बिहार में महागठबंधन की टूट राहुल गांधी की रणनीति का इशारा है
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने अब पार्टी में परिवर्तन की ओर कदम बढ़ा दिये हैं. कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब सरकार के साथ कांग्रेस (Congress) से विदाई ने तय कर दिया है कि पार्टी में वरिष्ठ नेताओं के 'अच्छे दिन' खत्म हो गए हैं. बिहार महागठबंधन (Bihar) में टूट भी इसी परिवर्तन का हिस्सा ही है.
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बिहार की राजनीति (Bihar Politics) में इन दिनों भरपूर सियासी उथलपुथल मची हुई है. आरजेडी में लालू परिवार के बीच सत्ता संघर्ष की कहानी से इतर महागठबंधन (Bihar Mahagathbandhan) में भी दरार की अटकलों का दौर शूरू हो गया. दरअसल, बिहार की दो विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव (Bihar By Election) को लेकर महागठबंधन के दो दल आरजेडी (RJD) और कांग्रेस (Congress) आमने-सामने आ चुके हैं. इन दोनों ही दलों ने कुशेश्वरस्थान और तारापुर सीट से अलग-अलग प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारने की घोषणा कर दी है.
हालांकि, आरजेडी नेता तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) ने महागठबंधन में दरार जैसी बातों को लेकर कहते दिख रहे हैं कि दोनों विधानसभा सीटों पर आरजेडी और कांग्रेस के बीच फ्रेंडली मैच होगा. लेकिन, कांग्रेस की ओर से संदेश साफ कर दिया गया है कि पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव में सूबे की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनकर उभरी आरजेडी को घमंड हो गया है. कहा जा रहा है कि महागठबंधन में पड़ी इस दरार के पीछे कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) के कांग्रेस में शामिल होने का बड़ा प्रभाव है. लेकिन, कन्हैया कुमार को कांग्रेस में लाने का फैसला तो पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का ही था. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बिहार में महागठबंधन की टूट राहुल गांधी की रणनीति का इशारा है?
राहुल गांधी ने कांग्रेस में अपने हिसाब से बदलाव करने की रणनीति अपना ली है.
एलजेपी में टूट से महागठबंधन में दरार तक
कन्हैया कुमार की कांग्रेस में एंट्री पर आरजेडी ने पार्टी पर आरोप लगाया था कि उसने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया है. लेकिन, कहानी गठबंधन धर्म से आगे की है. बिहार की राजनीति में अभी एलजेपी में वर्चस्व को लेकर चाचा-भतीजे (चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस) के बीच छिड़ी जंग को ज्यादा समय नहीं हुआ है. एलजेपी में हुई इस टूट के बाद से ही कयास लगाए जाने लगे थे कि प्रदेश में अगला नंबर कांग्रेस का है. उस दौरान लंबे समय तक अटकलें लगाई जा रही थीं कि भाजपा या जेडीयू के निशाने पर एलजेपी के बाद कांग्रेस आ चुकी है. लेकिन, बिहार कांग्रेस के विधायकों को बीजेपी और जेडीयू से ज्यादा खतरा आरजेडी से था. दरअसल, कांग्रेस के 19 विधायकों में से करीब 6 विधायक कट्टर कांग्रेसी परिवार के हैं. तो, चार अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं. कहने का मतलब ये है कि अगर भविष्य में कांग्रेस में टूट होती है, तो पार्टी विधायकों की तरजीह राजनीतिक हिसाब को देखते हुए भाजपा या जेडीयू न होकर आरजेडी ही होगी. इस स्थिति में कांग्रेस को सबसे ज्यादा खतरा आरजेडी से ही नजर आ रहा था.
माना जा रहा है कि राहुल गांधी ने बिहार को लेकर अपनी रणनीति के तहत ही कन्हैया कुमार को कांग्रेस में शामिल किया है. बीते कुछ समय में देखा जाए, तो मिशन 2024 के तहत कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलकर चलती नजर आ रहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साझा विपक्ष के नेतृत्व को लेकर राहुल गांधी पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल के साथ ही उत्तर-पूर्व के राज्यों समेत गोवा जैसे राज्य में भी तृणमूल कांग्रेस सुपीमो ममता बनर्जी ने कांग्रेस के नेताओं को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल करना शुरू कर दिया है. आसान शब्दों में कहें, तो ममता बनर्जी ने साझा विपक्ष में शामिल हो रहे तमाम सियासी दलों को एक रास्ता दिखा दिया है कि किस तरह से कांग्रेस को कमजोर किया जा सकता है. राहुल गांधी इस समय कांग्रेस में बदलाव की बयार चला रहे हैं. पंजाब सरकार से कैप्टन अमरिंदर सिंह की विदाई के साथ ये बात तय हो चुकी है कि कांग्रेस में अब बुजुर्ग नेताओं के 'अच्छे दिन' खत्म हो गए हैं. और, पार्टी में अब राहुल गांधी अपने हिसाब से लोगों की भर्तियां करेंगे.
आसान शब्दों में कहें, तो कन्हैया कुमार देशभर में भाजपा और मोदी विरोध का बड़ा चेहरा हैं. वहीं, बिहार में कांग्रेस कन्हैया कुमार को आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के सामने उनके बराबर के सियासी कद पर लाना चाहती है. बिहार की राजनीति को करीब से देखेंगे, तो स्थिति साफ है कि अगले विधानसभा चुनाव में मुकाबला आरजेडी, एलजेपी (राम विलास), भाजपा, जेडीयू, कांग्रेस के युवा नेताओं के बीच ही होना है. राहुल गांधी ने भूमिहार जाति को साधने के लिए कन्हैया कुमार के तौर पर एक बड़ा दांव खेला है. और, दो सीटों पर होने वाले विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस को इसका क्या फायदा मिलेगा, ये भी साफ हो जाएगा. लेकिन, इसी के साथ कांग्रेस पार्टी एक और बड़ा फैसला लेने के करीब पहुंचती दिख रही है. ये फैसला है जन अधिकार पार्टी के कांग्रेस में विलय का. आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के बाद बिहार की राजनीति में जन अधिकार पार्टी (JAP) के पप्पू यादव (Pappu Yadav) को यादवों का बड़ा नेता कहा जाता है. वहीं, पप्पू यादव की की पत्नी रंजीत रंजन पहले से ही कांग्रेस में हैं और कांग्रेस की सांसद भी रह चुकी हैं.
बिहार में कांग्रेस कन्हैया कुमार के बाद पप्पू यादव को भी पार्टी में शामिल करने की तैयारी में है.
हालांकि, इस विलय में एक ही पेंच है और वो पेंच राहुल गांधी की राजनीति को पूरी तरह से सूट भी करता है. दरअसल, पप्पू यादव जेल से बाहर आने के बाद कहा था कि मेरा मानना है, कांग्रेस को मजबूत होना चाहिए. अगर कांग्रेस बिहार में आरजेडी से अलग होती है और अपनी विचारधारा के साथ नए बिहार को बनाने की बात करेगी, तो जन अधिकार पार्टी हर हाल में कांग्रेस को समर्थन करेगी. आसान शब्दों में कहें, तो पप्पू यादव ने राहुल गांधी की 'बदलाव' की रणनीति पर मुहर लगाते हुए उनके साथ आने को हामी भर दी है. राहुल गांधी की रणनीति पर ही महाराष्ट्र के पार्टी अध्यक्ष नाना पटोले अभी से अगला विधानसभा चुनाव कांग्रेस अकेले लड़ेगी, का नारा बुलंद किये हुए हैं. दरअसल, राहुल गांधी उन सभी राज्यों में विपक्षी दलों की बैसाखी छोड़ने के मूड में नजर आ रहे हैं, जो भविष्य में उनको नुकसान पहुंचा सकती हैं. उसमें बिहार केवल एक राज्य है. हो सकता है कि भविष्य में झारखंड जैसे राज्यों में भी कांग्रेस 'एकला चलो' की रणनीति पर उतर सकती है.
राहुल गांधी का एक ही मिशन 'पीएम पद'
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने साझा विपक्ष (Opposition) को लेकर हुई पिछली बैठक में कहा था कि विपक्षी एकता को बनाए रखने के लिए कांग्रेस अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखेगी. दरअसल, ऐसा कहकर सोनिया गांधी एक तरह से साझा विपक्ष की कमान राहुल गांधी के हाथों में देने की अपील कर रही थीं. लेकिन, इसके उलट साझा विपक्ष बनाने की कोशिशों में शामिल तृणमूल कांग्रेस, सपा, आरजेडी जैसे दल कांग्रेस पर ही पिछले दरवाजे से घात लगाने की तैयारी कर रहे हैं. पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की विदाई के बाद ये बात तय हो गई है कि राहुल गांधी की रणनीति पार्टी में आमूल-चूल परिवर्तन की है. और, इसके लिए कुछ बुजुर्ग नेताओं की छुट्टी भी करनी पड़े, तो वह संकोच नही करेंगे. वहीं, नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेताओं के कांग्रेस में भविष्य पर भी राहुल गांधी ने चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाकर साफ इशारा कर दिया है कि राज्य से लेकर केंद्र स्तर तक पार्टी में हर चीज उनके ही हिसाब से चलेगी.
कांग्रेस की ओर से उत्तराखंड में सीएम पद के उम्मीदवार हरीश रावत सरीखे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जब ये मांग करने लगें कि उत्तराखंड में भी पंजाब की तरह दलित मुख्यमंत्री होना चाहिए. तो, राहुल गांधी की वरिष्ठ समेत सिद्धू सरीखे नेताओं के अड़ियल रूख को लेकर स्थिति स्पष्ट हो जाती है. हालांकि, अभी राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से करीबी के चलते बचे हुए हैं. लेकिन, राजस्थान सरकार के कैबिनेट विस्तार में ज्यादा देरी होने पर उनका भी नंबर लग सकता है. इसके लिए राहुल गांधी राजस्थान में कांग्रेस सरकार के जाने का नुकसान झेलने को भी तैयार नजर आते हैं. दरअसल, कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी सभी दलों को साथ लेकर चलने की नीति रखती है. लेकिन, राहुल गांधी की नजर में केवल प्रधानमंत्री की कुर्सी है. और, 2024 से पहले वह किसी भी हाल में खुद को और कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के आगे झुकने वाला दल नहीं दिखाना चाहते हैं.
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