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Updated: 24 फरवरी, 2015 03:50 PM
धीरेंद्र राय
धीरेंद्र राय
  @dhirendra.rai01
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अन्ना हजारे पिछले काफी समय से जनसमर्थन का अभाव झेल रहे हैं. खासकर अपनी रैलियों में. 2011 के रामलीला आंदोलन में लाखों लोग पहुंचे थे. अब वे पांच हजार लोगों के आने की बात करते हैं और हजार लोग भी नहीं पहुंचते हैं. भूमि‍ अधिग्रहण बिल के विरोध में अन्ना फिर दिल्ली में हैं. पिछली रात महाराष्ट्र भवन में रणनीति बनी कि किस तरह से अन्ना और केजरीवाल को एकसाथ मंच पर लाया जाए. ताकि इस जोड़ी का तीन साल पुराना रुतबा लौटाया जा सके. लेकिन अब ये संभव नहीं है-

1. अन्ना और केजरीवाल एक-दूसरे के विरोध में काफी कुछ कह चुके हैं:
इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सहयोगी अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल में एक बुनियादी विरोध है. 20 सितंबर 2012 को यह विरोध दिखा उस समय जब केजरीवाल ने अपने एक पोल के हवाले से कहा कि उनके 76 फीसदी समर्थक चाहते हैं कि वे चुनाव में उतरें. अन्ना ने इसका विरोध करते हुए कहा कि चुनाव लड़ने के लिए पैसों की जरूरत होती है और इसके लिए मूल्यों से समझौता करना पड़ता है. केजरीवाल अड़े रहे तो अन्ना यहां तक कह गए कि वे मेरे नाम और मेरे फोटो का इस्तेमाल करना बंद कर दें. जब अन्ना ने यूपीए सरकार द्वारा संसद में पेश लोकपाल बिल के साथ सहमति जताई तो केजरीवाल ने तल्ख शब्दों में ट्वीट किया कि 'अन्ना सरकारी जोकपाल से कैसे सहमत हो गए. रोचक तो यह है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों इससे सहमत हैं'.

2. अब केजरीवाल गैर-राजनीतिक नहीं रहे:
अन्ना हजारे जनलोकपाल आंदोलन के दौरान केजरीवाल की तारीफ करते नहीं थकते थे. केजरीवाल किसी पार्टी से नहीं जुड़े हैं. बड़ी सरकारी नौकरी छोड़कर देश सेवा में आए हैं. चप्पल और साधारण शर्ट-पैंट पहनते हैं. लेकिन जब केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन किया तो अन्ना ने केजरीवाल के बारे में बोलना बंद कर दिया. कुछ दिनों बाद दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप किसी आम नेताओं जैसे होने लगे. अन्ना पीछे छूट गए और केजरीवाल सियासत में पड़ गए. अब ये दूरी खत्म होना नामुमकिन है.

3. गैर-राजनीतिक लोगों की दिलचस्पी कम हो गई है:
2011 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में देश के कोने-कोने से आम लोगों और संस्थाओं ने टीम अन्ना को अपना समर्थन दिया था. रामलीला मैदान पर अन्ना के समर्थन में लाखों लोग पहुंचे. लेकिन जैसे ही इस टीम में बिखराव हुआ और केजरीवाल और उनकी टीम ने राजनीतिक पार्टी बनाई, आम लोगों का इस आंदोलन से ही भरोसा उठ गया. इस बीच अन्ना ने मुंबई में बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स के पास भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही अनशन शुरू किया. 50 हजार लोगों के आने का दावा किया गया, लेकिन पांच हजार लोग भी नहीं पहुंचे. उन्होंने दिल्ली में फिर से आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन यह प्रयास भी असफल रहा.

4. अन्ना तो आर-पार की लड़ाई कर सकते हैं लेकिन केजरीवाल अब नहीं:
भूमि अधिग्रहण का मुद्दा एक राष्ट्रीय मुद्दा है, जो खासकर किसानों से जुड़ा हुआ है. अन्ना चूंकि गांव से जुड़े हुए हैं, इसलिए वे इस पर मजबूती से पक्ष रख सकते हैं. लेकिन केजरीवाल का मामला अब दूसरा हो गया है. हाल ही में उन्हें दिल्ली की जनता ने राज्य के मुखिया के तौर पर चुना है. भूमि अधिग्रहण का मुद्दा दिल्ली के लोगों से बहुत ज्यादा जुड़ा हुआ नहीं है. ऐसे में केजरीवाल इस मामले में बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं कर पाएंगे. वे अन्ना के साथ सांकेतिक रूप से ही जुड़ेंगे.

5. भूमि अधिग्रहण का मुद्दा भ्रष्टाचार के मुद्दे जैसा व्यापक नहीं हो पाया:
2011 में टीम अन्ना को जैसा समर्थन मिला था, वैसा समर्थन अब मिलना मुश्किल है. क्योंकि तब देश में एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे थे. आदर्श घोटाला, 2जी घोटाला, कोयला घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला आदि. आम लोगों में गुस्सा था. अन्ना ने उस गुस्से को मंच दे दिया. वे जनलोकपाल के रूप में एक समाधान भी लेकर आए. जिसमें भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई के लिए कड़े उपाय सुझाए गए थे. लेकिन भूमि अधिग्रहण बिल के मामले में ज्यादातर आबादी को पता ही नहीं है. और वह सीधे तौर पर उससे जुड़ी हुई भी नहीं है. फिर अन्ना या केजरीवाल क्या चाहते हैं, ये भी स्पष्ट नहीं है. ऐसे में जनसमर्थन सीमित ही रहने की उम्मीद है.

इन तमाम बातों के बावजूद अन्ना और केजरीवाल फिर साथ आ रहे हैं. अन्ना ने आम आदमी पार्टी को इस आंदोलन में शामिल होने की सहमति दी है. अन्ना और भूमि अधिग्रहण का मुद्दा केजरीवाल को उनकी राष्ट्रीय विस्तार में मदद ही देंगे.

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लेखक

धीरेंद्र राय धीरेंद्र राय @dhirendra.rai01

लेखक ichowk.in के संपादक हैं.

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