अखिलेश यादव ने चंद्रशेखर आजाद को ही मायावती का विकल्प मान ही लिया
मायावती (Mayawati) के हाथ खींच लेने के बाद भी अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) यूपी विधानसभा चुनाव में चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad) के दबाव में नहीं आये, लेकिन अब दोनों के तेवर नरम पड़ चुके हैं - और सपा नेतृत्व ने भीम आर्मी को बीएसपी का विकल्प मान लिया है.
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अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के साथ अगर मायावती खड़ी होतीं, तो यूपी की राजनीति में उनको शायद ही किसी के सपोर्ट की जरूरत पड़ती. असल वजह जो भी हो, लेकिन सपा-बसपा गठबंधन टूटने की कीमत तो दोनों ही चुका रहे हैं - भले ही मायावती ने ही हाथ पीछे खींच लिया हो.
मायावती (Mayawati) ने 2019 के आम चुनाव के लिए अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन किया था, लेकिन नतीजे आने के कुछ ही दिन बाद सपा-बसपा गठबंधन खत्म करने की घोषणा कर डाली थी. आम चुनाव में अखिलेश यादव को फायदा तो दूर नुकसान ही हुआ था, लेकिन वो गठबंधन तो असल में 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए ही हुआ था. अब अगर मायावती को प्रधानमंत्री बनने का मौका नहीं मिल पाया, लेकिन अखिलेश यादव ने तो अपनी तरफ से कोई कमी कहां की थी. मायावती को वादे के मुताबिक, विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने में मदद करनी चाहिये थी.
विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव आत्मविश्वास से लबालब लग रहे थे. मायावती की तरफ से सपोर्ट मिलने की कोई उम्मीद थी नहीं, फिर भी पूरे चुनाव उनके वोटर से अपील करते रहे. अखिलेश यादव की अपील का कोई असर नहीं हुआ. किसी ने उनकी बात सुनी नहीं गयी. वो कहते रहे समाजवादियों के साथ अंबेडकरवादी आ जायें तो वो बीजेपी को आसानी से हरा सकते हैं, मायावती ने तब भी वैसा नहीं होने दिया - और आजमगढ़ उपचुनाव तक वो अपने स्टैंड पर कायम रहीं. हां, अभी होने जा रहे उपचुनावों में बीएसपी हिस्सा नहीं ले रही है.
सपा-बसपा गठबंधन के दौरान ही अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी को अपने कोटे से साथ रखा था. सीटों के बंटवारे में मायावती ने कोई उदारता नहीं दिखायी तो अखिलेश यादव ने अपने हिस्से से जयंत चौधरी की आरएलडी के साथ शेयर किया था. सपा-बसपा गठबंधन टूट जाने के बाद भी दोनों का रिश्ता बना रहा - अभी तो जयंत चौधरी समाजवादी पार्टी की ही बदौलत राज्य सभा भी पहुंचे हुए हैं.
विधानसभा चुनाव में जब अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी और ओम प्रकाश राजभर के साथ चुनावी गठबंधन फाइनल कर रहे थे, तभी भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad) रावण भी मिलने पहुंचे थे. तब तक चंद्रशेखर अपना नया राजनीतिक दल आजाद समाज पार्टी भी बना लिये थे - लेकिन सीटों पर अड़े होने के कारण गठबंधन पक्का नहीं हो सका.
चंद्रशेखर आजाद रावण ने तब अखिलेश यादव पर दलित समुदाय के साथ धोखेबाजी और अपमान का भी आरोप लगाया था. चुनावी गठबंधन के लिए वो आबादी के हिसाब से गठबंधन में हिस्सेदारी मांग रहे थे - जबकि अभी तक वो न तो खुद और न ही उनकी पार्टी के किसी नेता ने ही विधानसभा का एक भी चुनाव जीता है. कहने को तो वो गोरखपुर सदर सीट से चुनाव मैदान में उतरे भी थे, लेकिन हार तो पहले से ही तय मानी जा रही थी - मुकाबला यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जो रहा.
चंद्रशेखर की राह में एक दलित नेता खड़ा कर मायावती ने तो हार पक्की कर ही दी थी, बाकी कसर अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपने प्रत्याशियों को उतारकर कर दिया था - कुल मिलाकर हर तरफ से यही मैसेज देने की कोशिश लगी कि चंद्रशेखर आजाद को कोई सपोर्ट नहीं कर रहा है. यहां तक कि योगी आदित्यनाथ के खिलाफ भी, जिनको सत्ता से बेदखल करने के लिए सारे ही राजनीतिक विरोधी लगे रहे. राहुल गांधी की माने तो मायावती को छोड़ कर.
विधानसभा चुनाव से पहले न तो अखिलेश यादव झुकने को तैयार थे, न ही चंद्रशेखर आजाद के ही तेवर नरम पड़ रहे थे - लेकिन चुनाव नतीजे तो सभी को उनकी औकात बता देते हैं. कौन हीरो है और कौन जीरो ये भी तभी मालूम होता है - और अब अपडेट ये है कि अखिलेश यादव और चंद्रशेखर आजाद दोनों ही हाथ मिलाने को तैयार हैं.
शिवपाल यादव के बाद चंद्रशेखर आजाद दूसरे ऐसे नेता हैं जिनके प्रति अखिलेश यादव विनम्रता दिखा रहे हैं. सच तो यही है कि सभी को एक दूसरे की बहुत ही ज्यादा जरूरत है. यूपी की राजनीति ऐसी हो चली है कि हर किसी के सामने राजनीतिक अस्तित्व बनाये रखने की चुनौती आ खड़ी हुई है - और चंद्रशेखर आजाद की राजनीतिक पारी तो अभी शुरू भी नहीं हुई है.
क्या ये भूल सुधार है?
विधानसभा उपचुनाव के बाद अखिलेश यादव तो समाजवादी पार्टी की हार-जीत की समीक्षा में ही लगे रहे, लेकिन उनके गठबंधन पार्टनर जयंत चौधरी अलग ही फ्रंट पर काम कर रहे थे. तभी आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव भी हुए और 2019 में मिली दो सीटों से हाथ धोना पड़ा. ये दोनों ही सीटें समाजवादी पार्टी की ही रहीं जिन पर अखिलेश यादव और आजम खां के इस्तीफे के बाद उपचुनाव कराये गये - और अब दोनों ही सीटों पर बीजेपी काबिज हो चुकी है.
चंद्रशेखर आजाद, मायावती की भरपाई तो नहीं कर सकते, लेकिन अखिलेश यादव को थोड़ी राहत तो दे ही सकते हैं.
ऐसे में जबकि असली लड़ाई मैनपुरी में लग रही है, अखिलेश यादव ने खतौली विधानसभा और रामपुर उपचुनाव से ध्यान हटा लिया है. वो सिर्फ डिंपल यादव के चुनाव कैंपेन पर ही ध्यान दे रहे हैं. इसलिए जयंत चौधरी खतौली और आजम खान रामपुर उपचुनाव की जिम्मेदारी उठा रहे हैं.
विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद से ही जयंत चौधरी और चंद्रशेखर आजाद को कई बात साथ साथ देखा गया था. दोनों ने ऐसे भी संकेत दिये कि वे यूपी से बाहर चुनावों में हाथ मिला सकते हैं - वो तो बाद की बात है, अभी तो जयंत चौधरी ने चंद्रशेखर आजाद को खतौली और रामपुर उपचुनाव में साथ रखा है - और चंद्रशेखर आजाद की बातों से ऐसा लगता है जैसे मैनपुरी उपचुनाव में भी वो डिंपल यादव के लिए वोट मांग रहे हैं. हालांकि, अभी तक वो सिर्फ खतौली और रामपुर तक ही पहुंचे हैं.
जयंत चौधरी ने अपनी तरफ से साफ कर दिया है कि चंद्रशेखर आजाद की समाजवादी गठबंधन में औपचारिक एंट्री हो चुकी है - और आजम खान को समर्थन देने रामपुर पहुंचे चंद्रशेखर आजाद की बातों से भी ऐसा ही लग रहा है.
खतौली विधानसभा उपचुनाव में आरएलडी उम्मीदवार मदन भैया को लेकर नवीन मंडी में एक रैली हुई थी. ये रैली समाजवादी पार्टी, आरएलडी और आजाद समाज पार्टी तीनों की तरफ से आयोजित की गयी थी - रैली में जयंत चौधरी के साथ चंद्रशेखर आजाद ने भी गठबंधन प्रत्याशी मदन भैया के लिए वोट मांगे.
रैली में जयंत चौधरी कह रहे थे, 'कुछ महीने पहले विधानसभा के चुनाव हुए थे, जिसमें समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल का गठबंधन था... उस चुनाव में कुछ कमी रह गयी थी, जिसे आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद ने पूरी कर दी है.' खतौली की रैली में चंद्रशेखर ने अपना बर्थडे गिफ्ट भी एडवांस ही मांग लिया, मेरा जन्मदिन 3 दिसंबर का है और मैं अपने जन्मदिन पर अपने समाज के लोगों से गठबंधन प्रत्याशी की जीत के लिए वोट मांगता हूं.
और रामपुर पहुंच कर चंद्रशेखर आजाद ने भी वही बातें दोहरायी, 'पिछली बार मैं चूक गया था... इस बार नहीं... इस बार मैं यहां हूं... मैंने कहा है कि अगर गोली भी सरकार चलाएगी तो चंद्रशेखर आजाद का सीना सबसे आगे रहेगा... अगर लाठी भी चलाएगी तो मेरा सीना सबसे आगे रहेगा.'
जब चंद्रशेखर से विधानसभा चुनाव के दौरान गठबंधन फेल हो जाने की बात याद दिलायी गयी तो कहने लगे, ये गठबंधन नहीं है... ये लोकतंत्र, संविधान बचाने की लड़ाई है... इस लड़ाई में किसी को न्योता नहीं भेजा गया है.'
रामपुर की जमीन से चंद्रशेखर ने एक ऐसी बात भी कही जो सीधे अखिलेश यादव को राहत देने वाली है, 'मेरी इच्छा है कि हम रामपुर जीतें. और मैनपुरी भी जीतें और खतौली भी जीतें.'
विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव चाहते थे कि चंद्रशेखर आजाद के साथ भी वो शिवपाल यादव की ही तरह एक ही सीट शेयर करें. सुनने में आया था कि चंद्रशेखर आजाद के जिद पर अड़ जाने पर अखिलेश यादव एक-दो और भी सीटें बांटने का मन बना रहे थे, लेकिन वो तो आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी मांगने लगे थे.
पहले तो अखिलेश यादव ने चंद्रशेखर आजाद से मिलने में भी दिलचस्पी नहीं दिखायी थी. बाद में ओम प्रकाश राजभर का दावा रहा कि चंद्रशेखर आजाद और अखिलेश यादव के बीच मध्यस्थ की भूमिका वही निभा रहे थे. ओपी राजभर का तो यहां तक कहना था कि चंद्रशेखर को साथ लेने के लिए वो अपने हिस्से की सीटें भी उनके साथ साझा कर सकते हैं. जैसे मुख्तार अंसारी के मामले में किया था.
आजमगढ़ उपचुनाव के नतीजे के बाद तो अखिलेश यादव भी अच्छी तरह समझ चुके हैं कि कैसे मायावती मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर समाजवादी पार्टी को डैमेज कर रही हैं. मायावती के कदम से दलित वोट तो मिलने से रहे, अखिलेश यादव के हिस्से के मुस्लिम वोट भी छिटक जा रहे हैं - आजमगढ़ सीट पर बीजेपी उम्मीदवार दिनेश लाल यादव निरहुआ की जीत सबसे बड़ी मिसाल है.
ओम प्रकाश राजभर भले ही दूरी बना चुके हों, लेकिन चंद्रशेखर आजाद को साथ लाकर जयंत चौधरी, अखिलेश यादव के लिए बडे़ मददगार साबित हो रहे हैं - शुरुआत छोटी ही सही, लेकिन चंद्रशेखर आजाद को साथ लेकर अखिलेश यादव धीरे धीरे दलित वोटर को अपने करीब लाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं.
मायावती को घेरने की कोशिश
मायावती के मुकाबले देखा जाये तो अखिलेश यादव के लिए सपा-बसपा गठबंधन घाटे का ही सौदा साबित हुआ था. पांच लोक सभा सीटें तो समाजवादी पार्टी को 2014 की मोदी लहर में भी मिली थीं, लेकिन 2019 में मायावती के साथ हाथ मिलाने के बावजूद डिंपल यादव की हार को भी बर्दाश्त करना पड़ा. और मायावती तो फायदे में ही रहीं, 2014 में जीरो बैलेंस पर पहुंच चुकी बीएसपी ने 2019 में सीधे 10 संसदीय सीटें जीत ली - फिर भी अखिलेश यादव के साथ गठबंधन तोड़ डाला.
अखिलेश यादव ने तो कभी शिकायत नहीं की, लेकिन मायावती को लेकर राहुल गांधी की बातें सुनकर उनको काफी सुकून जरूर मिला होगा. राहुल गांधी ने एक बार दावा किया था, 'हमने मायावती को मेसेज दिया कि गठबंधन करिये, मुख्यमंत्री बनिये, वो बात तक नहीं कीं... सीबीआई और ईडी से डरती हैं वो... कांशीराम ने दलितों को आवाज दी, दलितों को जगाया लेकिन आज मायावती कहती हैं कि वो दलितों की आवाज के लिए नहीं लड़ेंगी.'
खास बात ये है कि अब चंद्रशेखर आजाद भी मायावती को लेकर ऐसी ही बातें करने लगे हैं. चंद्रशेखर आजाद ने मायावती से जुड़ने की काफी कोशिशें की, लेकिन अपनी शर्तों पर और ये बीएसपी नेता को कतई मंजूर न था. सहारनपुर हिंसा के समय ही मायावती ने चंद्रशेखर आजाद का नाम लिए बगैर ही बीएसपी ज्वाइन करने का ऑफर दिया था, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा तो आसमान छू रही थी.
काफी दिनों तक जेल में रहने के बाद जब छूटे तो चंद्रशेखर ने मायावती को बुआ कह कर संबोधित किया था, लेकिन मायावती साफ मुकर गयीं. बोलीं, मैं किसी की बुआ नहीं हूं - और उसके बाद से चंद्रशेखर आजाद ने हर दरवाजे पर दस्तक दी, लेकिन दर दर की ठोकरें ही खाते रहे.
एक बार अस्पताल जाकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने भी मुलाकात की और तरह तरह के कयासों को हवा दी गयी - यहां तक कि वाराणसी सीट से चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की हवा भी उड़ाई गयी थी.
रामपुर में चंद्रशेखर से एक सवाल ये भी पूछा गया कि क्या उनकी वजह से मायावती की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं? चंद्रशेखर ने ऐसी बातों से साफ तौर पर इनकार कर दिया, लेकिन जो कुछ कहा वो इकरार के अलावा कुछ भी नहीं था.
मायावती की मुश्किलों को लेकर चंद्रशेखर कहने लगे, 'मुझे उनकी मुश्किलों से ज्यादा... उनकी मुश्किलों की परवाह है जिनके साथ अन्याय हो रहा है.'
फिर कहने लगे, 'मायावती जी बड़ी नेता हैं. मैं उनका सम्मान करता हूं... लेकिन दलितों के साथ जो अन्याय हो रहा है. उनके बच्चों के साथ जो अन्याय हो रहा है... जो महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा है... किसानों के साथ... उसपे कौन बोलेगा उनकी लड़ाई लड़नी पड़ेगी... वो तो लड़ ही नहीं रही हैं... वो नहीं लड़ेंगी तो कोई तो लड़ेगा... मैं लड़ रहा हूं.'
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