बीजेपी के हैदराबाद एक्सपेरिमेंट का पश्चिम बंगाल चुनाव में कितना असर?
हैदराबाद (BJP Hyderabad Experiment) की कामयाबी को से बीजेपी कार्यकर्ताओं में बिहार की जीत का जोश डबल हो गया है - सवाल है बंगाल (West Bengal Election 2021) में असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की फ्रेंडली फाइट का बीजेपी को भी फायदा मिलेगा क्या?
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भारतीय जनता पार्टी ने हैदराबाद नगर निगम चुनाव में जो एक्सपेरिमेंट (BJP Hyderabad Experiment) किया है, उसके कई फलक हैं. बस थोड़ा ध्यान देकर छोटी छोटी चीजों पर खुले दिमाग से गौर करने पर काफी चीजें धीरे धीरे समझ में आने लगती हैं.
बिहार और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वक्त का फासला बहुत ज्यादा नहीं था. फिर भी बीजेपी ने एक नगर निगम का चुनाव जनरल इलेक्शन की तरह लड़ा है. कहने को कुछ बचा रहे, शायद इसीलिए बीजेपी की रणनीति तैयार करने वाले अमित शाह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़ कर योगी आदित्यनाथ जैसे स्टार प्रचारक से लेकर बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा तक से रोड शो करा डाला - और खुद भी सड़क पर उतरे.
मालूम नहीं कितने लोगों को ध्यान गया होगा. बीजेपी नेतृत्व ने भूपेंद्र यादव तक को पटना से सीधे हैदराबाद रवाना कर दिया और जाते ही वो कमांडो की तरह ऑपरेशन में जुट गये. अमित शाह के साथ सड़कों पर भूपेंद्र यादव लगातार डटे रहे. बिहार चुनाव की तैयारी में भूपेंद्र यादव तो तभी से जुटे होंगे जब से उनको प्रभारी बनाया गया, लेकिन आम चुनाव के बाद से तो महीनों से वो ठीक से सो भी नहीं पाये होंगे. फिर भी बीजेपी नेतृत्व ने उनको नये मोर्चे पर सेवा देने से पहले थोड़ा आराम तक नहीं करने दिया.
बनारस का ही एक वाकया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक रोड शो होना था. देर रात तक चुनावी तैयारियों पर चर्चा के बाद अमित शाह ने एक साथी को बोला कि सुबह मिलते हैं और जरा रोड शो की तैयारियां एक बार देख लेते हैं. सुबह होने में कुछ ही घंटे बचे थे और अमित शाह के ये थोड़े से शब्द उस बीजेपी नेता के पूरे शरीर में सिहरन ला दिये. बहरहाल, सुबह आंख खुली तो निश्चित किये गये वक्त में कुछ बाकी था. भाग कर तय स्थान पर पहुंचे. अभी सोच रहे थे कि अमित शाह को आने की सूचना दे दें, तब तक सामने नजर पड़ी और अवाक् रह गये - दरअसल. अमित शाह पहले से ही मौके पर पहुंच कर अपने साथी का इंतजार कर रहे थे. जाहिर है भूपेंद्र यादव को भी हैदराबाद के रास्ते में भूपेंद्र यादव के मन में भी ऐसे ख्याल आते होंगे. ये भी हो सकता है कि भूपेंद्र यादव के साथ बनारस जैसा वाकया एक से ज्यादा बार भी हुआ हो.
अब अगर चुनाव को लेकर कोई इस हद तक पैशनेट हो तो राहुल गांधी जैसा छुट्टियों का शौकीन कैसे मुकाबला कर पाएगा. यही वजह है कि कांग्रेस के भीतर ही काम करते दिखने वाले अध्यक्ष की डिमांड जोरों पर है - और किसी जमाने में कांग्रेस छोड़कर फिर से महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में हिस्सेदार शरद पवार को राहुल गांधी में निरंतरता की कमी नजर आती है - वो भी तब जबकि वो निरंतर प्रधानमंत्री मोदी पर अपने हमले एक ही स्टाइल में जारी रखे हुए हैं.
वैसे महत्वपूर्ण सवाल ये है कि क्या असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) बिहार की तरह पश्चिम बंगाल (West Bengal Election 2021) में कोई चमत्कार दिखायेंगे या नहीं? वैसे बीजेपी नेतृत्व को असदुद्दीन ओवैसी से पश्चिम बंगाल में तो चिराग पासवान जैसी ही आस होगी - जैसे वो नीतीश कुमार के खिलाफ एक प्रोफेशनल वोटकटवा की तरह पेश आये, ओवैसी भी ममता बनर्जी के विरुद्ध वैसा ही कोई करिश्मा दिखा सकते हैं क्या?
असदुद्दीन ओवैसी बंगाल में चिराग पासवान साबित होंगे भी या नहीं, अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन अगर गुड कोलेस्ट्रॉल की तरह वो थोड़े से भी अच्छे वोटकटवा का किरदार निभा पाये तो बीजेपी के लिए 'पंचायत से पार्लियामेंट' के रास्ते की एक सीढ़ी कम तो हो ही सकती है!
बीजेपी के हैदराबाद एक्सपेरिमेंट को कैसे समझें?
बिहार और बंगाल के बीच हैदराबाद हॉल्ट पर ही बीजेपी के पूरी ताकत झोंक देने की एक अहम वजह मिलती जुलती डेमोग्राफी है. हैदराबाद नगर निगम चुनाव में 40 फीसदी मुस्लिम आबादी बीजेपी के एक्सपेरिमेंट की सबसे बड़ी वजह रही. बीजेपी ने पश्चिम बंगाल के लिए जो रणनीति तैयार की है, उसे आजमाने के लिए हैदराबाद की चुनावी गलियां पोकरण के मैदान जैसी ही साबित हुई हैं - क्योंकि पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी को वहां की 30 फीसदी मुस्लिम आबादी को टैक्टिकली हैंडल करना है.
मुस्लिम वोट बैंक ममता के बंगाल की सत्ता हासिल करने से लेकर बने रहने तक एक मजबूत सपोर्ट सिस्टम साबित हुआ है. लॉकडाउन के वक्त ममता बनर्जी पर केंद्र जो सवाल खड़े करता था वो बाजारों के खुले रहने और सोशल डिस्टैंसिंग का पालन न होने को लेकर ही रहा. असल में ममता बनर्जी मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में सख्ती बरतने के पक्ष में नहीं नजर आती थीं. बाबुल सुप्रियो, दिलीप घोष और कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेता ऐसी ही तस्वीरें और वीडियो शेयर कर ममता बनर्जी पर हमला बोला करते रहे.
माना जाता है कि ये मुस्लिम आबादी ही है जिसमें पैठ बना कर ममता बनर्जी 2011 में सत्ता में आयीं और 2016 में शानदार वापसी की. 2006 तक वाम मोर्चा इस वोट बैंक को अपने साथ रखने में सफल रहा था. कहने की जरूरत नहीं बीजेपी की पहली कोशिश यही होगी कि वो कैसे मुस्लिम वोटों में बंटवारा सुनिश्चित करे.
अमित शाह को बंगाल से पहले लैब टेस्ट के लिए एक मौका चाहिये था - हैदराबाद में मिल गया और भरपूर फायदा भी उठाया
अभी अभिषेक बनर्जी इस स्थिति में तो नहीं आये हैं कि बीजेपी ममता बनर्जी पर भी परिवारवाद की राजनीति के आरोप लगा सकती है, लेकिन तुष्टिकरण की तोहमत तो अरसे से मढ़ी ही जा रही है. वैसे अभिषेक बनर्जी और ऊपर से प्रशांत किशोर की दखल से तृणमूल कांग्रेस के काफी नेता परेशान हैं और शुभेंदु बनर्जी भी उनमें से एक हैं.
एक अनुमान के मुताबिक पश्चिम बंगाल में फिलहाल मुस्लिम आबादी 30 फीसदी होनी चाहिये - क्योंकि 2011 की जनगणना के मुताबिक ये आंकड़ा 27.01 फीसदी रहा है. पश्चिम बंगाल की 294 में से करीब 100 सीटों पर या कहें कि उससे कुछ ज्यादा पर ही, मुस्लिम वोट बैंक निर्णायक भूमिका में समझा जा रहा है.
मुस्लिम समुदाय के बारे में अब तक माना जाता रहा है कि 2014 के बाद से वे उसी पार्टी को वोट देना पसंद करते हैं जो दल बीजेपी को हराने में सक्षम नजर आता हो. हालांकि, 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव और 2019 के आम चुनाव में ये धारणा कुछ हद तक गलत भी साबित हुई है.
असदुद्दीन ओवैसी को अपने बीच पाकर मुस्लिम समुदाय को ऐसा लगने लगा है कि AIMIM कम से कम बीजेपी के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज तो बन ही रही है. बिहार में ओवैसी की पार्टी के सफल होने की एक बड़ी वजह तो यही रही है.
अगर पश्चिम बंगाल के हिसाब से देखें तो मुस्लिम समुदाय के फायदे की तमाम स्कीमें चलाये जाने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस के प्रति नाराजगी बढ़ी हुई समझी जा रही है. अगर वास्तव में ये महज कोई अंदाजा नहीं है तो निश्चित तौर पर ओवैसी अपने लोगों के बीच खुद को विकल्प के तौर पर पेश तो कर ही सकते हैं.
बीजेपी पर अरसे से एक अघोषित तोहमत लगती रही है - लोग मान कर चलते हैं कि ओवैसी हर जगह बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए काम करते हैं. बीजेपी के हैदराबाद प्रयोग की एक बड़ी वजह ओवैसी को लेकर तोहमत से निजात पाने की कोशिश भी हो सकती है.
असदुद्दीन ओवैसी के पश्चिम बंगाल को लेकर साफ तौर पर कुछ भी बताने से पहले ही बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी AIMIM को बीजेपी की बी-टीम बता चुके हैं - वो कहते हैं कि ओवैसी के बंगाल मिशन का फायदा तो बीजेपी को ही मिलेगा. बीजेपी के हैदराबाद नगर निगम चुनाव लड़ने और लड़ाई में ओवैसी को भी नुकसान पहुंचाने का एक मैसेज तो ये हो ही सकता है कि AIMIM बीजेपी की बी टीम नहीं है - और ऐसा संभव हो पाया तो बीजेपी और ओवैसी दोनों ही काफी राहत महसूस करेंगे.
असल में बीजेपी पर जिस सांप्रदायिकता की राजनीति करने का इल्जाम उसके विरोधी लगाते हैं - ओवैसी उस आग में घी का काम करते हैं. ओवैसी बीजेपी के स्टैंड के प्रतिक्रिया पक्ष को हवा देते हैं - और हवा का असर ये होता है कि दूसरी तरफ ध्रुवीकरण आसानी से हो जाता है. बिहार चुनाव में खुद ओवैसी ने भी इस चीज का हद से ज्यादा फायदा उठाया है.
हालांकि, बिहार की जीती हुई पांच सीटें ओवैसी को उनकी ही बदौलत नहीं मिली हैं, लेकिन उसका सीधा फायदा बीजेपी को जरूर मिला है - क्योंकि ऐसा नहीं होता तो वे सीटें विरोधी खेमे में जातीं और बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बहुमत के बेहद करीब होता. ओवैसी ने जो पांच सीटें जीती हैं उनमें कम से कम दो तो कांग्रेस की ही परंपरागत सीटें रही हैं जो कांग्रेस के उम्मीदवार कई दशक से जीतते आये थे, लेकिन ओवैसी ने हाथ साफ कर दिया.
कांग्रेस नेतृत्व पर अगर 'हुआ तो हुआ' फैक्टर हावी नहीं होता तो सीटें नहीं गंवानी पड़ती. कांग्रेस की जो सीटें ओवैसी के हाथ लगीं - वहां लोग बस ये चाहते थे कि कोई नया चेहरा सामने आये क्योंकि एक ही चेहरे को देखते देखते लोग ऊब चुके थे - ओवैसी के पास कांग्रेस जैसा 'ओल्ड इज गोल्ड' कुछ तो था नहीं, लिहाजा जो दिया वो लोगों के लिए बिलकुल तरोताजा रहा - और वे बगैर इधर उधर सोचे ईवीएम का बटन टीप दिये.
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बिहार की कामयाबी के बाद जोश से भरपूर असदुद्दीन ओवैसी की तरफ से ममता बनर्जी को चुनावी गठबंधन का प्रस्ताव दिया गया था ताकि बीजेपी को शिकस्त देने की संभावनाओं को पुख्ता और दूरूस्त किया जा सके. ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने इसे पूरी तरह खारिज कर दिया. वैसे भी तृणमूल कांग्रेस के नेता ओवैसी पर बीजेपी की मदद से पश्चिम बंगाल में पांव जमाने की कोशिश के आरोप लगा चुके हैं.
हैदराबाद चुनाव में हिस्सा लेकर और ओवैसी के खिलाफ जीतकर दिखाने के बाद बीजेपी ये उम्मीद जरूर कर रही होगी कि लोग ओवैसी और बीजेपी को लेकर जो धारणा बनाये हुए हैं, उसमें कुछ तो बदलाव आएगा ही. बतौर सफाई बीजेपी ने कहा भी है कि बंगाल में सत्ता हासिल करने के लिए उसे ओवैसी की पार्टी या ऐसी किसी और की कोई जरूरत नहीं है.
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