Breaking: 15 दिन बाद होगी एक और फांसी !
यह हेडलाइन सिर्फ उस बहस की अर्जेंसी की खातिर है, जिसका विषय है कि फांसी की सजा दी जाए या नहीं...
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याकूब मेमन की फांसी से पहले की बात और थी. अब उन बातों का कोई मतलब नहीं है. लेकिन, 1993 मुंबई ब्लास्ट के बाकी आरोपियों के बारे में भी कोर्ट ने फैसला दे दिया है. ऐसे में अब सवाल ये है कि फांसी को लेकर जो बहस चल रही थी वो क्या सिर्फ याकूब की फांसी तक सीमित थी, या उससे आगे भी? याकूब की फांसी के साथ ही वो बातें पुरानी हो गई हैं, लेकिन फांसी को लेकर बहस खत्म नहीं होनी चाहिए.
फांसी का विरोध
"ऐसा कोई सबूत नहीं है कि मृत्युदंड प्रतिरोधक के तौर पर काम करता है. यह सब सरकार की अयोग्यता है. मृत्युदंड से कहीं भी आतंकी हमले को नहीं रोका जा सका है."
93 के मुंबई ब्लास्ट केस में याकूब को फांसी देने के कुछ ही देर बाद कांग्रेस नेता शशि थरूर ने विरोध प्रकट किया.
कांग्रेस के ही दिग्विजय सिंह ने सिस्टम की साख दांव पर होने की बात की तो उस पर भी विवाद हुआ. दिग्विजय ने कहा, "मैं उम्मीद करता हूं कि सरकार, न्यायपालिका आतंकवाद के सभी मामलों में ऐसी ही तत्परता और प्रतिबद्धता दिखाएगी चाहे आरोपी कोई भी जाति और धर्म का क्यों न हो. ऐसे आरोपियों पर जिस तरह मामला चल रहा है उसे लेकर मन में संदेह है. आइए देखते हैं क्या होता है. सरकार और न्यायपालिका की साख दांव पर है."
जाने माने वकील प्रशांत भूषण का सवाल है कि खून का प्यासा होने की आखिर जरूरत क्या है? प्रशांत कहते हैं, "फांसी की सजा एक तरह से राज्य की ओर से दंडात्मक हिंसा है और यह हिंसक भीड़ की मानसिकता को दर्शाता है. हमें इतना रक्तपिपासु होने की क्या जरूरत थी?"
मानवाधिकारों के लिए काम करनेवाली संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने भी थरूर की बात को एनडोर्स किया. संस्था की ओर से बयान आया कि ऐसा कोई तथ्य या सबूत नहीं है, जिससे यह साबित हो कि फांसी जैसी 'अमानवीय और क्रूर' सजा देने से अपराधों में कमी आती है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने एक बयान जारी कर कहा है कि 21 सदी में मृत्युदंड की कोई जगह नहीं बची है.
बेमतलब है ऐसी बयानबाजी
बयान देकर विवादों में रहने के लिए मशहूर बीजेपी विधायक उषा ठाकुर ने फिर बहती गंगा में हाथ धो लिया. इस बार उन्होंने फिल्म स्टार सलमान खान और नेता असदुद्दीन ओवैसी को भी फांसी देने की मांग कर डाली.
शिवसेना ने याकूब की फांसी को राजनीतिक रंग देने के लिए असदुद्दीन ओवैसी की आलोचना तो की लेकिन उनकी उस मांग का सपोर्ट किया कि राजीव गांधी और बेअंत सिंह के हत्यारों को भी फांसी दी जानी चाहिए.
जो राजनीतिक बयान दिए जा रहे हैं अगर उसके पीछे कोई इच्छाशक्ति भी है तो उसे भी दिखाई देना चाहिए.
गुस्सा नहीं इच्छाशक्ति जरूरी
इसे फांसी दो, उसको फांसी दे दो. इसे फांसी दी तो उसे भी फांसी पर लटका दो. इसे फांसी क्यों, उसे क्यों नहीं?
ऐसी बयानबाजी से काम नहीं चलनेवाला. अगर वाकई लोग गंभीर हैं तो आगे आना होगा. सिर्फ आगे ही नहीं आना होगा. एक क्लिअर स्टैंड भी लेना होगा. सिविल सोसाइटी के
जो लोग निर्भया के हमलावरों को फांसी देने की बात कर रहे थे, उन्हीं में से कई लोग अब फांसी का विरोध कर रहे हैं. उन्हें भी साफ करना होगा कि वो किस तरफ हैं.
क्या वे निर्भया के हमलावरों और मुंबई ब्लास्ट के दोषियों को फांसी की मांग कर रहे हैं या उसके खिलाफ हैं. या फिर निर्भया के हमलावरों के भी फांसी के खिलाफ हो गए हैं और सिर्फ मुंबई ब्लास्ट केस में फांसी चाहते हैं.
ये सेलेक्टिव अप्रोच नहीं चलेगा. इस पार या उस पार होना होगा. बात तभी बनेगी, नतीजा जो भी हो.
प्रशांत भूषण जब आधी रात को मुख्य न्यायाधीश के घर पहुंचे तो लोग उन पर बरस पड़े. फिर शशि थरूर ने फांसी के विरोध में ट्वीट किया तो लोग उन पर भी टूट पड़े.
याकूब के वकील आनंद ग्रोवर ने चीफ जस्टिस के पास आखिरी गुहार लगाई तो उससे पूछा गया, "कितने पैसे लिए."
ग्रोवर को इतना जलील किया गया कि उन्हें कहना पड़ा, "रहम कीजिए मेरा क्लाइंट मरनेवाला है."
अगर वाकई कोई फांसी के विरोध को लेकर गंभीर है तो उसे मजबूत इच्छाशक्ति के साथ आगे आना होगा. ऐसी इच्छाशक्ति जैसा प्रियदर्शिनी मट्टू केस में दिखा. ऐसी इच्छाशक्ति
जैसी जेसिका लाल हत्याकांड में दिखाई दी. ऐसी इच्छाशक्ति जैसी निर्भया को इंसाफ दिलाने को लेकर नजर आई.
धर्म की राजनीति करने वालों की बात अलग है. लेकिन मामला गंभीर तब हो जाता है जब आम अवाम को ऐसा लगने लगे कि किसी एक वर्ग को उसी आतंकवाद के नाम पर संदेह जताया जाए और दूसरे वर्ग को संदेह का लाभ दिया जाए.
वैसे न तो कोई सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठा रहा है, न राष्ट्रपति से किसी को कोई गिला शिकवा है. जहां तक चूक का सवाल है तो वो किसी से भी हो सकती है. सिस्टम से भी चूक संभव है क्योंकि उसके कर्ताधर्ता भी इंसान ही हैं. याकूब को फांसी देने से जो मिला उससे ज्यादा उसे बचाकर हासिल किया जा सकता था. याकूब के मामले में भी कहा जा सकता है कि सिस्टम ने एक बड़ा मौका यूं ही गंवा दिया.
डीएमके नेता कनिमोई इस मुद्दे पर एक प्राइवेट बिल संसद में ला चुकी हैं. उसका भाव यह है कि फांसी की सजा न दी जाए. हर मुद्दे में पॉलिटिक्स ढूंढने वाले ये कह सकते हैं कि कनिमोई का ये कदम राजीव गांधी के हत्यारों के लिए मददगार हो सकता है, जिन्हें फांसी की सजा दी चुकी है. और डीएमके उनके लिए दया की मांग करती रही है.
इस बिल का जो भी है, पर इस मुद्दे पर तुरंत एक गंभीर बहस जरूरी है. और वह कानून बनाने वाली संस्था संसद में ही होनी चाहिए. फिलहाल 450 से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें मौत की सजा मिली हुई है. इन्हीं में से किसी का अगला नंबर होगा.
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