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Updated: 23 अप्रिल, 2017 05:49 PM
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तमिलनाडु की राजनीति में बीजेपी की दिलचस्पी तो अरसे से रही है, लेकिन हाल फिलहाल बढ़ी हुई दिख रही है. असल में, बीजेपी जिन राज्यों में पांव जमाने और पसारने की तैयारी कर रही है उसमें पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु सबसे अहम हैं.

AIADMK के दोनों गुटों के विलय और सीनियर नेता ओ पनीरसेल्वम के एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने की खबरें आ रही हैं. हाशिये पर पहुंच चुके पनीरसेल्वम क्या खुद के बूते अपना खोया हुआ सम्मान और पद हासिल करने जा रहे हैं, या फिर उनके पीछे कोई मजबूत सपोर्ट खड़ा है?

पनीरसेल्वम के पीछे कौन

तमिलनाडु में शशिकला के भरोसेमंद AIADMK के पलानीसामी गुट और पनीरसेल्वम कैंप झगड़े को भूल कर साथ आने को तैयार हो गये हैं. दोनों पक्षों में समझौते के लिए AIADMK के राज्य सभा सांसद आर वेतिलिंगम की अगुवाई में एक पैनल भी बना दिया गया है.

अब तक जो तस्वीर उभर कर आयी है उसके अनुसार पनीरसेल्वम को फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल सकती है - और मौजूदा सीएम पलानीसामी AIADMK के महासचिव बन सकते हैं.

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सहज सवाल है कि आखिर पनीरसेल्वम अचानक इतने मजबूत और पलानीसामी मजबूर कैसे हो गये? क्या पनीरसेल्वम और उनके समर्थकों में इतना दम बचा था कि वो पलानीसामी पर दबाव डालकर अपनी बात मनवाने में सक्षम हो पाये?

खुद शशिकला और उनके समर्थकों का कहना रहा कि पनीरसेल्वम विपक्षी पार्टी डीएमके के समर्थन और बहकावे में हंगामा खड़ा कर रहे हैं. लेकिन भला डीएमके अपने पैर में कुल्हाड़ी मार कर दोनों गुटों को मिलाने की कोशिश क्यों करेगा? फायदा तो उसका तब है जब AIADMK टूट कर बिखर जाये. जाहिर है ऐसा वही कर सकता है जिसका इन बातों से सीधा या कोई परोक्ष फायदा जुड़ा हो. डीएमके के बाद वहां एक पक्ष कांग्रेस भी हो सकती थी, लेकिन कांग्रेस खुद खड़े होने की स्थिति में तो है नहीं, फिर वो पनीरसेल्वम का सपोर्ट कहां से कर पाएगी.

ऐसे में ले देकर बीजेपी ही बचती है जिस पर संभावनाओं की सूई आकर अटकती है. दरअसल, पनीरसेल्वम को कुर्सी पर बिठाने से बीजेपी को ज्यादा फायदा दिखता है.

पनीरसेल्वम ही क्यों

बीते दिनों की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और और जयललिता के संबंध तब से अच्छे रहे जब मोदी गुजरात के सीएम हुआ करते रहे. मोदी के पीएम बनने के बाद भी दोनों के रिश्ते काफी मधुर बने रहे.

अब पनीरसेल्वम को बीजेपी द्वारा तरजीह देने के पीछे भी यही माना जा रहा है क्योंकि उन्हीं पर जयललिता को सबसे ज्यादा भरोसा रहा. जब भी जयललिता को कुर्सी छोड़नी पड़ी पनीरसेल्वम ही सबसे निष्ठावान नजर आए. जयललिता के निधन के बाद भी पनीरसेल्वम पर लोगों का भरोसा बना रहा और नौकरशाही भी उन्हें पसंद करने लगी थी लेकिन तभी शशिकला ने उन्हें निकाल बाहर किया.

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विधानसभा चुनाव में अभी लंबा वक्त है और उससे पहले 2019 में लोक सभा चुनाव होने हैं. बीजेपी को तमिलनाडु में पैठ बनाने के लिए एक ऐसे साथी की जरूरत है जो सूबे में तो अच्छी पकड़ रखता हो लेकिन बीजेपी की मदद के बगैर उसका एक कदम भी आगे बढ़ना दूभर हो.

मौजूदा हालात में पनीरसेल्वम ही ऐसे नेता हैं जो बीजेपी की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतर रहे हैं. कहा ये भी जा सकता है कि बीजेपी और पनीरसेल्वम दोनों एक दूसरे के पूरक भी साबित हो रहे हैं.

अब एक सवाल ये बचता है कि बात यहां तक पहुंची कैसे कि AIADMK के दोनों गुट साथ आने को राजी हुए - और उससे पहले पलानीसामी और उनके साथी शशिकला के भांजे टीटीवी दिनाकरन को बेदखल करने को भी राजी हो गये?

ऐसे बनी बात...

माना जा रहा है कि दोनों गुटों में संवाद स्थापित कराने सबसे बड़ी भूमिका एम थम्बीदुरई की रही. थम्बीदुरई फिलहाल लोक सभा के डिप्टी स्पीकर हैं - और केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी और AIADMK के बीच भी संवाद सेतु की भूमिका निभा रहे हैं.

एक और महत्वपूर्ण बात ये रही कि AIADMK विधायक किसी भी सूरत में दोबारा चुनाव मैदान में जाने के पक्ष में नहीं हैं. इसी बीच उन्हें मैसेज देने की कोशिश की गयी कि अगर AIADMK में सब ठीक ठाक नहीं हुआ तो राष्ट्रपति शासन की तलवार भी लटक सकती है. राष्ट्रपति शासन का मतलब कुछ दिन बाद नये समीकरणों के साथ नयी सरकार या फिर दोबारा चुनाव.

इस बीच एक और घटना हुई. आरके नगर विधानसभा उपचुनाव रद्द तो हुआ ही, टीटीवी दिनाकरन नये आरोप के घेरे में आ गये. ताजा इल्जाम है कि दिनाकरन ने AIADMK के चुनाव चिह्न को हासिल करने के लिए चुनाव आयोग के एक अधिकारी को रिश्वत देने की कोशिश की. इस सिलसिले में दिल्ली पुलिस उनसे लंबी पूछताछ भी कर चुकी है. इसकी वजह से दिनाकरन की पोजीशन कमजोर हो गयी और पलानीसामी गुट उन पर हावी हो पाया.

तमिलनाडु में अगला विधानसभा चुनाव और 2019 से भी पहले मोदी सरकार के लिए राष्ट्रपति चुनाव अति महत्वपूर्ण है. ये सच है कि एनडीए का पलड़ा भारी है, फिर भी उसे किसी और पार्टी के सहयोग की भी जरूरत निश्चित रूप से होगी. खासकर तब जबकि शिवसेना का अपना अलग खेमा चुनने का ट्रैक रिकॉर्ड रहा हो बीजेपी के उससे संबंध भी अच्छे न हों. अगर राष्ट्रपति चुनाव सिर पर नहीं होता तो चप्पलबाज सांसद रविंद्र गायकवाड़ भी इतने सस्ते में शायद छूट पाते.

अब अगर AIADMK में सब कुछ पटरी पर लौट आता है तो राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सत्ताधारी दल की चिंता पूरी तरह खत्म हो जाएगी - और अपने उज्ज्वल भविष्य को लेकर बीजेपी को इतराने का थोड़ा और मौका मिल सकता है. इधर बीजेपी खुश और उधर पलनीसामी और पनीरसेल्वम भी खुश. वैसे राजनीति में इतनी ज्यादा खुशी बहुत टिकाऊ भी नहीं होती.

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