आम आदमी पार्टी : कैसे रहे पार्टी के 5 साल
भारतीय राजनीति में आम आदमी का उदय एक अचरज में डालने वाली घटना है, पार्टी को अस्तित्व में आए पांच साल हो गए हैं और इन बीते हुए पांच सालों में पार्टी ने जहां सराहनीय कार्य किये तो वहीं कई मुद्दों पर उसकी जम के आलोचना हुई.
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भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में, राजनीति के अंतर्गत दिन और तारीखें ज्यादा मायने नहीं रखती. कोई, कभी भी किसी बात को मुद्दा बना सकता है, और जनता को नियंत्रण में रखते हुए अपनी राजनीति की शुरुआत कर सकता है. इस बात पर हममें से ज्यादातर लोग सहमत हैं कि राजनीति पूर्णतः टाइमिंग का खेल है और शायद इस बात से भी सहमत हों कि टाइमिंग के इसी खेल के चलते भारतीय राजनीति में आम आदमी पार्टी का उदय हुआ. अपनी उम्र के लिहाज से आम आदमी पार्टी सिर्फ 5 साल की है, मगर भारतीय राजनीति में 26 नवंबर 2012 को स्थापित हुई इस पार्टी ने कई मायनों में इतिहास को रचा और उसे बदला भी है.
आज आम आदमी पार्टी की स्थापना हुए 5 साल हो गए हैं. कहा जा सकता है कि इन पांच सालों में ऐसा बहुत कुछ हुआ जिसकी कल्पना न तो इस देश के आम आदमी ने ही की थी. और न ही खुद पार्टी सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने. आम आदमी पार्टी ने अपने उदय से लेकर अब तक कई उतार चढ़ाव देखे और कई आरोपों का सामना किया है. बात आगे बढ़ाने से पहले आपको बताते चलें कि 26 नवंबर 2017 को आम आदमी पार्टी की स्थापना के पांच साल पूरे होने पर पार्टी दिल्ली के रामलीला मैदान में 'क्रांति के 5 साल नाम का कार्यक्रम कर रही है जिसमें हिस्सा लेने के लिए देश भर से आप कार्यकर्ता अपनी उपस्थिति दर्ज कराएंगे.
देश की राजनीति में आम आदमी पार्टी का उदय अपने आप में ऐतिहासिक है
जैसा कि हम बता चुके हैं आज आम आदमी पार्टी की पांचवी वर्षगांठ है तो आइये एक नज़र डालें इस पार्टी पर और जाननें का प्रयास करें कि अपने उदय से लेकर अब तक आम आदमी पार्टी ने ऐसा क्या किया जिसके चलते हमें इसपर चर्चा करनी चाहिए और ये जानने का प्रयास करना चाहिए कि इस पार्टी के उदय से भारतीय राजनीति को फायदा पहुंचा है या फिर नुकसान हुआ है.
एक आंदोलन जो बना इस पार्टी के जन्म लेने की वजह
ज्ञात हम सभी को है कि आज से पांच साल पहले इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले इस पार्टी की नीव तब पड़ी थी जब पार्टी के संस्थापक अरविंद केजरीवाल ने राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर अन्ना हजारे के साथ भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दे पर धरना दिया था. टीम अन्ना में किसी और के मुकाबले केजरीवाल ज्यादा लोकप्रिय हुए और शायद यही वजह थी कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन और टीम अन्ना दो धड़ों में बंट गयी जिसमें से एक धड़ अन्ना के साथ रहा और दूसरा धड़ केजरीवाल के साथ आ गया. शुरुआत में केजरीवाल ने कहा था कि वो राजनीति में नहीं आएंगे मगर न सिर्फ वो राजनीति में आए बल्कि उन्होंने चुनाव भी लड़ा और दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज भी हुए.
पांच साल के छोटे से वक़्त में आम आदमी पार्टी ने बड़ा मुकाम हासिल किया
चाहे केजरीवाल के आलोचक हों या समर्थक. लोगों के बीच ये मान्यता है कि इतनी ऊहा पोह के बावजूद 5 साल में ही केजरीवाल ने वो मुकाम हासिल कर लिया है जो किसी भी नेता के लिए एक बड़ी उपलब्धि रहता है. कह सकते हैं कि पांच साल जितना समय किसी भी राजनीतिक दल के जीवन में एक लंबा अंतराल नहीं माना जा सकता, मगर आम आदमी पार्टी के ये पांच साल भारतीय राजनीतिक जीवन में उसका एक बड़ा कदम है.
आप का भारतीय राजनीति में आना भी एक दिलचस्प घटना है
कैसे रचा इतिहास
आम आदमी पार्टी ने भारतीय राजनीति में कैसे इतिहास रचा है ? इस प्रश्न का उत्तर खुद इस प्रश्न में छुपा हुआ है. एक ऐसे दौर में जब देश की राजनीति अपना मूल भूल गयी हो. जिसने अपना अस्तित्व नकार दिया हो ऐसे में एक नई पार्टी का आना. आदर्शवाद और जनसेवा की बात करना, लोगों के ताने और आलोचना सुनना, मजाक का पात्र बनना, चुनाव लड़ना और विचारधारा के बल पर चुनाव जीतना अपने आप में ये बताने के लिए काफी है कि आम आदमी पार्टी की राहें उतनी भी आसान नहीं थी जितना हम सोच रहे हैं.
2013 में जब ‘आम आदमी पार्टी’ ने पहली बार चुनाव लड़ा था तो शायद ही किसी ने उसे गंभीरता से लिया हो, पार्टी आदर्शवाद से ओतप्रोत थी और नया हिंदुस्तान बनाने का सपना अपनी आंखों में लिए हुए थी. ये शायद पार्टी के लाखों कार्यकर्ताओं का प्रयास ही था जिन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया. आम आदमी पार्टी की बदौलत दिल्ली के लोगों ने शीला दीक्षित को सिरे से खारिज कर दिया और उठान पर खड़ी बीजेपी को सरकार बनाने से रोक दिया. उस समय दिल्ली में ' आम आदमी पार्टी' ने 70 में से 67 सीटें जीत कर देश की जनता को बताया कि जहां चाह है वहीं राह है.
कई साधारण लोग राजनीति में आए
आम आदमी पार्टी के उदय के बाद ये पहली बार था कि किसी पार्टी ने अपने खेमें में उन लोगों को जगह दी जो आम और पूर्ण रूप से अराजनीतिक थे. जिनका कोई क्रिमिनल बैक ग्राउंड नहीं था. पार्टी ने उन लोगों को राजनीति करने का मौका दिया जिनके बारे में शायद ही कभी किसी पार्टी ने सोचा हो. कह सकते हैं कि धनबल के मुकाबले पार्टी ने हमेशा ही उन लोगों को तरजी दी जिन्होंने अपने को ,लोगों से जोड़ा और जमीन पर आकर काम किया.
भारतीय राजनीति में आप ने कुछ चीजों में एक नई शुरुआत की है
दिया स्वास्थ्य और शिक्षा को बल
दिल्ली में सत्ता में आने के बाद आम आदमी पार्टी ने वो कर दिखाया जिसके बारे में अन्य सियासी दल बात तो करते हैं मगर उस दिशा में कोई खास काम नहीं करते हैं. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य को बड़ी ही गंभीरता से लिया और इस पर काम किया. आज आम आदमी पार्टी के आलोचक भी इस बात से सहमत हैं कि पार्टी द्वारा इस दिशा में काम करना एक बड़ा कदम है जिसकी तारीफ वाकई होनी चाहिए.
निराधार आरोप फिर मामला ठंडे बस्ते में
ऐसा नहीं है कि पार्टी जब कुछ सही ही करती चली आई है. हम गुजरे पांच सालों में कई ऐसे मौके देख चुके हैं जब पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस और भाजपा पर अलग - अलग आरोप लगाए, बड़ी- बड़ी बातें की और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया. गुजरे पांच सालों में ऐसे मामले भरे पड़े हैं जब अरविंद केजरीवाल ने खुलासे तो किये मगर वो अपने खुलासों से किसी को मोहित नहीं कर पाए. केजरीवाल के आलोचकों के बीच ये बात हमेशा ही चर्चा का केंद्र रही है कि उनकी जिंदगी का सिर्फ एक मकसद है प्रधानमंत्री की आलोचना और उन्हें नीचा दिखाना. बीते पांच सालों में हमारे सामने कई मौके ऐसे आए हैं जब हमनें केजरीवाल को मोदी पर गंभीर आरोप लगाते देखा मगर जब बात उन आरोपों को सिद्ध करने की आई तो केजरीवाल ने अपने आरोपों पर चुप्पी साध ली.
अभी शुरुआत है केजरीवाल और पार्टी दोनों अपनी गलतियों से सीख ले रहे हैं
उत्तर प्रदेश और पंजाब चुनाव
केजरीवाल के आलोचकों के बीच ये मत प्रमुखता से है कि भारतीय राजनीति में केजरीवाल थोथा चना हैं और उनका काम आरोप और आलोचना से ज्यादा कुछ नहीं है. इस बात को उस परिदृश्य में भी समझा जा सकता है जब केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चुनाव लड़ा और उन्हें और उनकी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. उत्तर प्रदेश के मुकाबले पंजाब में केजरीवाल ने नशे को मुख्य मुद्दा बनाया और चुनाव लड़ा. पंजाब में लोगों को केजरीवाल द्वारा उठाया गया ये मुद्दा पसंद आया और वहां उन्होंने 20 विधान सभा सीटों पर अपनी जीत दर्ज की.
केजरीवाल का तानाशानी भरा रवैया और आम आदमी पार्टी
केजरीवाल के आलोचक हों या फिर उनके करीबी दोनों ही ये मानते हैं कि भले ही केजरीवाल में लाख अच्छाइयां हो मगर वो एक जिद्दी राजनेता हैं जो अपने आगे किसी की सुनते नहीं हैं और एक तानाशाही भरा रवैया अख्तियार किये हुए हैं. ऐसे में आज उनकी इस हरकत का खामियाजा न सिर्फ व्यक्तिगत रूप से उन्हें बल्कि पूरी पार्टी को उठाना पड़ रहा है जिसके चलते पार्टी में मतभेद और अलगाव एक आम बात है. कह सकते हैं कि अगर केजरीवाल अपना नजरिया नहीं बदलते हैं तो ये कई मायनों में पार्टी और पार्टी से जुड़े लोगों के लिए एक घाटे का सौदा होने वाला है.
अंत में इतना ही कि अभी आम आदमी अपने शुरूआती दौर में हैं जिस कारण पार्टी और केजरीवाल दोनों से अनुभवहीनता के चलते गलतियां होंगी. ऐसे में यदि पार्टी और केजरीवाल दोनों अगर अपनी गलतियों से सबक लेते हुए आगे बढ़ेंगे तो ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि तमाम बाधाओं के बावजूद ये पार्टी बेहद आगे जाएगी और भारतीय राजनीति के मायने बदलेगी. पार्टी के शुरूआती पांच सालों ने ये बात भली प्रकार दर्शा दी है कि भले ही इनका कदम छोटा है मगर कहीं न कहीं इनकी सोच बड़ी है और शायद यही कारण है कि तमाम सियासी दल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में बिल्कुल नई नई उभरी इस पार्टी से खौफ़ खा रहे हैं.
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