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Updated: 07 फरवरी, 2023 08:59 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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लखनऊ में 'अशराफ पर्सनल लॉ बोर्ड' यानी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से पारित 10 अहम प्रस्ताव के अतीत और भविष्य से जुड़ने वाले कनेक्शन पर बात करने से पहले राहुल गांधी का यूपी की सरकार और योगी आदित्यनाथ को लेकर ताजा बयान पर ध्यान देना चाहिए. खुली आंखों अशराफ पर्सनल लॉ बोर्ड के मकसद को कांग्रेस और उसके सिंडिकेट की प्रतिक्रियाओं से बहुत आसानी से समझा जा सकता है. अशराफों की बैठक के बाद राहुल जी ने आज यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तीखा हमला करते हुए उन्हें अधर्मी-पाखंडी और ना जाने क्या-क्या कह डाला. संन्यास की परिभाषाएं भी बता गए. अगर आपको सबकुछ अनायास लग रहा है तो पहले अशराफों की जो बैठक हुई- उसके तीन अहम प्रस्ताव जो एक तरह से डायरेक्ट एक्शन ही हैं- समझ लीजिए.

औरंगजेब को नायक मानने और लालकिला पर शरिया का झंडा फहराने का हसीन ख्वाब देखने वाले मुट्ठीभर अशराफों ने घोषणा कर दी है- 'चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन हैं हिंदोस्ता हमारा.' अशराफों ने सीधे भारत सरकार और बहुसंख्यक आबादी को देश विरोधी, मानवता विरोधी बताते हुए धमकाया है. ज्ञानवापी और मथुरा मामले में अदालती प्रक्रिया को 1991 में कांग्रेस की सरकार द्वारा लाए गए वर्शिप एक्ट के बहाने अवैध और देश को अलगाववादी राजनीति में धकेलने का आरोप लगाया है. इससे पहले अभी कुछ महीना पहले उनके नेताओं ने हिंदुओं को भारत छोड़कर चले जाने की सलाह दे चुके हैं.

सिविल कोड और धर्मांतरण क़ानून से अशराफों को परेशानी क्यों?

एक दूसरा अहम प्रस्ताव जिसे पास किया गया- वह कॉमन सिविल कोड को लेकर है. यह बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का सपना था जिसे कुछ अशराफों के विरोध की वजह से ही संविधान लागू करते वक्त दरकिनार करना पड़ा था. अशराफों ने संविधान की सबसे बड़ी जरूरत को भारत की बहुलता का सुविधाजनक बहाना देते हुए गैरसंवैधानिक बताया है. बावजूद कि संविधान को ही खारिज करते हुए मुसलमानों से यह अपील भी की गई कि मुसलमान अपने कानूनी मामले ज्यादा से ज्यादा मौलानाओं के पास ही लेकर जाए और शरिया से उसका हल निकालें.

MPLBमुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक लखनऊ में हुई.

तीसरा अहम मुद्दा जो पास हुआ वह धर्मांतरण को लेकर है. विदेशी अशराफों का मानना है कि कुछ राज्यों में जो धर्मांतरण क़ानून लाया जा रहा है वह धार्मिक स्वतंत्रता की आजादी का अतिक्रमण है. यानी संविधान की प्रस्तावना में इंदिरा गांधी जी ने जो पंथ निरपेक्षता की जगह धर्म निरपेक्षता कर दिया था- उसका अतिक्रमण है. भला मुसलमानों को धर्मांतरण क़ानून से क्या दिक्कत है? देसी-विदेशी अशराफ भारत में एक और पाकिस्तान की नींव डालने का लंबे वक्त से प्रयास कर रहे हैं. पर यह उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पाकिस्तान भी ऐसे ही मुट्ठीभर अशराफों की उपज था, वही उसके कर्ता धर्ता हैं. आज पूरी दुनिया खुली आंखों उसके हश्र को देख सकती है. भारतवंशी मुसलमान भी देख रहा है. किस तरह विदेशी अशराफों ने बादशाही दौर जाने के बाद लोकतांत्रिक तरीकों से इस्लामिक उपनिवेश बनाकर लूटपाट, तबाही मचाई और अब एक-एक कर विदेशी अशराफ पाकिस्तान छोड़कर भाग रहे हैं. पाकिस्तान के कई लुटेरे विदेशों में रहते हैं अब. कोई भारतवंशी मुसलमान किन्हीं नवाबों बादशाहों के वंशजों के लिए नहीं चाहेगा कि भारत के टुकड़े हों.

पाकिस्तान पर देश की जीत के बाद कैसे नाजायज तरीके से पैदा हुआ था पर्सनल लॉ बोर्ड

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रस्ताव साफ़ संकेत दे रहे कि वह किस तरह आजाद भारत में इस्लामिक राजनीति के दूसरे चरण में घुसने को कमर कस रहा है. और कहीं ना कहीं उसकी तमाम कोशिशें भारतीय संविधान और राजनीति पर दूरगामी असर डालने वाली साबित होंगी. जो प्रस्ताव पारित किए गए हैं वह एक तरह से उसे सरकार और बहुसंख्यकों को धमकी देने से कम नहीं लेना चाहिए. प्रस्ताव इसलिए भी अहम हैं क्योंकि अतीत में भी उनके ऐसे राजनीतिक प्रस्ताव देश पर बहुत गहरा असर डाल चुके हैं. जब बोर्ड का गठन इंदिरा की शह पर किया गया था तब उसके राजनीतिक मकसद थे. कांग्रेस ने मकसद कैसे साढ़े- वह बाद की बात है, मगर अशराफों का बोर्ड कबका स्वतंत्र और निर्णायक भूमिका ले चुका है.

असल में 2019 की भयावह शिकस्त के बाद तमाम चीजों और उनकी टाइमिंग देखें, तो साफ़ नजर आ रहा कि कांग्रेस कैसे एक ही तीर से अपने सभी दुश्मनों को निपटाने की मुहिम में लगी है. उसके निशाने पर अब ना सिर्फ भाजपा है- बल्कि वो तमाम क्षेत्रीय पार्टियां भी हैं जिसे असल में कांग्रेस ने ही अपनी राजनीति के लिए उन्हें उनकी वैचारिक जमीन से खींचकर अपनी जमीन पर खड़ा कर दिया था. यह सबकुछ अशराफों के बोर्ड की वजह से ही संभव हुआ. भाजपा को तो कोई नुकसान नहीं होगा, पर उधार की वैचारिकी में भ्रष्ट हो चुके क्षेत्रीय दलों को बर्बाद होने से शायद ही दुनिया की कोई ताकत रोक सके.

भारत जोड़ो यात्रा में कांग्रेस के साथ नजर आए लगभग सभी राजनीतिक, गैर-राजनीतिक चेहरे और उनकी संस्थाएं युद्धस्तर पर काम में जुटी नजर आ रही हैं. बोर्ड भी. क्यों जुटे हैं- समझना मुश्किल नहीं. पेगासस, बीबीसी की डॉक्युमेंट्री, हिडनबर्ग का कनेक्शन देख लीजिए. सीएए, एनआरसी, किसान आंदोलन आदि भी. महुआ मोइत्रा और प्रशांत भूषण की हालिया सक्रियता देख लीजिए. हिडनबर्ग के सारे भारतीय कनेक्शन देख लीजिए. यात्रा में नजर आए सामाजिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता देख लीजिए. हिडनबर्ग के बाद पर्सनल लॉ बोर्ड जिसे असल में विदेशी अशराफ पर्सनल लॉ बोर्ड है- उसकी सक्रियता देख लीजिए. 2019 के बाद क्षेत्रीय दलों से निराश बोर्ड की कांग्रेस के साथ ट्यूनिंग साफ़ नजर आ रही है. अलग-अलग होने के बावजूद सबका कनेक्शन साफ़ दिख रहा है.

1971 की जंग का साइड इफेक्ट था मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड

अशराफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का जबरदस्त पाकिस्तानी कनेक्शन है जिसके तार सीधे 1971 में भारत पाकिस्तान की जंग से जुड़े हैं. उससे पहले भारतीय राजनीति में मुस्लिम तुष्टिकरण था. लेकिन वह भारतीय मूल्यों में था. बांग्लादेश के अलग होने को भारत के विदेशी अशराफों ने अपनी भविष्य की योजनाओं के हिसाब से सही नहीं माना था. शायद उन्हें लगा कि पाकिस्तान टूटने की वजह से भारत को लेकर उनकी मुहिम पर असर पड़ेगा. भारत में विदेशी मूल के मुसलमानों में पाकिस्तान के बिखराव को लेकर भारी नाराजगी थी. वे अपनी वोट की ताकत से इंदिरा को बेदखल करने की कोशिश में लग गए थे. बेशक इसमें पाकिस्तान की भी शह थी जो भारत के कई टुकड़ों का ख्वाब देख रहा था.

हालांकि इंदिरा ने इसे भांप लिया था. चूंकि 71 की जंग ने इंदिरा को बहुसंख्यक आबादी का बहुत बड़ा नेता तो बना दिया था. उन्हें कोई चुनौती नहीं थी. लेकिन मुसलमान मतदाता उनकी मुसीबत तो थे. आज पाकिस्तान में जिस तरह के हालात हैं और देश के अंदर भारत के हाथ-पांव बांधने की कोशिश की जा रही है - क्यों ना माना जाए कि उसके पीछे वजहें खतरनाक हो सकती हैं. अतीत में देखने से पता चलता है कि इंदिरा की ही शह पर तुष्टिकरण की दिशा में पहला काम यह हुआ कि उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन करवाया. साल 1972 में.

अशराफों में तीन तरह का तबका, बोर्ड पर दो लोगों का कब्जा

यह देश में सुन्नी मुसलमानों की सर्वोच्च संस्था है. यह मुसलमानों के राजनीतिक एजेंडा को तय करती है और अपनी आबादी को बताती है कि चुनाव में किसके खिलाफ और किसके पक्ष में वोट करना है. बोर्ड की चीजों को मुसलमानों की कुल आबादी का महज 20 प्रतिशत हिस्सा तय करता है. ये रईस मुसलमानों का तबका है. इन्हें अशराफ मुसलमान कहा जाता है और असल में ये तीन तरह के हैं. पहला- जो शुद्ध विदेशी नस्ल के हैं. यानी जिनकी वंश परंपरा सीधे विदेश से जुड़ी है. दूसरे में भारत की सवर्ण जातियों से धर्मांतरित मुसलमान हैं जो अब अपनी वंश परंपरा सीधे खिलजियों-औरंगजेबों से जोड़ते हैं और तीसरे सवर्ण जातियों से ही धर्मांतरित वे मुसलमान हैं जो खिलजियों-औरंगजेबों से तो अपनी वंश परंपरा जोड़ते हैं मगर अभी भी अपनी पहचान में मूल जातीय पुछल्ला जोड़ रखा है. मानो 'इधर जाएं कि उधर जाएं' वाली स्थिति में हैं. बावजूद जो अशराफों का गैंग है- लॉ बोर्ड के नाम पर उसमें सबसे ज्यादा शुद्ध नस्ल वालों की चलती है और उसके बाद दूसरी कैटेगरी वाले आते हैं.

पसमांदा का काम चीजों को तय करना नहीं, अशराफों के लिए वोट पैदा करना है

बाकी मुसलमानों की 80 प्रतिशत आबादी जो पसमांदा है और शुद्ध भारतीय नस्ल हैं- उनकी स्थिति भयावह है. वह सिर्फ वोटबैंक हैं. जैसा अशराफों ने कहा उन्हें वैसे ही करना पड़ता है. पसमांदा चीजों को तय करने वाले नहीं हैं. यानी नीति निर्धारक नहीं हैं. 20 प्रतिशत आबादी का वक्फ से लेकर मुसलमानों की तमाम व्यवस्थाओं पर नियंत्रण है. मस्जिद, मजार, दरगाह और मदरसे इन्हीं के नियंत्रण में हैं. अशराफों के संगठन ने जब काम करना शुरू किया उनका पहला बड़ा दबाव ठीक चार साल बाद यानी 1976 में दिखता है.

कांग्रेस के पास प्रचंड बहुमत था बावजूद यह अशराफों की गैंग का दबाव ही था कि संविधान की प्रस्तावना का संशोधन कर उसमें पंथ निरपेक्षता की जगह धर्म निरपेक्षता कर दिया गया और इसके बाद विदेशी अशराफों के गैंग की गुंडई सरेआम दिखने लगती है. हर जगह. वो वोट बैंक की तरह काम करने लगते हैं. जिस दल से उनका काम निकलता है उस दल के साथ जाते नजर आते हैं. आपातकाल में कांग्रेस की हार में उनका भी असर था और इसकी वजह नसबंदी थी जिसे शरिया में जगह नहीं है. हालांकि उसके बाद वो लंबे वक्त तक कांग्रेस के साथ ही नजर आते हैं.

1972 से 1977 के बीच प्रो एस नूरुल हसन जो केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री थे उनके जरिए भी एक और काम किया गया जो असल में विदेशी अशराफों के गैंग की ही योजना थी. जेएनयू की स्थापना की जाती है और वहां एक बड़े अभियान के तहत वामपंथी बैकग्राउंड के अकादमिक्स की नियुक्तियां होती हैं. यह वही दौर है जब देशभर की अन्य यूनिवर्सिटीज और शिक्षा कला से से जुड़े संस्थानों में सिर्फ वामपंथी योग्यता की वजह से नियुक्तियां की जाती हैं. इतिहास में फेरबदल शुरू होता है. पाठ्यक्रम बदले जाते हैं. खासकर उत्तर भारत में पूरी तरह से वह बदलाव दिखता है. कभी मौका मिले तो 1972 से पहले पढ़ने लिखने वालों से पूछ लेना चाहिए कि तब इतिहास आदि की किताबों में क्या-क्या पढ़ाया जाता था और चेक करना चाहिए कि नरुल हसन की कोशिशों के बाद में किन-किन पुरानी चीजों को हटा दिया गया. नरुल हसन के क्रांतिकारी काम का असर अभी तक कायम है.

शाहबानो मामले में क्या हुआ था, जानते नहीं ना?

1985 में राजीव गांधी की सरकार शाहबानो मामले में किसके आगे झुकी थी? असल में गैंग इतना ताकतवर हो चुका था कि सुप्रीम कोर्ट-संसद सब उसके आगे पंगु हो गए और राजीव गांधी को झुकना पड़ा. यह सिर्फ उन्हीं अशराफ अभिजात्यों का दबाव था, पसमांदा का नहीं. वह तो अभी दो दशक पहले तक एक आम भारतवंशी की तरह ही रह रहा था, बावजूद कि उसकी धार्मिक मान्यताएं इस्लामिक थीं. काफी हद तक अभी भी पसमांदा समाज दूसरे भारतीय समाजों की तरह रोटी-पानी के लिए ही जूझता दिख रहा है मगर पूरी तरह से अशराफों की गैंग का गुलाम बन चुका है. वोट पसमांदा का सत्ता की मलाई अशराफों के पास.

पसमांदा तो बस अशराफों के दिए शरिया पर वोट पैदा कर रहा है और उनका पेट भरने के लिए भी विवश है. फिलहाल के पाकिस्तान को एक बार जरूर देख लीजिए. 85 तक का वो दौर है जब केंद्र और राज्य सरकारें अपने लोगों की जान तक नहीं बचा पातीं. सिखों को नरसंहार की आग में झोक दिया जाता है और राजनीतिक संख्याबल के लिहाजा से अहम उत्तर के तमाम राज्य जातीय नरसंहारों की अंधी सुरंग में धकेल दिए जाते हैं. इन्हें लेकर बहुत सारे आरोप हैं. यह भी कि नाकामी छिपाने के लिए चीजें करवाई गईं. मगर समाज ने उसकी भारी कीमत चुकाई.

1986 में जब फैजाबाद में बाबरी के गेट खोलने का फैसला आया इसी पर्सनल लॉ गैंग ने तत्काल बैठक की. और बाबरी एक्शन कमेटी की स्थापना हुई. देशव्यापी आंदोलन की मुहिम चली. शाहबानो से इतने उत्साहित थे कि दिल्ली में प्रस्ताव पारित कर दिया गया. किसी कानून को नहीं मानेंगे. उस गुंडई की प्रतिक्रिया में अगले तीन दशकों में क्या कुछ हुआ बताने की जरूरत नहीं. यह उसी गुंडई, सरकारों की तुष्टिकरण नीति का नतीजा था कि राममंदिर आंदोलन को दबाने के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू की गईं. ताकि हिंदू बंट जाए. इससे पहले किसी को भी दलित पिछड़ों का ख्याल नहीं आया.

अशराफों की गुंडई ने देश को रेस में किस तरह का धावक बनाया

दलित पिछड़ों की आर्थिक सामजिक हालत सुधारने के प्रयास इसलिए नहीं किए जा रहे थे कि इससे भविष्य में धर्मांतरण की मुहिम पर प्रभाव ना पड़े. वरना तो समझ में नहीं आता कि यह व्यवस्था पहले क्यों नहीं की गई? इस मुद्दे पर कोई बात ही नहीं की जाती. बाबरी का ढांचा जब ढहा दिया गया था और सरकार की असफलता की वजह से देशभर में भारी दंगे हुए. निर्दोष लोगों को जानें गंवानी पड़ी. तब भी अशराफ लॉ बोर्ड की गुंडई में महज वोट पाने भर के लिए 1991 में वर्शिप एक्ट पास कर दिया गया.

ये कुछ बड़े उदाहरण भर हैं. अशराफों की राजनीति ने कितना असर डाला- बेशुमार चीजें हैं. असंख्य. लोगों ने सोचा तक नहीं होगा. अशराफों की गुंडई ने देश की हालत उस धावक के रूप में बना दी थी- जिसके पैरों में पांच किलो का पत्थर बंधकर उसे दौड़ने को कहा जाए. देश उसी तरह दौड़ रहा था. लोगों को क्या लगता है? भाजपा ने क्यों अलग राज्य क्यों बनवाए थे? लैंड जिहाद, धर्मांतरण और जनसांख्यिकीय दबाव को ख़त्म करने के लिए. अगर उत्तराखंड और झारखंड नहीं बने होते तो आज की तारीख में वहां पश्चिम उत्तर प्रदेश की डेमोग्रेफ़ी का असर साफ़ दिखता. कई जगह दिख भी रहा है. छत्तीसगढ़ नहीं बना होता तो आज की तारीख में वह मध्य-उत्तर भारत में सबसे बड़ा ईसाई राज्य बन चुका होता.

विदेशी अशराफों के गैंग ने देश को असल में पाकिस्तान बनाने के लिए जो अहम प्रस्ताव पास किए हैं, भारतीय समाज को उसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए. बहुत हुआ अब.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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