त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में भाजपा की राह कितनी आसान?
जल्द ही त्रिपुरा के लिए 13वीं विधानसभा का चुनाव होगा. ये ऐसा राज्य है जो एक वक्त वामपंथी शासन का गढ़ था, लेकिन 2018 के चुनाव में भाजपा ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम की सत्ता को यहां से उघाड़ फेंका. अब आम लोगों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के जेहन में ये सवाल गूंज रहा है कि क्या इस बार भाजपा अपनी सत्ता बरकरार रख पाएगी या सीपीएम को फिर से मौका मिलेगा.
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इस साल के अंत तक नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव (Assembly Election) होने हैं. अगले साल वाले होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इन्हें राजनीतिक दलों के शक्ति परीक्षण के तौर पर देखा जा रहा है. नौ राज्यों में होने वाले चुनाव की शुरुआत चुनाव आयोग ने उत्तर पूर्व के तीन राज्यों त्रिपुरा मेघालय और नागालैंड में चुनाव कराये जाने की घोषणा कर दी गई है. त्रिपुरा में 16 फरवरी, मेघालय और नागालैंड में 27 फरवरी को चुनाव होंगे. 2 मार्च को तीनों राज्यों के नतीजे एक साथ घोषित किए जाएंगे. चुनाव के तारीखों की घोषणा के साथ ही तीनों राज्यों में आदर्श चुनाव आचार संहिता भी लागू हो गई. भाजपा जहां अपने पैर फैलाने के लिए और बाकि दल अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए चुनाव में उतरेंगे.
भले ही चुनाव 3 राज्यों में है लेकिन त्रिपुरा के चुनाव पर सबकी खास निगाह है. त्रिपुरा जाकर ही अमित शाह ने राहुल गांधी को 2024 में राम मंदिर की तारीख बतायी है. इसके आलावा त्रिपुरा जाकर ही अमित शाह ने बंगाल की तरह मोर्चा संभाला हुआ है. त्रिपुरा में ही विधायकों का चुनाव पूर्व थोक में दलबदल चिंता की वजह भी बना हुआ है.
इस वर्ष 2023 में त्रिपुरा के लिए 13वीं विधानसभा का चुनाव होगा. ये ऐसा राज्य है जो एक वक्त वामपंथी शासन का गढ़ था, लेकिन पिछली बार 2018 के चुनाव में भाजपा ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम की सत्ता को यहां से उघाड़ फेंका. अब आम लोगों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के जेहन में ये सवाल गूंज रहा है कि क्या इस बार भाजपा अपनी सत्ता बरकरार रख पाएगी या सीपीएम को फिर से मौका मिलेगा. क्या टीएमसी के रूप में राज्य के लोगों को नया विकल्प मिल सकता है. इन सभी सवालों के जवाब के लिए यहां के सियासी समीकरणों को समझना बेहद जरूरी है.
त्रिपुरा में 2018 में हुए चुनाव में भाजपा ने इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था
त्रिपुरा में 2018 में हुए चुनाव में भाजपा ने इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. भाजपा ने कुल 60 में से 51 सीटों पर चुनाव लड़ा था. भाजपा को इनमें से 36 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. उसके सहयोगी IPFT 8 सीट पर जीत हासिल करने में सफल रही. भाजपा को 43.59% वोट हासिल हुए और IPFT को 7.38% वोट मिले. भाजपा गठबंधन को 44 सीटों पर जीत मिली और 51 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल हुए. इसके साथ ही भाजपा पहली बार यहां सरकार बनाने में कामयाब हुई.
25 साल से शासन कर रहे सीपीएम को उसी के गढ़ में मात देकर भाजपा ने त्रिपुरा की राजनीति में नए युग की शुरुआत कर दी. कई साल से त्रिपुरा की सत्ता को संभाल रही सीपीएम 2018 के चुनाव में बुरी तरह से हार गई. सीपीएम ने 57 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. इनमें से वो सिर्फ 16 सीटें जीत पाई. हालांकि सीपीएम के वोट शेयर और भाजपा के वोट शेयर में एक फीसदी से थोड़ा सा ही ज्यादा गैप था. सीपीएम को 42.22% वोट हासिल हुए. इससे पहले हुए 8 चुनावों में कभी भी सीपीएम का वोटशेयर 45% से कम नहीं हुआ था. इससे जाहिर है कि भाजपा का IPFT के साथ गठबंधन के फैसले ने सीपीएम को काफी नुकसान पहुंचाया और त्रिपुरा को नया विकल्प मिल गया.
त्रिपुरा की राजनीति में कभी कांग्रेस की गिनती भी दमदार खिलाड़ियों में होती थी, लेकिन पिछली बार विधानसभा चुनाव में उसका खाता तक नहीं खुला. कांग्रेस ने 59 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. उसे दो फीसदी से भी कम वोट मिले. यहीं हश्र तृणमूल कांग्रेस का भी हुआ. टीएमसी ने 24 सीटों पर किस्मत आजमाई थी, लेकिन वो एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं रही. टीएमसी को सिर्फ 0.3% ही वोट मिले.
21 जनवरी 1972 को त्रिपुरा पूर्ण राज्य बना. उसके पहले त्रिपुरा केंद्रशासित प्रदेश था. पूर्ण राज्य बनने के बाद त्रिपुरा में पहली बार विधानसभा चुनाव मार्च 1972 में हुआ. पूर्ण राज्य बनने के बाद त्रिपुरा में अब तक 10 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं. इनमें से पहले और तीसरे विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी. वहीं 7 बार सीपीएम की सरकार रही है और एक बार 2018 से भाजपा की सरकार रही है. इससे पहले त्रिपुरा में 1993 से लगातार पांच बार सीपीएम की सरकार बनते आ रही थी.
1983 से अब तक के चुनावी नतीजों के विश्लेषण से कोई भी समझ सकता है कि त्रिपुरा की राजनीति में भाजपा का सफर कितना मुश्किल भरा रहा है. 2018 से पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि आने वाले वक्त में त्रिपुरा की सत्ता भाजपा संभालेगी. इसकी एक बड़ी वजह थी. 2018 से पहले भाजपा राज्य में किसी भी विधानसभा चुनाव में एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई थी. त्रिपुरा की राजनीति में भाजपा 1983 में उतरी. सीटों के हिसाब से शून्य के साथ शुरुआत हुई. 30 साल बाद भी 2013 में सीटों के लिहाज से भाजपा शून्य पर ही टिकी रही. लेकिन 35 साल के लंबे इंतजार के बाद भाजपा 2018 में शून्य से सीधे सत्ता के शीर्ष पर जा पहुंची.
भाजपा 2018 में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती थी. चुनाव से दो साल पहले से ही अपनी रणनीति पर काम करने लगी थी. एक बड़ी टीम को त्रिपुरा की जनता के बीच केंद्र सरकार की योजनाओं और उपलब्धियों के प्रचार में लगाया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर कई केंद्रीय मंत्रियों ने लगातार त्रिपुरा का दौरा किया. भाजपा त्रिपुरा की जनता को ये समझाने में सफल रही कि माणिक सरकार ने राज्य को विकास के दूर रखने का काम किया है. 42 हजार पन्ना प्रमुक नियुक्त कर एक-एक वोटर को साधने की कोशिश की. पन्ना प्रमुख का आइडिया भाजपा के वोटरों को पोलिंग बूथ तक लाने में बेहद कारगर साबित हुई. राज्य में भाजपा कार्यकर्ताओं ने मोदी सरकार की उपलब्धियों को क्षेत्रीय भाषा में पहुंचाने पर खूब काम किया. संघ से जुड़े एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन आदिवासियों के बीच कई साल से काम कर रहे थे. इससे आदिवासी इलाकों में भाजपा का बड़ा जनाधार तैयार हुआ.
पिछले चुनाव में इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का भी बहुत फायदा मिला. इससे ये फायदा हुआ कि राज्य में सीपीएम के वोट शेयर में ज्यादा कमी नहीं होने के बावजूद भी भाजपा गठबंधन आसानी से दो तिहाई बहुमत लाकर लेफ्ट के किले को रौंद दिया. यहीं वजह है कि भाजपा ने साफ किया है कि वो इस बार भी इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ ही चुनाव लड़ेगी. हालांकि त्रिपुरा में IPFT अब उतनी मजबूत नहीं रही है जितनी 2018 में थी. भाजपा को इस गैप को भी भरना होगा.
2018 में भाजपा ने युवा चेहरे के तौर पर बिप्लब देब को मुख्यमंत्री बनाया था. लेकिन चुनाव से नौ महीने पहले इस साल मई में भाजपा ने बिप्लब देब की जगह माणिक साहा को मुख्यमंत्री बना दिया. भाजपा के कई विधायक बिप्लब देव के कामकाज के तरीके से नाराज थे. इन विधायकों ने दिल्ली तक शिकायत दर्ज कराई थी.
भाजपा 2023 के चुनाव में कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती थी. यहीं वजह थी कि 6 साल पहले कांग्रेस से पार्टी में आए माणिक साहा को कमान दिया गया. इसे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से मिड-कोर्स करेक्शन के तौर पर देखा गया.माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का बड़ा दांव है. बिप्लव देव से राज्य के कार्यकर्ताओं में भी नाराजगी की खबर थी. 2016 में भाजपा में आने के बाद से ही कार्यकर्ताओं में माणिक साहा का कद लगातार बढ़ता गया. माना जा रहा है कि माणिक साहा कार्यकर्ताओं के बीच एकता बनाए रखने में ज्यादा सक्षम हैं और दोबारा सत्ता वापसी के लिए ये बेहद जरूरी है.
2014 में सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर राज्यों में विकास तो प्राथमिकता दी. इसके साथ ही नरेंद्र मोदी और उस वक्त भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा का जनाधार बढ़ाने की रणनीति पर भी काम किया. इस रणनीति से भी पिछली बार त्रिपुरा चुनाव में भाजपा को काफी लाभ हुआ है. पिछली बार भाजपा ने त्रिपुरा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ी थी. मोदी फैक्टर ने कमाल भी कर दिखाया था. इस बार ये कितना कारगर साबित होगी, इसपर भी भाजपा की सत्ता वापसी निर्भर करता है.
भाजपा त्रिपुरा में 'घरे-घरे बीजेपी' अभियान भी चला रही है. इसके जरिए वो लोगों तक राज्य सरकार के पिछले पांच साल का रिपोर्ट कार्ड पहुंचा रही है. इसके अलावा केंद्र की योजना की जानकारी भी दे रही है. एंटी इनकंबेंसी से बचने के लिए भाजपा का ये कदम फायदेमंद साबित हो सकता है. चुनावी सरगर्मी तेज़ होते ही त्रिपुरा में दल-बदल करने वाले नेताओं और संभावित गठबंधन को लेकर भाजपा के साथ ही सीपीएम और कांग्रेस ने भी रणनीति बनाना शुरु कर दिया है.
इस बार भाजपा को टीएमसी से भी कड़ी टक्कर मिल सकती है. पिछले पांच साल में कांग्रेस के कई नेताओं ने टीएमसी का दामन थामा है. 7 दिसंबर को ही कांग्रेस के 6 बड़े नेता टीएमसी में शामिल हुए हैं. इनमें त्रिपुरा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष पीजूष कांति बिस्वास भी शामिल हैं. उन्हें टीएमसी ने त्रिपुरा का नया अध्यक्ष बनाते हुए भाजपा के खिलाफ रणनीति बनाने की जिम्मेदारी दी है. अभी तक तो टीएमसी का राज्य में चुनाव में कुछ खास प्रदर्शन नहीं रहा है, लेकिन इस बार वो त्रिपुरा में सीपीएम और कांग्रेस का विकल्प बनने की तैयारी में है. त्रिपुरा में कुल आबादी का दो तिहाई बांग्ला भाषा बोलने वाले हैं. टीएमसी की नज़र इस वोटबैंक पर है. इस चुनौती से भाजपा कैसे निपटती है, ये भी देखने वाली बात होगी.
वैसे पिछले चुनाव में मिले वोट प्रतिशत को ध्यान में रखकर देखा जाए तो इस बार कांग्रेस और सीपीएम गठबंधन मजबूत स्थिति में है, बशर्ते वे पिछले चुनाव में मिले वोट प्रतिशत को बरकरार रख पाएं तो यह भाजपा के लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. पिछली बार के चुनाव में भाजपा को 43.5 वोट मिले थे जबकि सीपीएम और कांग्रेस को सयंक्त रूप से लगभग 44 प्रतिशत, जोकि भाजपा के वोटों से .5 प्रतिशत ज्यादा है.
भाजपा और सीपीएम के वोट प्रतिशत में महज 1.25 प्रतिशत मामुली अंतर है. किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में पिछले चुनाव में तीसरे नंबर पर रही इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा, जिसे 7.38वोट मिले थे, इस बार के चुनाव में गेम चेंजर की भूमिका निभा सकती है. देखना यह वह होगा इस चुनाव में उसका खुद का प्रदर्शन कैसा रहता है, अगर वह अपना वोट बरकरार रख पाती है तो वह चुनाव में बड़ी भूमिका निभा सकती है.
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