क्या नए संसद भवन का बहिष्कार कर विपक्ष अपनी एकता बताना चाहता है
लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर विपक्ष, बीजेपी के खिलाफ लामबंद होने का दावा कर रहा है. विपक्ष का दावा है कि वह बीजेपी को मात देने की तैयारी में जुटा है. लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि विपक्ष एकजुटता का एक मैसेज तक तो देश के आगे रखने सफल नहीं हो पाया है.
-
Total Shares
नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बॉयकॉट को लेकर 19 राजनीतिक दल एकजुट क्या हुए, कयास लगना शुरू हो गया कि इस मसले पर विपक्षी एकता दिख रही है. इस एकता को 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर देखा जाने लगा है. लेकिन यह एकता कितने समय तक टिक पाएगी कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कुछ विपक्षी दल इस मसले पर अब धीरे-धीरे केंद्र सरकार का साथ देते हुए नजर आ रहे हैं. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी की अगुवाई वाली वाईएसआर कांग्रेस पार्टी नए संसद भवन के उद्घाटन के बहिष्कार में विपक्षी दलों के साथ नहीं आएगी.
वहीं ओडिशा में नवीन पटनायक की अगुवाई वाली बीजू जनता दल ने भी नए संसद भवन के उद्घाटन में शामिल होने का ऐलान किया है. इसके अलावा भारत राष्ट्र समिति के सांसद गुरुवार को फैसला करेंगे. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि विपक्षी एकता कितनी मजबूत है. इससे पहले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बताया था कि नए संसद भवन में 'सेंगोल' (राजदंड) की स्थापना की जाएगी. शाह ने बताया कि संसद भवन के उद्घाटन के साथ ही एक ऐतिहासिक परपंरा भी फिर से जीवित होगी. उधर राजनीतिक जानकारों ने तंज कसा है कि सेंगोल की गदा से अमित शाह ने विपक्ष को तितर-बितर करने की कवायद शुरू कर ही है.
नए संसद भवन में तैयारियों का जायजा लेते पीएम मोदी
लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर विपक्ष, बीजेपी के खिलाफ लामबंद होने का दावा कर रहा है. विपक्ष का दावा है कि वह बीजेपी को मात देने की तैयारी में जुटा है. लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि विपक्ष एकजुटता का एक मैसेज तक तो देश के आगे रखने सफल नहीं हो पाया है. ऐसे में लोकसभा चुनावों में सीटों के बंटवारा किस आधार पर करेंगे. भले 19 विपक्षी दल समारोह के विरोध में हों, लेकिन कई दल सरकार के साथ खड़े नजर आ रहे हैं.
सूत्रों के मुताबिक, के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) नए संसद भवन आयोजन से दूर रहने के अपने फैसले की घोषणा करते हुए एक अलग बयान जारी करेगी. पिछले कुछ महीनों में विभिन्न मुद्दों पर मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने के बावजूद, बीआरएस का संयुक्त बयान का हिस्सा नहीं बनने का फैसला विपक्षी खेमे की खामियों को दर्शाता है.
इस साल दिसंबर में होने वाले तेलंगाना विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ बीआरएस, कांग्रेस, बीजेपी त्रिकोणीय मुकाबले में एक दूसरे के खिलाफ खड़े होंगे. ऐसे में वह विपक्षी एकता से दूरी बनाने में ही भलाई समझ रहे हैं.कांग्रेस ने पिछले शनिवार को अपने नवगठित कर्नाटक सरकार के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और डिप्टी सीएम डी के शिवकुमार के शपथ ग्रहण समारोह में केसीआर को आमंत्रित नहीं किया था.
जबकि बीआरएस नेताओं ने लोकसभा से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी की अयोग्यता की आलोचना की थी और अडानी समूह के खिलाफ आरोपों की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की जांच की मांग को लेकर संसद में विपक्ष के विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए थे. दिलचस्प बात यह है कि बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) सुप्रीमो नीतीश कुमार, जिन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी के खिलाफ एक साझा मंच पर लाने के अपने प्रयासों के तहत हाल के सप्ताहों में विभिन्न क्षेत्रीय दलों के प्रमुखों से मुलाकात की है.
अब तक केसीआर से मिलने से भी परहेज किया है. विपक्षी सूत्रों ने हालांकि कहा कि केसीआर ने पिछले साल अगस्त में पटना में नीतीश से मुलाकात की थी और गैर-बीजेपी मोर्चे के प्रस्ताव के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की थी. एक तरफ कांग्रेस समेत कई पार्टियों ने उद्घाटन का बहिष्कार किया तो दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार को मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी , वाईएसआर कांग्रेस, एआईएडीएमके और अकाली दल का समर्थन प्राप्त हुआ.
यह तमाम दल उद्घाटन समारोह में शिरकत कर सकते हैं. मायावती ने पहले ही घोषणा कर दी है कि उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव के लिए किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेगी. उधर सुखबीर बादल की अगुवाई वाला अकाली दल 2021 में मोदी सरकार के तीन अब निरस्त कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के विरोध के दौरान एनडीए से बाहर हो गया था. सोमवार को अकाली दल ने भाजपा के साथ फिर से गठबंधन की संभावना की अटकलों को खारिज कर दिया, लेकिन अन्य विपक्षी दल उसकी चालों पर कड़ी नजर रख रहे हैं.
28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने मोर्चा खोला है. 19 राजनीतिक दलों ने कार्यक्रम का संयुक्त रूप से बहिष्कार कर दिया है. उन्होंने बिल्डिंग का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से करवाने पर बीजेपी को घेर लिया है. वह इसे राष्ट्रपति का अपमान बता रहे हैं. वहीं उन्होंने उद्घाटन की तारीख पर भी सवाल खड़े किए हैं. उनका कहना है कि इस दिन सावरकर की जयंती है.
दूसरा विपक्षी दलों का कहना है कि प्रधानमंत्री सदन का हिस्सा और शासन प्रमुख होने के नाते अक्सर विपक्ष के निशाने पर रहते हैं और उन्हें उस तरह की निर्विवाद हैसियत हासिल नहीं होती, जो संवैधानिक प्रमुख होने के नाते राष्ट्रपति को प्राप्त होती है. लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि इस सुझाव पर विपक्ष को सामान्य स्थिति में कितना जोर देना चाहिए था. क्या इसे इस सीमा तक खींचना जरूरी था कि उस आधार पर समारोह का ही बहिष्कार कर दिया जाए?
निश्चित रूप से विपक्ष का यह स्टैंड सहज-स्वाभाविक नहीं कहा जाएगा. यह इस बात का सबूत है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच मतभेदों की खाई बहुत ज्यादा चौड़ी हो चुकी है. दोनों के बीच विश्वास का संकट पैदा हो गया है. यही चिंता की सबसे बड़ी बात है. गौरतलब है कि विपक्षी दलों ने भी अपने संयुक्त बयान में इस बात का संकेत दिया है कि मामला सिर्फ इस एक मुद्दे का नहीं है. सरकार समय-समय पर ऐसे कई कदम उठाती रही है जिन्हें विपक्ष अपने ऊपर हमला या सदन की तौहीन के रूप में देखता रहा है.
चाहे बात राहुल गांधी की सांसदी छिनने की हो या तीन कृषि कानूनों को संसद से पारित कराने के ढंग की या फिर दिल्ली में नौकरशाही को हर हाल में अपने अधीन रखने के केंद्र के प्रयासों की, इन सब पर सरकार का अपना पक्ष है और उसके अपने तर्क हैं, लेकिन विपक्ष की भी अपनी शिकायतें हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार की ओर से विपक्ष तक पहुंच कर उसे अपनी बात समझाने या उसका पक्ष समझने की ऐसी कोई कोशिश भी नहीं दिख रही, जिससे विपक्ष को ऐसा लगे कि सरकार को उसकी भावनाओं की फिक्र है.
मौजूदा मामले को ही लें तो अगर सरकार विपक्ष को साथ लेते हुए आगे बढ़ती तो ये मुद्दे समय पर उसके संज्ञान में आ जाते और तब बहुत संभव था कि बातचीत से ऐसी कोई राह निकल जाती, जिससे कम से कम बहिष्कार की नौबत नहीं आती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अब इस पर सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है. अमित शाह कह रहे है कि आजादी के 75 साल बाद भी अधिकांश भारत को इस घटना के बारे में जानकारी नहीं है.
14 अगस्त, 1947 की रात को वह एक विशेष अवसर था, जब जवाहर लाल नेहरू ने तमिलनाडु के थिरुवदुथुराई आधीनम (मठ) से विशेष रूप से पधारे आधीनमों (पुरोहितों) से सेंगोल ग्रहण किया था. पंडित नेहरू के साथ सेंगोल का निहित होना ठीक वही क्षण था, जब अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के हाथों में सत्ता का हस्तांतरण किया गया था. हम जिसे स्वतंत्रता के रूप में मना रहे हैं, वह वास्तव में यही क्षण है.
इस एतिहासिक 'सेंगोल' के लिए संसद भवन ही सबसे अधिक उपयुक्त और पवित्र स्थान है. ये संसद आज भी है और सालों बाद जब हम में से कोई नहीं होगा, तो उस आने वाली पीढ़ी के भारतीयों को भी ये हमेशा गर्व करने का मौका देगा कि ये 'आजाद भारत में बना हुआ अमृतकाल का हमारा संसद भवन है'.
आपकी राय