कर्नाटक में कांग्रेस की लिंगायत राजनीति बांटो और राज करो का तरीका है
वोट बैंक पॉलिटिक्स में शायद वोटरों का भी उपयोग किया जाता है. लेकिन फिर भी वर्तमान सरकार की तरफ से इस तरह के बांटो और राज करो की नीति का प्रयोग करना अप्रत्याशित है. लेकिन फिर भी साल दर साल, दशक दर दशक, हम इन पार्टियों के लिए वोट कर रहे हैं.
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लिंगायत, हिंदु, मुसलमान, या परिवर्तित हिंदु (जिसे घर वापसी भी कह सकते हैं)- ये सभी लगभग एक ही शब्द हैं. और जिस संदर्भ ये इनका इस्तेमाल होता है वो धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक है. 19 मार्च को कर्नाटक में सिद्दारमैया के कांग्रेस सरकार ने लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने की घोषणा की. साथ ही बासावन्ना का अनुसरण करने वाले वीरशैव गुट को इसी समुदाय में शामिल कर दिया. माना जा रहा है कि सरकार के इस कदम से राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों पर भारी प्रभाव पड़ेगा.
ब्रिटिश राज के 'बांटो और राज करो' की नीति को अब हमारे आज के राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की रणनीति के द्वारा बहुत अच्छे से समझा जा सकता है. क्या बासावन्ना ने किसी अलग धर्म या अलग पहचान की मांग की थी? नहीं. लेकिन नेता इसकी मांग करते रहते हैं. और विविधताओं से भरे हमारे देश में ऐसे कई रीति-रिवाज हैं जिनपर नेताओं की नजर है और लोगों को बांटने के लिए वो इसका इस्तेमाल अपने हिसाब से कभी भी कर सकते हैं.
सरकार द्वारा फूट डालो, शासन करो की राजनीति करना अप्रत्याशित है
हमारे राजनेताओं के लिए कोई भी विविधता बांटो और राज करो की रणनीति के लिए एक राजनीतिक अवसर होता है. एक पार्टी अगर हिंदुओं की हमायती है, तो दूसरी मुस्लिमों की, तीसरी ईसाईयों की, और अब शायद लिंगायतों की भी. दिक्कत ये है कि कोई भी पार्टी मानवता और विविधता की हिमायती नहीं दिखती. दिक्कत ये है कि जब दो समुदायों के बीच में दूरी आती है तो सबसे पहले उनकी विशिष्टता सामने आती है. फिर उस विशिष्ट पहचान का उपयोग अपनी श्रेष्ठता को साबित करने के लिए किया जाता है. अब भला किसी दूसरे को नीचा दिखाए बगैर आप श्रेष्ठ कैसे हो सकते हैं?
इसके बाद शुरु होता है उनके और हमारे बीच की बहस. सालों की मैत्री, आत्मीय संबंध, भाईचारा, सब एक वोट बैंक में बदल जाता है. दुखद ये है कि इसका खामियाजा बहुत से लोगों को भुगतना पड़ता है और सौहार्द की बात करने वाले लोगों की आवाज को दबा दिया जाता है. राजनीति संख्याओं का खेल है. जैसे ही कोई पार्टी वोट बैंक पॉलिटिक्स (अलगाव की राजनीति) में उतरती है, दूसरे भी नए समीकरणों के साथ विरोध में खड़े हो जाते हैं.
इस वोट बैंक पॉलिटिक्स में शायद वोटरों का भी उपयोग किया जाता है. लेकिन फिर भी वर्तमान सरकार की तरफ से इस तरह के बांटो और राज करो की नीति का प्रयोग करना अप्रत्याशित है. लेकिन फिर भी साल दर साल, दशक दर दशक, हम इन पार्टियों के लिए वोट कर रहे हैं. हमने केंद्र और राज्य दोनों जगह इन्हें वोट देकर सत्ता तक पहुंचाया है.
आखिर कितनी बार हमने, हमारे प्रतिनिधियों से एकीकरण की मांग की है? हमे ये नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक पार्टियां अपनी विचारधाराओं को भुनाने में इसलिए कामयाब होती हैं क्योंकि हम उनका समर्थन करते हैं. अगर हमारी मांगें बदलेगी तो उनके प्रस्ताव भी बदलेंगे. तब तक हम कट्टरपंथी राजनेताओं द्वारा विभाजित और शासित होते रहेंगे.
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