक्षा मंत्री पी के शाही बिहार के अटॉर्नी जनरल हुआ करते थे और वो अभियोजन पक्ष के वकील थे, जब उन्होंने चारा घोटाले के दोषी लालू यादव की मदद की थी. शाही अब आरजेडी के नेताओं के साथ स्टेज साझा करते हैं. शाही से पूछिए क्या अब भी वो सोचते हैं कि लालू यादव भ्रष्ट हैं और उन्होंने राज्य का पैसा हड़पा था, तो शाही बातों को उलझाते हुए कुछ यूं कहते हैं कि अपने पेशेवर जीवन में उन्होंने जो कुछ भी कहा, वो अपने निजी जीवन में हमेशा उससे सहमत नहीं होते.
मोदी-नीतीश की होर्डिंग वार
राजधानी का स्काईलाइन राजनीतिक होर्डिंग से अटी पड़ी हैं. पटना की गलियों में ड्राइव करते हुए कोई भी इन होर्डिंग को देखकर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता. मुस्कुराते मोदी को हाथ जोड़े हुए देखा जा सकता है और होर्डिग पर लिखा है- 'बिहार के विकास में अब नहीं बाधा, मोदी जी ने दिया वायदे से ज़्यादा' (बिहार को दिया गया स्पेशल पैकेज राज्य से किए गए वादे से ज्यादा बड़ा है). मोदी के विशाल होर्डिंग के ठीक बगल में सख्त दिख रहे नीतीश कुमार उंगली से जीत का इशारा कर रहे हैं, और होर्डिंग पर लिखा है- 'झांसे में नहीं आएंगे, नीतीश को जिताएंगे'.
दिलचस्प यह है कि नीतीश के सहयोगी लालू किसी भी होर्डिंग में कहीं नहीं दिखाई देते. और बीजेपी के होर्डिंग में राज्य का कोई भी नेता नहीं है. ये एक सीधा मुकाबला है. मुस्कुराते हुए मोदी और सख्त नीतीश के बीच.
आपकी राय