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Updated: 22 दिसम्बर, 2015 08:23 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की चौथी बार केन्द्र में सरकार बनी है. पहली तीन सरकारों की कमान अटल बिहारी बाजपेयी ने संभाली और मौजूदा तीसरी सरकार का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं. इन चारों सरकारों के क्रिया-कलाप को देखें तो एक बात यह समझ में आती है कि बीजेपी का विपक्ष में बैठना देश को ज्यादा पसंद आता है. विपक्ष के किरदार में बीजेपी ज्यादा समझदार और तर्कसंगत पार्टी लगती है. विपक्ष में रहते हुए पार्टी की राष्ट्रीय एंव अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बेबाक राय ज्यादा अपील करती है और उसका सत्तारूढ़ पार्टी का विरोध करने का तरीका ज्यादा राष्ट्रहित में लगता है. ऐसा इसलिए कि जब-जब पार्टी सत्ता में आई है तो कई अहम मुद्दों पर पार्टी की कथनी और करनी में बड़ा फासला दिखाई देने लगता है. आमधारणा भी यह बनने लगती है कि सत्ता में आते ही पार्टी उन ज्यादातर मुद्दों पर कंफ्यूज हो जाती है जिनपर विपक्ष में रहते हुए उसका पक्ष बेहद स्पष्ट और मजबूत रहता है.

1980 में भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी गई. 1984 में लोकसभा चुनाव हुए और बीजेपी के मात्र दो सदस्य जीतकर लोकसभा पहुंचे और विपक्ष में बैठ गए. राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और अटल बिहारी बाजपेयी विपक्ष की बेंच से जमकर विरोध करते थे. ऐसे में शाह बानों विवाद आया और राजीव गांधी देश के मुस्लिम कट्टरपंथियों के पक्ष में खड़े हो गए जबकि संविधान का नीतिगत निर्देश यूनीफॉर्म सिविल कोड स्थापित करने का है. लेकिन कांग्रेस की यह मजबूरी थी क्योंकि आजादी के बाद से अल्पसंख्यक उसका सबसे अहम वोट बैंक जो था. संसद में बीजेपी के महज 2 सांसदों के विरोध ने कांग्रेस को बेहद असहज कर दिया.

कांग्रेस को यह डर लग गया कि कहीं बीजेपी का यूनीफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में बोलना उसके बहुसंख्यक वोट बैंक में सेंध न लगा दे. लिहाजा इस फैसले के बाद कांग्रेस ने बहुसंख्यक वोट बैंक को खुश करने की नीयत से अयोध्या में रामलला पर 1949 से जवाहरलाल नेहरू का लटकाया हुआ ताला खुलवा दिया. इसके समानांतर देशभर में कांग्रेस प्रायोजित रामानंद सागर के टेलीवीजन धारावाहिक रामायण के प्रसारण से नई स्क्रिप्ट लिखी जा रही थी. इस दौरान विश्व हिंदू परिषद ने विवादित ढ़ांचे पर राम मंदिर का निर्माण कराने का आह्वान किया और बीजेपी ने मुखर होकर उसका समर्थन कर दिया. देश के बहुसंख्यक वोट बैंक को बीजेपी का यह बेबाक समर्थन समझ में आया और 1989 में हुए आम चुनावों में पार्टी ने बड़ी छलांग लगाते हुए लोकसभा में 86 सीटों पर कब्जा कर लिया.

अब क्या 2 सीट से 86 सीट की इस छलांग को बीजेपी का विपक्ष में रहकर विरोध करने का नतीजा नहीं कहा जाएगा? इस जीत से पार्टी ऐसी स्थिति में पहुंच गई कि उसके बिना शर्त समर्थन से वी पी सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए. गौरतलब है कि बीजेपी की स्थापना हुए अभी एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था और देश में उसके समर्थन पर टिकी सरकार काम कर रही थी. वीपी सिंह सरकार का एक मात्र नैरेटिव था कि भारतीय राजनीति से कांग्रेस के अस्तित्व को खत्म करना. वहीं बीजेपी को बदले हुए शक्ति समीकरण में अपने हिंदू एजेंडे को आगे बढ़ाना था. लिहाजा, बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने पूरे देश में भ्रमण कर रामलला पर मदिर निर्माण का द्वीप प्रज्वलित करने के लिए रथयात्रा की शुरुआत कर दी. केन्द्र सरकार को समर्थन के बावजूद बीजेपी को अपना अंकगणित सुधारना के लिए यह जरूरी था कि वह सत्ता के विरोध में बनी रहे. इसी के चलते बीजेपी ने जल्द वीपी सिंह से समर्थन वापस ले लिया. जिसके बाद 1991 में हुए आम चुनावों में बीजेपी को इस विरोध की राजनीति का एक बार फिर फायदा मिला और पार्टी की स्थापना के 11वें साल में पार्टी ने लोकसमा में 120 सीटों पर कब्जा कर लिया.

इस जीत ने यह साफ कर दिया कि बीजेपी एक विपक्ष की पार्टी है जिसके लिए जरूरी है कि सत्ता के केन्द्र में कोई दल या फिर गठबंधन मौजूद रहे. इस उपलब्धि के लगभग 9 साल बाद बीजेपी को केन्द्र में अपने गठबंधन के साथ सरकार बनाने का मौका मिला. लेकिन वीपी सिंह की कांग्रेस मुक्त राजनीति का सपना भूल चुकी बीजेपी को अगले आम चुनावों में कांग्रेस गठबंधन के हाथों हार का सामना करना पड़ा. देश के वोटर ने बीजेपी के शाइनिंग इंडिया के सपने को ठुकरा नकार दिया. नतीजा यह रहा कि कांग्रेस को लगातार 10 साल के लिए सत्ता पर आसीन होने का मौका मिला. एक बार फिर बीजेपी के सामने कांग्रेस की सरकार थी और उसे विरोध की ही राजनीति का सहारा लेकर संसद में अपनी गणित को सुधारने की चुनौती थी. लेकिन यूपीए 1 के दौर में बीजेपी ने कांग्रेस के विरोध में सुर नहीं अलापा और उसका खामियाजा यूपीए 2 के हाथ सत्ता देकर चुकाना पड़ा.

लिहाजा, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की 2014 की जीत का श्रेय भी बीजेपी के विपक्ष की भूमिका को ही जाता है जहां पार्टी ने खुलकर धारा 370 हो या कशमीर, जीएसटी हो या एफडीआई, कांग्रेस हो या गांधी परिवार के विरोध की राजनीति की है. लेकिन पिछले 19 महीनों से सत्ता में बैठी बीजेपी खुद सत्ता से असहज होती दिख रही है. कांग्रेस ने भी विरोध की राजनीति का सहारा लेना शुरू कर दिया है, ठीक उसी तरह से जैसा बीजेपी ने पिछले कई दशकों से किया है. लिहाजा एक बात तो साफ है कि बीजेपी विपक्ष के डीएनए को तो भलीभांति समझती है लेकिन क्या वह सत्ता के डीएनए को डीकोड नहीं कर पा रही है?

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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