जब हत्यारों का केस जिन्ना लड़ते हों तो नुपुर शर्मा सुरक्षित बिल्कुल नहीं हैं!
नुपुर शर्मा जैसा एक मामला देश में पहले भी हुआ था. इसमें एक मुस्लिम युवा ने हत्या तक की थी, और उसे बचाने मोहम्मद अली जिन्ना मैदान में आए थे. भारत जैसे तब था, वैसे ही अब है.
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औरंगजेब की प्रशंसा और पृथ्वीराज चौहान को गाली देने के बहाने 'महान और समृद्ध' भारत खोजने वालों की आखिरकार जीत हो गई. कानपुर में नमाज के बाद हुए 'शांति प्रदर्शन' की बड़ी जीत हुई है. कपिल सिब्बल को राहुल गांधी और अखिलेश यादव की आपसी समझ से जो राज्यसभा टिकट मिला, आजम खान जी ने आखिरकार उसका पेबैक कर दिया. शाहबाज शरीफ की परेशानी को दूर करने निकले "भारतीय मौलानाओं" ने बर्बाद होते पाकिस्तान से लोगों का ध्यान कुछ देर ही सही- भटकाने में कामयाबी पाई है. कश्मीर में हत्याओं के बाद पुरानी खबरों की जगह लेने एक नई खबर आ चुकी है.
अब सभी पार्टियां एक बार गंगा-जमुनी तहजीब की नदियां बहाने की कोशिश में लग सकती हैं. माफियाओं का सिंडिकेट सक्रिय हो चुका है. ठीक ही है. लोग कुछ मामलों में फ्रांस जैसे देश के नागरिक होने का फील लेने लगे थे. अब उन्हें सपने से जाग जाना चाहिए- पगले अभी भी तुम सौ आना खरा भारतीय हो. वही भारत जो हमेशा से थे. लजाए हुए. डरे हुए और शर्माए हुए. मिमियाता हुआ भारत. खैर, नुपुर शर्मा ने वाकई बिना मतलब का बयान दिया था. उन्हें भी फ्रांस वाला फील आ गया होगा. लेकिन उन्होंने माफी मांगी है, बावजूद सब उनकी चिंता करें.
सरकार को चाहिए कि उन्हें और उनके परिजनों को पर्याप्त सुरक्षा दे. यहां कुछ भी हो सकता है. सरकार हो सकता है कि सुरक्षा देने से आनाकानी करे. राहुल गांधी और अखिलेश यादव को चाहिए कि नुपुर शर्मा की सुरक्षा के लिए भी सरकार पर दबाव बनाएं. सरकार ना मानें तो राहुल गांधी को एक बार फिर विदेश यात्राएं करनी चाहिए. या फिर न्यूयॉर्क टाइम्स में कोई बड़ा सा लेख ही लिखकर नुपुर के जीने के अधिकार की तरफ दुनिया के तमाम मानवाधिकार संगठनों का ध्यान खींचे.
नुपुर शर्मा को विवादित बयान की वजह से बीजेपी ने सस्पेंड कर दिया है.
समूचे विपक्ष को चाहिए कि वह सरकार पर दबाव डालकर लगे हाथ एक ईश निंदा क़ानून भी पास करवा ही ले. कम से कम इस तरह की चीजें आगे ना हों और दूसरे धर्म-पंथ के लोग भी रोजाना अपने ईश्वर के सार्वजनिक चीरहरण और अपमान सहने से बच सकें. उनके लिए भला अरब का कौन सा मुल्क आवाज उठाएगा और कैम्पेन करेगा? उनके पास इतना बड़ा ब्रदरहुड नहीं है. ईसाइयों का तो फिर भी ठीक है. दुनिया में कई ताकतवर देश हैं उनके. लेकिन हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख और पारसी कहां जाएंगे? मदनी साब ने पहले ही कह दिया है- बर्दाश्त नहीं कर सकते तो भाग जाओ.
नुपुर के लिए डर इसलिए लग रहा है कि जब करीब-करीब 100 साल पहले अंग्रेजों के शक्तिशाली राज में भी नुपुर शर्मा जैसी हिमाकत के लिए किसी की जान ली जा सकती है तो मान लेना चाहिए कि आज के 'मध्यकालीन युग' में वो कतई सुरक्षित नहीं हैं. एक सेकेंड के लिए भी सुरक्षित नहीं हैं. आजादी तो धोखे जैसी है. भारत आजाद कहां हुआ है? जैसे पहले था वैसे ही अब है. आजाद हुआ होता तो एक ही मामले में दो तरह के स्टैंड देखने को नहीं मिलते. सौ साल आगे होते. आज वहीं खड़े हैं जहां सौ साल पहले थे.
भारत का केस याद रखिए और अपने-अपने नेताओं और बुद्धिजीवियों से सवाल करिए?
1924 में मौजूदा लाहौर जो अविभाजित भारत का हिस्सा था वहां एक बुकलेट छपी थी उर्दू में- रंगीला रसूल. बुकलेट एक नबी और उनकी पत्नी के संबंधों पर थी. यह बुकलेट जब छापाखाने से बाहर निकली, समूचे देश में बवाल मच गया. हालांकि वह दौर तुर्की में खलीफा को बचाने के लिए चले आंदोलन खिलाफत का था और गांधी जी उसके जरिए हिंदू मुस्लिम सौहार्द्र कायम कर अंग्रेजों पर दबाव बनाने का सपना देख रहे थे.
लेकिन बुकलेट की वजह से देश के कई हिस्सों में भाईचारा खराब हो गया. तत्कालीन भारत के मुस्लिमों का भाईचारा उनके भी खिलाफ हो गया जिन्होंने ना तो यह किताब लिखी थी और ना ही पढ़ी हो शायद. आज के पाकिस्तान के तमाम इलाकों में तो हालात विस्फोटक हो गए थे. विरोध इस तरह हुआ कि जैसे यह गुनाह-ए-अजीम था. था ही भाई. राजपाल को पंजाब सरकार ने 153A के तहत हेट स्पीच का आरोपी बना दिया. दो साल चला मुक़दमा.
साल 1927 पर मुकदमे में फैसला आया. असल में बुकलेट व्यंग्यात्मक लिखी गई थी. जज ने आहत धार्मिक भावनाओं के लिए प्रकाशक को खूब सुनाया. मतलब ऐसा भी क्या? लेकिन यह भी कहा कि सालों पहले मर चुके किसी व्यक्ति के बारे में व्यंग्यात्मक लेखन को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता. क़ानून यही कहता है. कोर्ट ने प्रकाशक को बरी कर दिया. लेकिन आहत भावनाओं के लिए अंग्रेज और कोई भी क़ानून हमेशा से ठेंगे पर रहा है. हर क़ानून में कोई आए ना आए- उनके कौम का आना शर्तिया है.
जिन्ना ने केस लड़ा, गांधी जी ने हत्यारे की तुलना भगत सिंह से कर दी
फैसले के दो साल बाद यानी 6 अप्रैल 1929 को हुआ ये कि राजपाल की हत्या कर दी गई. इल्म दीन नाम के एक मुस्लिम युवा ने उनकी हत्या की थी. हत्या का यह मामला तब फास्टट्रैक कोर्ट में चला. उस समय भी भारत का मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग हत्यारे इल्म दीन को बचाने में लगा था. कोर्ट के मामले पर समूचे देश के मुसलमानों की नजर लगी थी. मोहम्मद अली जिन्ना को मैदान में उतरना पड़ा. जिन्ना से बड़ा वकील कौन?
हत्यारे इल्म दीन के मुकदमे को जिन्ना ने लड़ा. हालांकि जिन्ना उसे बचा नहीं पाए और गुनाह के लिए उसे सात महीने के अंदर ही फांसी दे दी गई. मजेदार यह भी है कि गांधी जी ने इल्म दीन के कृत्य और असेम्बली में बम फेकने वाले शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह के कृत्य को एक जैसा करार दे दिया. गांधी जी ने कहा कि दोनों अपराधों के मोटिव में एक जैसा दर्शन है. इल्म दीन सिर्फ 21 साल का था और बढ़ई का काम करता था. यह भी जान लीजिए कि राजपाल पर जो मुक़दमा चला था उसी की वजह से दंड संहिता में धार्मिक भावना भड़काने वाला सब सेक्शन जोड़ा गया. यह 295 A के रूप में आज भी मौजूद है. जिस बुकलेट के बारे में बताया गया, वह प्रतिबंधित है.
देश जहां कल था वहीं आज भी खड़ा है. दुर्भाग्य है लेकिन सच यही है कि कुछ बदला नहीं है. सिंडिकेटों की समांनातर सरकारें आज भी चलती हैं और उन्हें मालूम है चीजों को कैसे हैंडल किया जाता है? नुपुर शर्मा के मामले में जो हुआ वह सिंडिकेट की ताकत का जीता जागता नमूना है. देश को इसे देखना चाहिए और सबक लेना चाहिए.
नुपुर शर्मा की सुरक्षा देश का दायित्व है.
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