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Updated: 12 जनवरी, 2019 12:54 PM
अरविंद मिश्रा
अरविंद मिश्रा
  @arvind.mishra.505523
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ये सच्चाई है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही दुश्मन. बस स्थायी होता है तो सत्ता का लालच. और यही उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहा है जहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी 23 वर्ष पुरानी दुश्मनी भुलाकर एक बार फिर से भाजपा को हराने के लिए गठबंधन किया. इससे पहले दोनों पार्टियों ने 1993 में भाजपा के खिलाफ चुनावपूर्व गठबंधन किया था और सरकार बनाई थी. तब सपा के नेता मुलायम सिंह और बसपा के नेता कांशीराम थे. उस समय छह-छह महीने के लिए मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला सामने आया था जिसमें पहली बार में मायावती मुख्यमंत्री बनीं थी लेकिन 1994 में जब मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने का नंबर आया, तब मायावती ने उनसे समर्थन वापस ले लिया था.

2014 के लोक सभा चुनाव में भाजपा और इसके सहयोगी दलों ने मिलकर प्रदेश के 80 में से 73 सीटों पर कब्ज़ा कर लिया था. हालत ये हुई थी कि जहां सपा अपनी खानदानी पांच सीटों पर ही जीत हासिल कर पायी थी वहीं बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया था. ठीक उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भी 403 में से सपा और बसपा को क्रमश: 47 और 19 सीटों पर ही सिमटना पड़ा था. उसके बाद से ही यहां की दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर मज़बूर हैं. अब लगभग 26 वर्षों के बाद दोनों पार्टियां फिर से दुश्मनी भुलाकर मोदी नेतृत्व वाली भाजपा को हराने के लिए प्रदेश में गठबंधन किया है. लेकिन इस बार सपा के नेता अखिलेश यादव और बसपा नेता मायावती हैं.

sp-bsp allianceसमाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी ने 23 वर्ष पुरानी दुश्मनी भुलाकर एक बार फिर गठबंधन किया है

सपा-बसपा गठबंधन 1993 में भाजपा की 'राम-लहर' को रोकने में कामयाब हो गया था लेकिन क्या 2019 में 'मोदी लहर' को यह गठबंधन रोक पायेगा? और अगर रोक भी पाया तो यह गठबंधन कितने दिनों तक टिक पायेगा क्योंकि बसपा का दूसरे दलों के साथ गठबंधन का इतिहास अच्छा नहीं रहा है.

वैसे तो दोनों की दोस्ती को मजबूती फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उप-चुनाव के परिणाम इनके पक्ष में आने के बाद आयी लेकिन आनेवाले 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश में भाजपा को मात देना इतना आसान भी नहीं होगा. सपा को जहां यादव और मुस्लिमों का समर्थन मिलने की उम्मीद है वहीं बसपा को दलित मतदाताओं में पैठ माना जाता है. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इनके वोटों को अपने पक्ष में किया था. भाजपा ने प्रदेश में मुस्लिमों के गढ़ माने जानेवाले सारी 13 लोकसभा सीटों पर कब्ज़ा कर लिया था. वहीं यादवों की 10 लोकसभा बाहुल्य सीटों में से 6 पर जीत हासिल की थी. वहीं राज्य में लोकसभा के अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सभी 17 सीटों पर भाजपा ने कब्ज़ा कर लिया था.

उत्तरप्रदेश के मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्र (कुल-13)

चुनावी क्षेत्र विजेता 2014
बिजनौर भाजपा
अमरोहा भाजपा
मुरादाबाद भाजपा
रामपुर भाजपा
मेरठ भाजपा
मुजफ्फरनगर भाजपा
कैराना भाजपा
सहारनपुर भाजपा
संभल भाजपा
नगीना भाजपा
बहराइच भाजपा
बरेली भाजपा
श्रावस्ती भाजपा

उत्तरप्रदेश के यादव बहुल चुनाव क्षेत्र (कुल-10)

चुनावी क्षेत्र विजेता 2014
मैनपुरी सपा
फिरोज़ाबाद भाजपा
एटा भाजपा
कन्नौज सपा
फर्रुखाबाद भाजपा
बदायूं सपा
फैजाबाद भाजपा
गाज़ीपुर भाजपा
जौनपुर भाजपा
आजमगढ़ सपा

अगर हम 1993 तुलना वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति से करें तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे दोनों को एक साथ आने के बाद भी भाजपा को ज़्यादा नुक्सान होता नहीं दिख रहा है. 1993 में मंडल आयोग ने ओबीसी मतदाताओं को एकजुट किया था इसलिए इस गठबंधन को सफलता मिली थी. लेकिन इस बार परिस्थिति बिलकुल ही अलग है. इस समय सपा और बसपा अर्श से फर्श पर आ चुके हैं और इनके दोनों नेता अखिलेश यादव और मायावती अपने सियासत के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं. और जब गठबंधन 1995 में टूटा था तब से यादव और दलितों के बीच एक गहरी खाई पैदा हो गई थी जो अभी तक बरकरार है ऐसे में दोनों दलों के वोट एक दूसरे को मिल जाए कम ही नज़र आता है. वैसे भी भाजपा उत्तर प्रदेश में 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ मिलाने में कामयाब रही थी. इतना ही नहीं, जब से भाजपा सत्ता में आयी है तब से पार्टी ने सरकार में इन दलित व ओबीसी जातियों को हिस्सेदार भी बनाया है. ऐसे में जब तक यह गठबंधन इन जातियों को अपने पक्ष में लाने लाने में कामयाब नहीं होती तब तक प्रदेश में भाजपा को मात देना आसान नहीं होगा.

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अरविंद मिश्रा अरविंद मिश्रा @arvind.mishra.505523

लेखक आज तक में सीनियर प्रोड्यूसर हैं.

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