कारोबारी होना ठीक है, मोदी को नेता भी बने रहना होगा
मोदी का भी स्लोगन है - सबका साथ, सबका विकास. ऐसा क्यों लगता है कि मोदी की कथनी और करनी में फर्क होने लगा है.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं गुजराती होने के नाते व्यापार उनके खून में है. अच्छी बात है. कहते तो ये भी हैं कि कारोबारी अपने बाप को भी नहीं बख्श पाता. लेकिन नेता तो ऐसा नहीं करता.
दरअसल, कारोबारी को सिर्फ निजी हितों का ध्यान रहता है, नेता सबका होता है, उसे सबका ध्यान रखना होता है. मोदी का भी स्लोगन है - सबका साथ, सबका विकास. ऐसा क्यों लगता है कि मोदी की कथनी और करनी में फर्क होने लगा है.
किसके प्रधानमंत्री
सूट-बूट की सरकार बोलते बोलते संसद में राहुल गांधी 'आपके प्रधानमंत्री' बोल जाते हैं. राहुल का आशय बीजेपी और उसके प्रधानमंत्री से होता है. जब ध्यान दिलाया जाता है तो वो करेक्ट भी करते हैं. सही बात है - मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं.
लोक सभा चुनाव में लोगों ने वोट तो मोदी को ही दिया था. मुरली मनोहर जोशी को बनारस से हटा कर कानपुर भेज दिया गया. जोशी की ही तरह लालकृष्ण आडवाणी की भी नहीं सुनी गई. आडवाणी मध्य प्रदेश से चुनाव लड़ना चाहते थे तो जोशी की पसंद इलाहाबाद या अल्मोड़ा होता. कानपुर में जोशी के खिलाफ मैदान में श्रीप्रकाश जायसवाल थे जो तीन बार से जीतते आए थे - और वहीं के रहने वाले थे. बलिया की सीट तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की ही रही - उनके बाद उनके बेटे नीरज शेखर को मिली. 2014 की मोदी लहर में वहां भी भरत सिंह काबिज हो गए.
मोदी लहर दिल्ली में नहीं चली. बिहार में नहीं चली. इसका मतलब ये तो नहीं कि जिन राज्यों में मोदी को वोट मिले अब वो उन्हीं के प्रधानमंत्री रह जाएंगे.
खबरें आ रही हैं कि चुनाव में शिकस्त के बावजूद नीतीश के शपथग्रहण में मोदी शिरकत कर सकते हैं. मोदी अगर वाकई ऐसा करते हैं तो ये उनकी धूमिल होती छवि को निखारने में मददगार ही साबित होगा. मोदी बिहार के लोगों के भी प्रधानमंत्री हैं - ऐसा तो होता नहीं कि अगर बिहार के लोग बीजेपी को वोट दे दिए होते तो मोदी मुख्यमंत्री भी बन जाते?
राजधर्म
कभी वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी. जब तब उसके प्रसंग आ ही जाते हैं. नये दौर में मोदी के बढ़े कद के आगे कोई उन्हें ऐसी सलाह देने वाला भी नहीं है. मार्गदर्शक मंडल तो वैसे ही जैसे पुलिसवालों को लाइनहाजिर कर दिया जाता है.
नये दौर में मोदी ने राष्ट्रपति की बात को गाइडलाइन बताया. दादरी पर वो कई दिनों तक चुप रहे. फिर समझाया - महामहिम की बात ही मूल मंत्र है. लोगों से अपील की कि वे किसी की बात न सुनें. "मोदी की भी नहीं."
लोग मोदी का रुख जानना चाहते थे. लोग मोदी से राजनयिक नहीं राजनीतिक जवाब चाहते थे. लोग जानना चाहते थे कि बीजेपी के नेता और केंद्रीय मंत्रियों ने जो कुछ कहा क्या प्रधानमंत्री उनसे इत्तेफाक रखते हैं?
वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके अरुण शौरी ने भी मोदी को मैसेज देने की कोशिश की. शौरी ने कहा, मोदी लालू के स्तर पर उतर आए हैं और नीतीश स्टेट्समैन नजर आ रहे हैं. शौरी के बयान के साथ वही हुआ जिसकी उम्मीद उन्हें भी रही होगी.
कोई न भी बताए तो मोदी को अपनी बातों से, अपने कदमों से, अपने फैसलों से लोगों को साफ करना होगा कि राजधर्म उन्हें बखूबी आता है.
आस-पड़ोस
मान लेते हैं मोदी की दुनिया भर में धूम है. विदेशों में मोदी के बड़े बड़े कार्यक्रम होते हैं. रॉक स्टार राजनेता जैसी उनकी छवि बनती है. लोग मोदी-मोदी के जय जयकारे करते हैं. निवेशक ये सब देख कर आकर्षित होते हैं. मेक इन इंडिया को इससे फायदा मिलता है.
मगर देश से बाहर वही दुनिया है. क्या आस-पड़ोस मायने नहीं रखता? बांग्लादेश के साथ रिश्ता ठीक-ठाक है. चीन के साथ फोटो-अवसर भी बुरा नहीं है. पाकिस्तान स्पेशल केस है. लेकिन नेपाल? श्रीलंका?
नेपाल में भूकंप आया तो सबसे पहले पहुंचने की बात हुई. भारतीय राहत दल ने जो काम किया उसकी खूब सराहना भी हुई, आखिरी दिनों को छोड़ दें तो. उसके बाद क्या हुआ? अब तो नेपाल चीख चीख कर कह रहा है कि भारत की घेरेबंदी भूकंप से भी बड़ी त्रासदी साबित हो रही है. ऐसा क्यों?
राज्य सभा
मोदी सरकार के केंद्र की सत्ता में अब तक 18 महीने हो चुके हैं. इस दौरान बीजेपी ने मोदी की अगुवाई में महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और बिहार में चुनाव लड़ा. तीन राज्यों में बीजेपी की सरकार है - और जम्मू-कश्मीर की सरकार में बीजेपी साझेदार है. दिल्ली का केस थोड़ा अलग था, बिहार का सब कुछ ताजा और सामने है.
बतौर प्रधानमंत्री मोदी के लिए ये अवाम का मैसेज हो सकता है. इससे मोदी सरकार की सेहत पर फिलहाल फर्क नहीं पड़ता. ऐसा भी नहीं है कि ऐसा सिर्फ मोदी के साथ हो रहा है.
1984 में राजीव गांधी ने शानदार जीत दर्ज की और 1987 में हरियाणा में हार का मुंह देखना पड़ा. प्रधानमंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी भी दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव नहीं जीत पाए. राजनीति के शिखर पर रहते इंदिरा गांधी भी आंध्र प्रदेश और कर्नाटक नहीं बचा पाईं.
मोदी सरकार के लिए राज्य सभा में नंबर सबसे ज्यादा मायने रखते हैं. अगले ही साल पांच राज्यों में चुनाव होने हैं - और उसके अगले साल यूपी, उत्तराखंड और पंजाब में. ऐसा तो नहीं कि सब खत्म हो गया, अभी काफी कुछ बाकी है.
मार्गदर्शन
मॉनसून सेशन में माना गया कि कांग्रेस ने अपने सीनियर नेताओं के अनुभव का पूरा इस्तेमाल किया. 44 सीटों पर सिमट जाने के बावजूद सरकार को कदम कदम पर अहसास करा दिया कि विपक्ष क्या होता है. बीजेपी की मुश्किल इसलिए बढ़ी क्योंकि उसने अपने वरिष्ठों को मार्गदर्शक मंडल से बाहर झांकने तक पर पाबंदी लगा दी.
वो लोक सभा चुनाव में जीत की ताकत थी. दिल्ली और बिहार में बीजेपी की हार के बाद वे सीनियर हरकत में नजर आ रहे हैं. चर्चाओं पर गौर करें तो बीजेपी में भी दो फांक की तैयारी चल रही है. अगर ऐसा न हो सका तो एक प्रेशर ग्रुप तो बन ही जाएगा. तारीख 25 दिसंबर मुकर्रर हुई है. उसी दिन वाजपेयी का बर्थडे होता है.
फिर तो लोग यही कहेंगे: 'अपनी अपनी किस्मत है जिसको जो सौगात मिले'
और... 'बहुत हुआ कारोबार, अब तो नेता बन जाइए हुजूर!'
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