वाह रे मुख्तार की माया, भैया ने ठुकराया, बहन जी ने अपनाया!
इतना तो स्पष्ट है कि मुस्लिम वोट की राजनीति करने वाले देश के सभी प्रमुख दल मोहम्मद शहाबुद्दीन और मुख्तार अंसारी जैसों को ही मुसलमानों का हमदर्द मानते हैं.
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यह मेरे मुस्लिम भाइयों-बहनों का सौभाग्य है या दुर्भाग्य, कि देश से लेकर प्रदेश तक के चुनावों में ध्रुवीकरण की राजनीति की मुख्य धुरी वही बने रहते हैं? उनका समर्थन और वोट हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों को कौन-कौन से पापड़ नहीं बेलने पड़ते! जिन खुशनसीबों को उनके वोट मिल जाते हैं, वे अपने गले में धर्मनिरपेक्ष होने का पट्टा लटकाए फ़ख्र से घूमते हैं और जिन बदनसीबों को उनके वोट नहीं मिल पाते, वे सांप्रदायिक होने के कलंक से कभी नहीं उबर पाते.
मज़ेदार बात यह है कि 70 में से 60 साल उनकी हिमायती धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने ही देश पर राज किया है, फिर भी उनकी क्या हालत है, यह किसी से छिपी नहीं. सच्चर कमीशन की रिपोर्ट वास्तव में इन्हीं धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के मुस्लिम-प्रेम की सच्चाई का कच्चा चिट्ठा थी. आज भी हमारे बहुसंख्य मुस्लिम भाइयों-बहनों का जीवन गंदी बस्तियों में तबाह हो रहा है और न तो बच्चों को अच्छी तालीम नसीब है, न उनके जवानों को ढंग के रोजगार.
फिर भी, न तो इन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लिए हमारे मुस्लिम भाइयों-बहनों का प्रेम कम होता है, न इनके लिए उन धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के इश्क में कमी आती है. अब देखिए न, उन्हें ही रिझाने के लिए तो बिहार में सामाजिक न्याय के सबसे बड़े झंडावरदार लालू यादव जी को भी अन्याय के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक मोहम्मद शहाबुद्दीन को पोसना पड़ता है. और इधर यूपी में भी कभी मुलायम सिंह, तो कभी बहन मायावती को भी 'भाई' मुख्तार अंसारी के चरणों में लोटकर मुस्लिम वोटों का आशीर्वाद मांगना पड़ता है.
यूपी में तो पिछले छह महीने से सारा तमाशा इन्हीं मुख्तार "भाई" के नाम पर चल रहा था. एक दिन शिवपाल चचा उन्हें पार्टी में ले आते, दूसरे दिन अखिलेश भैया उन्हें पार्टी से निकाल देते. शिवपाल चचा फिर उन्हें पार्टी में ले आते, अखिलेश भैया फिर से उन्हें निकाल देते. अखिलेश भैया द्वारा फाइनली ठुकरा दिये जाने के बाद बहन मायावती ने जिस आदर और प्यार से मुख्तार 'भाई' को गले लगा लिया, उसके बाद तो मुलायम सिंह की बात ही सच लगने लगी है कि अखिलेश यादव मुस्लिम विरोधी हैं. मुस्लिम विरोधी नहीं होते, तो भला मुस्लिम-हृदय-हार अपने मुख्तार "भाई" को पार्टी में शामिल करने से वे इनकार कैसे कर सकते थे?
यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि पॉलीटिक पंडित लोग भी इन्हीं मुख्तार "भाई" को यूपी में मुस्लिम वोटों की चाभी मान रहे हैं. चूंकि मुख्तार "भाई" को अखिलेश यादव ने ठुकरा दिया, इसलिए मुस्लिम मतदाताओं के वोट उनकी पार्टी को कम मिलेंगे, इसलिए मुस्लिम-यादव समीकरण कमज़ोर हो गया. चूंकि मुख्तार "भाई" को मायावती ने अपना लिया, इसलिए मुस्लिम मतदाता अब उनकी पार्टी पर मेहरबान हो जाएंगे, इसलिए मुस्लिम-दलित समीकरण मजबूत हो गया. यानी ऐसी है अपने मुख्तार "भाई" की महिमा.
बहरहाल, इतना तो स्पष्ट है कि मुस्लिम वोट की राजनीति करने वाले देश के सभी प्रमुख दल मोहम्मद शहाबुद्दीन और मुख्तार अंसारी जैसों को ही मुसलमानों का सच्चा नेता, मसीहा और हमदर्द मानते हैं, लेकिन क्या हमारे मुस्लिम भाई-बहन भी शहाबुद्दीन और मुख्तार जैसों को ही अपना हीरो समझते हैं? अगर हां, तो ऐसी समझदारी से उन्हें बदनामी के सिवा कुछ भी नहीं मिलता, और अगर नहीं, तो ऐसी राजनीतिक पार्टियों को वे खारिज क्यों नहीं करते, जो खलनायकों को उनके नायक की तरह पेश करके उन्हें बदनाम करने का काम करती हैं.
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि आज मुस्लिम प्रेम से जुड़ा सारा राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श बाबर, औरंगजेब और तैमूर लंग से लेकर मकबूल भट्ट, अफजल गुरु, याकूब मेमन होते हुए मोहम्मद शहाबुद्दीन और मुख्तार अंसारी पर ही आ टिका है. जो इन्हें खलनायक माने, वह मुस्लिम विरोधी. जो इन्हें नायक माने, वह मुसलमानों का हितैषी. हाल में देश के तमाम मार्क्सवादियों, अंबेडकरवादियों और गांधीवादियों ने भी अभिव्यक्ति की आज़ादी की जो लड़ाइयां लड़ीं, वह इन्हीं नामों को नायक या खलनायक मानने के विमर्श में उलझकर रह गईं और मुसलमानों के असली मुद्दे गौण हो गए.
इसलिए, दो बातें हमेशा याद रखें. पहली- कि जब तक मतदाताओं के मन से भी जाति और संप्रदाय की सोच खत्म नहीं होगी, तब तक राजनीतिक दल जातीय और सांप्रदायिक राजनीति करते रहेंगे. दूसरी- कि ध्रुवीकरण कभी सिर्फ एक तरफ नहीं हुआ करता. यह हमेशा दोनों तरफ होता है. और यह भी सच है कि इनमें से किसी भी तरफ का ध्रुवीकरण पवित्र और धर्मनिरपेक्ष नहीं होता. इसलिए, बेहतर यही है कि जातीय और सांप्रदायिक सोच से हम तौबा करें और इस महा-ठगनी ध्रुवीकरण पॉलीटिक्स का अंत कर दें. देश और प्रदेश के हित में यही है.
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