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Updated: 04 अगस्त, 2015 03:54 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए. अब वो दौर नहीं रहा. पुराने दौर के आउटडेटेड कानून भी खत्म कर देने चाहिए. क्योंकि दुनियाभर के सौ से ज्यादा मुल्कों में इसे खत्म कर दिया गया है. सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या भारत इसके लिए तैयार है?

याकूब मामले से किनारा

93 के मुंबई विस्फोट में याकूब मेमन की फांसी से धीरे धीरे लोग खुद को अलग करते जा रहे हैं. सभी के सफाई देने के अपने अपने आधार हैं. बीजेपी नेता शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि राष्ट्रपति के पास याकूब की माफी के लिए की गई सिफारिश में उन्होंने कभी दस्तखत नहीं किए. फांसी से पहले सिन्हा का नाम जोर शोर से उछल रहा था. कांग्रेस ने भी इसको लेकर बीजेपी को घेरने की पूरी कोशिश की.

कांग्रेस नेता शशि धरूर का भी कहना है कि वो फांसी के खिलाफ हैं, याकूब की फांसी के नहीं. खबर है कि कुछ मित्रों सांसदों से बातचीत में थरूर ने माना था कि फांसी के विरोध की उनकी टाइमिंग गड़बड़ हो गई. बीजेपी नेता वरुण गांधी ने अपने लेख में याकूब के नाम का जिक्र तो नहीं किया है लेकिन टाइमिंग को देखते हुए तस्वीर कहीं से भी धुंधली नहीं है.

फांसी का विरोध

फांसी को लेकर अपना नजरिया पेश करते हुए वरुण गांधी ने तमाम बातों के साथ साथ बौद्ध धर्म और अहिंसा की बात की है. धर्म अहिंसा को निश्चित रूप से बढ़ावा देता है, क्या अपराध के प्रति भी किसी धर्म का वैसा ही स्टैंड होता है?

अहिंसा के रास्ते युद्ध के हालात रोके जा सकते हैं. अहिंसा के रास्ते किसी पॉलिटिकल समस्या का समाधान खोजा जा सकता है. अहिंसा के रास्ते किसी तथाकथित कॉज को लेकर भटके युवाओँ को सही रास्ते पर लाया जा सकता है.

क्या अहिंसा के रास्ते लोगों को मौत के घाट उतारने वाले को भी समझाया जा सकता है. क्या अहिंसा के रास्ते किसी बलात्कारी को डील किया जा सकता है?

हाल के दो केस ही काफी हैं. गहराई से जांच होने पर पता चला कि उबर का कैब ड्राइवर हैबिचुअल ऑफेंडर रहा है. बच्चों की हत्या और उन्हें हवस का शिकार बनाने वाला दिल्ली में गिरफ्तार शख्स दो-चार नहीं बल्कि दर्जनों बच्चों का अपना शिकार बना चुका है. क्या ऐसे लोगों से भी अहिंसा के रास्ते निपटा जा सकता है.

मालूम नहीं वरुण अपनी इमेज सुधारना चाह रहे हैं या कुछ और क्योंकि 2009 में उनके बयान तो फांसी की सजा जैसी बातों को काफी पीछे छोड़ देते हैं. हालांकि, अब सभी आरोपों से वो बरी हो चुके हैं.

चुनौतियां हजार हैं

संसद पर अब परिंदा भी पर नहीं मार सकता क्योंकि हमले के बाद वहां की सिक्योरिटी सख्त कर दी गई. ऐसे कुछ और भी स्थान हैं जहां चप्पे चप्पे पर नजर रखी जाती है. लेकिन उन जगहों का क्या? गुरदासपुर का थाना तो मिसाल भर है. देश भर में ऐसे थाने हैं जहां कोई सिपाही अंग्रेजों के जमाने की थ्री-ऩॉट-थ्री या होमगार्ड के जवान बल्लम लेकर पहरा देते देखे जा सकते हैं.

मुंबई हमले से लेकर दिल्ली, बनारस और दूसरे सीरियल ब्लास्ट जताते हैं कि आतंकी कैसे अपने मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं. बस जगह और तारीख बदल जाती है, हमले नहीं रुकते.

अब वजह चाहे इंटेलिजेंस इनपुट हो या कुछ और. नतीजा तो यही है कि हमले होते जा रहे हैं.

क्या वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को बाद दोबारा किसी दहशतगर्द ने वैसी हिम्मत जुटाई है. छिटपुट घटनाएं पूरी दुनिया में होती रहती हैं. उनकी बात अलग है.

फांसी की सजा को खत्म करने में ऐसी कई चुनौतियां हैं. निर्भया कांड के बाद सिविल सोसाइटी बलात्कारियों के लिए फांसी देने की मांग क्यों कर रही थी? हालांकि, उन्हीं में से कुछ लोग अब फांसी के विरोध में लामबंद हो गए हैं. अगर ये कॉज को लेकर गंभीरता नहीं है तो किसी सोशल ट्रेंड का हिस्सा बनने या फैशन से ज्यादा भी कुछ नहीं है.

मजहब नहीं सिखाता

कोई मजहब आतंकवाद नहीं सिखाता. इसलिए 'हिंदू टेरर' और 'इस्लामिक टेरर' की बात बेमानी लगती है. बात तब और भी गंभीर हो जाती है जब सरकारी मशीनरी का इंटेशन सामने आता है. एनआईए की सफाई के बावजूद पब्लिक प्रॉसिक्यूटर रोहिणी साल्यान की बात खत्म नहीं हो जाती.

हिंदू आतंकवाद और मुस्लिम आतंकवाद का बंटवारा नहीं होना चाहिेए. किसी भी तरह के आतंकवाद को किसी भी सूरत में सही या गलत या फिर कम खतरनाक और ज्यादा खतरनाक नहीं बताया जा सकता.

न तो एक पार्टी द्वारा हिंदू आतंकवाद का मसला उठाकर दूसरे को कठघरे में खींचना चाहिए और न ही दूसरी पार्टी को जानबूझकर सॉफ्ट अप्रोच रखना चाहिए. एनआईए की वकील साल्यान का बयान हैरान करने वाला रहा.

दंड का खौफ

दंड का प्रावधान आखिर किया क्यों गया है? इसीलिए ना कि हर अपराधी के मन में दहशत हो. अगर कोई वैसे अपराध को अंजाम देने की सोचे तो सजा का ख्याल आते ही सिहर उठे. इसका मतलब ये नहीं कि किसी को सुधार का मौका ही नहीं दिया जाना चाहिए. सुधार का मौका निश्चित रूप से दिया जाना चाहिए, लेकिन तभी तक जब तक मामला माकूल हो.

इतना तो साफ हो ही चुका है कि फांसी का खौफ कायम है. ऐसे तमाम मामले मिल जाएंगे कि सजा काट कर आने के बाद भी अपराधी बाज नहीं आ रहे. सजा चाहे दो साल की हो, सात साल की हो, 10 साल की हो या फिर उम्र कैद, शायद अब बहुत फर्क नहीं पड़ता. कानून की ढीली-कड़ियों का फायदा उठाकर अपराधी पैरोल पर छूटते हैं और बर्थडे सेलीब्रेशन से लेकर शादी तक रचा रहे हैं. जमानत मिल जाने पर चुनाव भले न लड़ पाएं लेकिन सब कुछ मैनेज करते नजर आ रहे हैं.

लेकिन फांसी की सजा का चौतरफा खौफ है. फांसी को लेकर पीछे जो भी, उसके आगे कोई जीत नहीं है.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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