यूपी में कमल खिलेगा, और ये रहे कारण...
उत्तर प्रदेश में भाजपा की संभावित जीत की भविष्यवाणी के साथ वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई एक जोखिम ले रहे हैं. क्योंकि यूपी के मामले में वे एक बार गलत साबित हो चुके हैं.
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उत्तर प्रदेश चुनाव के परिणाम की भविष्यवाणी करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है. 1993 में जब पहली बार मेरे संपादक ने मुझे उत्तर प्रदेश के चुनाव को कवर के लिए कहा तो मैं बहुत उत्साहित था. संपादक ने मुझसे चुनाव परिणामों पर राय मांगी तो मैंने बड़े जोश में तुरंत दावा किया कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की पृष्ठभूमि के खिलाफ राज्य भर में राम लहर चल रही है. लेकिन चुनाव परिणामों ने मेरी भविष्यवाणी को औंधे मुंह जमीन पर ला पटका. मैं बुरी तरह गलत साबित हो गया था. समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी गठबंधन का जाति गणित रामलला की भावनात्मक अपील पर भारी पड़ गया था.
दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है. लेकिन चौबीस साल बाद, उत्तर प्रदेश में भाजपा की संभावित जीत की भविष्यवाणी के साथ मैं एक बार फिर से अपनी गर्दन को ओखली में डाल रहा हूँ. 403 निर्वाचन क्षेत्रों में गलाकाट प्रतियोगिता के बीच इस बार यूपी का ये 'लहर-विहीन' चुनाव दिख रहा है. लेकिन फिर भी इसके परिणाम की भविष्यवाणी करना एक बड़ा कॉल हो सकता है. हालांकि चुनावों के हिसाब से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में कमल खिलने की ओर अग्रसर है और इसके पीछे पर्याप्त कारण भी हैं.
कमल के खिलने के हैं आसारसबसे पहले तो भाजपा के सीटों की संख्या ही उसके नंबर एक होने के दावे की पुष्टि करते हैं. 2014 के चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को 42% वोट और 80 में से 73 लोकसभा सीटों पर जबर्दस्त जीत मिली थी. हालांकि वो एक असामान्य 'लहर' वाला चुनाव था. लेकिन अगर मान लें कि 3 साल में बीजेपी की लोकप्रियता में 10 प्रतिशत की गिरावट आई है फिर भी यह राज्य में बीजेपी को नेतृत्व की स्थिति देने के लिए पर्याप्त हो सकता है. 2012 में 29% के साथ उत्तर प्रदेश सपा सत्ता में आई थी जबकि 2007 में बसपा 30% वोट के साथ बहुमत मिला था.
कुछ विश्लेषकों ने उत्तर प्रदेश चुनावों की तुलना 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनावों के साथ करते हुए दावा किया है कि सपा-कांग्रेस के गठबंधन ने राज्य में चुनावी नंबरों का खेल बदल दिया है. लेकिन मेरे हिसाब से ये एक गलत तुलना है. बिहार चुनावों में भाजपा के खिलाफ एक 'महा-गठबंधन' था. इसका अर्थ ये हुआ कि वहां सिर्फ दो लोगों के पक्षों के बीच ही लड़ाई थी. साथ ही 34% वोटों के साथ भाजपा को दूसरे नंबर पर धकेल दिया था. वहीं यूपी में त्रिकोणीय लड़ाई है. अगर यूपी की दो प्रमुख खिलाड़ियों मायावती और अखिलेश यादव ने बिहार चुनावों में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की तरह एक साथ चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया होता तो भाजपा के लिए मुश्किल जरुर पैदा हो सकती थी. वहीं इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अभी भी एक कमजोर कड़ी या गठबंधन है.
दूसरा, यह प्रतीत होता है कि नरेंद्र मोदी ने इस को चुनाव में दिल्ली-लखनऊ के बीच की दूरी को सफलतापूर्वक दूर किया है. उनके विरोधी इस चुनाव को 'बाहरी' बनाम 'उत्तर प्रदेश के लड़के' का लेबल दे रहे हैं. लेकिन सच्चाई ये है कि मोदी ने गंगा के मैदानी भाग में भी लोगों के मन में अपने लिए जगह बना ली है. वाराणसी के पास जयापुर गांव को मोदी जी ने गोद लिया है. इस गांव में सड़कें धुल गई हैं, सौर पैनल की बैटरी चोरी हो गई है, शौचालयों में पानी की आपूर्ति भी नहीं है लेकिन फिर भी गांव के किसी भी इंसान से यहां तक की दलित बस्तियों के लोगों से भी अगर बात करें तो सभी एक स्वर में कहना है कि वो सिर्फ 'मोदी जी' को वोट करेंगे. वाराणसी के पान भंडार में व्यापारी ये तो स्वीकार करते हैं कि नोटबंदी की वजह से उनके धंधे को बहुत नुकसान हुआ है लेकिन अभी भी वो 'हर हर मोदी' का ही जाप करते हैं. यही नहीं गंगा तट के अस्सी घाट पर एक महंत का कहना है कि नमामी गंगे प्रोजेक्ट आंखें खोलने वाला है लेकिन वह अभी भी प्रधानमंत्री के लिए मतदान करेंगे.
मोदी का जादू अभी भी खत्म नहीं हुआजाहिर है, अपने अधूरे वादों और कमजोर स्थानीय भाजपा नेतृत्व के बावजूद भी प्रधानमंत्री मोदी पर अभी भी मतदाताओं का विश्वास और सद्भावना बरकरार है. यहां भी बिहार से तुलना करने का कोई मतलब नहीं बनता. बिहार में जहां नीतीश कुमार ने सड़क, बिजली, कानून-व्यवस्था और महिला सशक्तिकरण जैसे मुख्य मुद्दों को संबोधित किया था वहीं उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का 'काम बोलता है' का नारा सिर्फ कुछ हिस्सों के लिए सही है. लखनऊ में गोमती नदी के किनारे 'यूपी शाइनिंग' के नारों का झांसा तो चल सकता है लेकिन गोरखपुर के गांवों के अंधेरे को नजरअंदाज नहीं कर सकते. अपराध के लिए बनाई गई आपातकालीन हेल्पलाइन नंबर एक प्रशंसनीय पहल तो है लेकिन फिर भी समाजवादी पार्टी की 'दबंग' वाली छवि से अभी भी पार्टी को छुटकारा नहीं मिला है. अखिलेश युवाओं के बीच अपनी पकड़ के कारण यूपी का भविष्य हो सकते हैं लेकिन वर्तमान नहीं हैं. "हमने माया और यादवों दोनों को आजमा लिया है, एक बार मोदी जी को भी मौका देते हैं' की बातें यहां साफ सुनी जा सकती हैं.
एक मायने में कहें तो उत्तर प्रदेश में मोदी अंधेरे में उजाले की एक किरण के रुप में देखे जा रहे हैं. 1990 के दशक में राम जन्म भूमि अभियान ने खुलकर हिंदूओं की पहचान को मजबूत करने का प्रयास किया. अब विकास के नाम पर जाति और समुदाय को जोड़ने के लिए एक और कुटिल रणनीति बनाई गई है. इसके लिए विकास के जादुई शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है. रमजान और दीवाली के दौरान बिजली के रहने और न रहने से लेकर लैपटॉप के वितरण में भेदभाव का झूठा दावा पहले से ही बंटे हुए समाज को और बांटने की एक घिनौनी चाल है.
अखिलेश-राहुल के लिए यादवों और अल्पसंख्यक वर्गों के समर्थन ने गठबंधन के लिए सिर्फ ध्रुवीकरण मे तेजी ही लाई है. नतीजतन, संख्या में हिंदुओं से बड़े सबसे पिछड़ी जातियों और यहां तक की गैर जाटव दलित आकांक्षाओं को मात देने के लिए ऊंची जाति के हितों के गठबंधन का आह्वान किया जा रहा है और एक नया हिंदुत्व गठबंधन पुख्ता किया जा रहा है. हिंदुत्व का प्रतीक और अपने मुस्लिम विरोधी छवि के कारण मोदी जी के व्यक्तित्व का ये एक घातक संयोजन है. कम से कम इसबार तो यूपी के मतदाता इस नशे में धुत्त हैं.
उत्तर प्रदेश के चुनाव को कवर करते हुए सबसे मजेदार नेताओं के वन-लाइनर सुनना रहा. जौनपुर के एक दुकानदार से पीएम के 'श्मशान-कब्रिस्तान' वाले भाषण के बारे में पूछा तो तुरंत ही जवाब मिला- 'सर चुनाव है. पहले नेता हमें जीने नहीं देते थे, अब हमें मरने नहीं देंगे!'
(राजदीप सरदेसाई की वेबसाइट www.rajdeepsardesai.net से साभार)
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