CAA protest सिर्फ़ मुस्लिम ही नहीं, ‘विविधता में एकता’ से जुड़ा है
नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) के विरोध ने देश के परिदृश्य को बदल दिया है. एकजुटता की एक दुर्लभ मिसाल में नागरिकों के विविध हिस्से, सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, एक साथ आकर खड़े हो गए हैं.
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वर्ष 2014 तक दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों ने 1984 और 2002 को लेकर कामयाबी से दो पालों में बांटने वाली लकीर बनाए रखी. मुस्लिमों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को 1984 में सिखों के संहार के तत्काल बाद हुए आम चुनाव में समर्थन दिया. दशकों तक देश के अल्पसंख्यकों में सबसे बड़े वर्ग के लिए कांग्रेस उन जगहों पर पहली पसंद बनी रही जहां उसका बीजेपी के साथ सीधा मुकाबला था.
पंजाब में बादलों के नेतृत्व वाले शिरोमणि अकाली दल ने गुजरात में 2002 में मुस्लिमों के संहार को लेकर कोई सैद्धांतिक रुख नहीं लिया और बीजेपी से अपना गठजोड़ जारी रखा. ऐसे में उनके लिए इस असलियत ने कोई मायने नहीं रखे कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्मादी भीड़ की ओर से जो क्रूरता बरती गई थी, वैसा ही कुछ गुजरात में 2002 में दोहराया गया था.
हालांकि 2007 से पंजाब में दो लगातार चुनावों में दोनों पार्टनर (बीजेपी और बादल) सिखों के समर्थन से सत्ता में आए. कांग्रेस की तरफ झुकाव रखने वाले उदारवादियों में से अधिकतर पंजाब में गड़बड़ी वाले दिनों में निर्दोष नागरिकों पर सरकारी पक्ष की ओर से किए गए अत्याचारों को लेकर अब भी विमर्शों के दौरान अपनी उदारता के कवच को एक तरफ सरकाए रखते हैं. उनके लिए तत्कालीन सरकार की सख्त नीति जायज़ थी. उनके लिए इंदिरा गांधी और उनके बेटे राजीव, दोनों ही ‘स्टेट्समैन’ थे.
नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) के विरोध ने देश के परिदृश्य को बदल दिया है
दूसरी तरफ, कश्मीर और देश के अन्य गड़बड़ी वाले हिस्सों में ज्यादतियों के गंभीर आरोपों पर कांग्रेस की तरफ झुकाव वाले अधिकतर उदारवादियों का कलेजा मुंह को आता रहता है. वहीं दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी जो कांग्रेस को 1984 की सिख विरोधी हिंसा के लिए हमेशा कटघरे में खड़ा करते रहे, उन्होंने अल्पसंख्यकों (धार्मिक या जातीय) के खिलाफ सरकारी पक्ष की ओर से बरते जाने वाले क्रूर हथकंडों को पुरजोर समर्थन देना जारी रखा. इसके पीछे वो गड़बड़ी फैलाने वाले तत्वों से लड़ाई के बहाने को ढाल बनाते रहे. बीजेपी के हार्डकोर विश्वासपात्र होने के बावजूद वो इंदिरा गांधी के ऑपरेशन ब्लू स्टार को भी ज़रूरी कदम बताते हुए जायज़ ठहराते रहे.
देश ने ये भी देखा कि बिना किसी कारण कांग्रेस ‘सॉफ्ट हिन्दुत्व’ का नाम लेकर पेंडुलम की तरह इधर-उधर डोलती रही. आखिर नेहरू-गांधी लीडरशिप ने ही हिन्दुत्व की शक्तिवर्धक डोज़ देने का रास्ता अपनाया था, बेशक इसके लिए पंजाब और सिखों को बलि का बकरा बनाया गया.
बीजेपी ने भी इसी फॉर्मूले को मुस्लिमों के खिलाफ अपनाया. हिन्दुत्व देश के दो मुख्य राजनीतिक संगठनों और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों के डीएनए में है. हां राजनीतिक क्षेत्रों में इनकी तैनाती वहां की परिस्थितियों के हिसाब से की जाती है और इसका स्तर अलग-अलग होता है.
लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) के विरोध ने देश के परिदृश्य को बदल दिया है. एकजुटता की एक दुर्लभ मिसाल में नागरिकों के विविध हिस्से, सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, एक साथ आकर खड़े हो गए हैं. वो CAA को हिन्दुत्व होमलैंड की तरफ लंबी छलांग मानते हुए इसके खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर सामने आ रहे हैं. अच्छी बात ये ही कि देश भर में देखे जा रहे विरोध प्रदर्शनों की कमान राजनीतिक हाथों में नहीं है. देश भर में हो रहे इन प्रदर्शनों में राजनेता अगली पंक्ति में कहीं नज़र नहीं आते.
CAA protest में सिर्फ मुस्लिम नहीं बल्कि सभी एकजुट हैं
सोशल मीडिया ट्रोल्स और बहुसंख्यकवाद के समर्थक, चाहे वो किसी भी राजनीतिक पाले की तरफ हों, इस लंबे खिंच रहे नागरिक प्रदर्शनों को ‘हिंसक, सिर्फ मुस्लिमों का विरोध’ क़रार देकर बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं और अपनी हताशा का सबूत दे रहे हैं. लेकिन देश भर में विरोध प्रदर्शन का दायरा अलग ही कहानी बयां कर रहा है. इस दायरे में अलग-अलग धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीयता का प्रतिनिधित्व शामिल है.
मेरी जहां तक यादाश्त जाती है, ये पहली बार है कि भारतीय विविधता उस राजनीतिक अभिजात्यता के खिलाफ ज़मीनी स्तर पर एकजुट हुई है, जिस राजनीतिक अभिजात्यता ने लोकतंत्र को निरंतर सम्प्रदायवाद में धकेल दिया.
कम से कम अभी के लिए CAA पर विरोध ने 1984 और 2002 का नाम लेकर दो पालों में बांटने वाली सियासत को तोड़ दिया है. और यही गणतंत्र के ऊपर मंडरा रहे काले बादलों में उम्मीद की किरण है.
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