अपने अंतिम तुरुप के पत्ते के बाद अब कांग्रेस आगे क्या करेगी?
अमेरिकी रिपब्लिकन पार्टी में तो आउटसाइडर ट्रंप ने आकर चुनाव जीत लिया, लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अभी भी नेहरू-गांधी परिवारवाद से बाहर नहीं आई. क्या कांग्रेस के पास अब कोई तुरुप का इक्का बचा है?
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जैसे अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी को ग्रैंड ओल्ड पार्टी कहा जाता है वैसे ही भारत में कांग्रेस है. भारत की अपनी ग्रैंड ओल्ड पार्टी जिसका अस्तित्व 19वीं सदी से चला आ रहा है. लेकिन वो पार्टी जिसने ब्रिटेन से भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ी, उसका वजूद आज़ादी के बाद एक परिवार तक ही सीमित होकर रह गया जबकि रिपब्लिकन पार्टी एक सफल लोकतंत्र की भावना का प्रतिनिधित्व करती है. जहाँ, एक आउटसाइडर डोनाल्ड ट्रम्प,जिसका रिपब्लिकन पार्टी में पुरजोर विरोध होता है, आकर अपना दावा पेश करता है और चुनाव जीत भी जाता है, वो भी पूरे लोकतान्त्रिक तरीके से.
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ट्रम्प को आउटसाइडर इसलिए कहा जाता है क्योंकि वो अमेरिका के पहले राष्ट्रपति होंगे जो सैन्य या सरकारी सेवाओं से नहीं होंगे. इसके अलावा उनकी ख्याति एक विवादास्पद अरबपति उद्योगपति की रही है जो विलासितापूर्ण जीवन-पद्धति को परिभाषित करता है.
सोनिया और राहुल गांधी- फाइल फोटो |
क्या ऐसा कोई आउटसाइडर भारत में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर सकता है और भारत की ग्रैंड ओल्ड पार्टी को उसके अस्तित्व के संकट से उबार सकता है? हो सकता है - अगर उसे मौका दिया जाए! लेकिन ऐसा होगा नहीं. कांग्रेस ने आज़ादी के बाद से ही नेहरू-गाँधी परिवार के आगे कुछ देखा नहीं जबकि एक लोकतंत्र में राजनितिक परिवारवाद उस लोकतंत्र के खड़ा होने से पहले ही लड़खड़ा जाने की निशानी है.
जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी तक तो कांग्रेस को ऐसा नेतृत्व मिला कि रास्ता कटता गया. राष्ट्रीय स्तर पर संगठित या किसी बड़े विपक्षी दल की कमी का भी इसमें योगदान रहा. लेकिन 90 का दशक आते आते परिस्थितियां बदल चुकी थीं.
राजीव और इंदिरा गांधी- फाइल फोटो |
बीजेपी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभर रही थी और देश भर में क्षेत्रीय पार्टियों का बोलबाला होना शुरू हो गया था. कांग्रेस में राजीव गाँधी के असामयिक निधन और सोनिया गाँधी के इंकार के बाद नेहरू-गाँधी परिवार से कोई ऐसा नहीं था जो इसका मुक़ाबला कर सके. बस यही एक छोटा सा दौर था जब लगा के कांग्रेस नेहरू-गाँधी परिवार के साए से बाहर आ सकती थी. पीवी नरसिम्हा राव 1991 से 1996 तक देश के प्रधानमंत्री बने रहे और उन्ही के समय में देश आर्थिक सुधारों के पथ पर अग्रसर हुआ, लेकिन ये दौर भी तब ख़त्म हो गया जब सोनिया गाँधी ने 1997 में राजनीति में प्रवेश किया, 1998 में कांग्रेस की अध्यक्ष चुन ली गई और पार्टी के आउटसाइडर अध्यक्ष सीताराम केसरी को असम्मानजनक तरीके से बाहर कर दिया गया.
यहाँ ये ध्यान देने की बात है कि राजीव गाँधी के बाद सोनिया गाँधी ही पार्टी की पहली उम्मीद थीं और जैसे ही वो तैयार हुईं कांग्रेस फिर से नेहरू-गाँधी परिवार की पार्टी बन गई. आउटसाइडर तभी तक थे जब तक कि परिवार से कोई सामने नहीं आया था और किसी न किसी स्तर पर 1991 से 1997 तक कांग्रेस में सोनिया की मांग उठती रही. सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2004 का चुनाव जीता और 10 सालों तक देश में कांग्रेस के नेतृत्व में 2014 तक गठबंधन सरकार बनी रही. सोनिया गाँधी के इटली के होने को लेकर सवाल भी उठे और सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार भी कर दिया, लेकिन सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होते हुए भी सोनिया गाँधी और नेहरू-गाँधी परिवार ही सत्ता का मुख्य-केंद्र था. तो इस तरह से सोनिया कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता साबित हुईं जिसकी छाया में कांग्रेसियों को सत्ता-सुख मिलता रहा.
ये भी पढ़ें- मायावती के लिए बड़ी चुनौती होगा कांग्रेस का फॉर्मूला-84 कांग्रेसियों ने सोनिया गाँधी के बाद, जैसा कि कांग्रेस में होता आया था, अपना अगला तुरुप का पत्ता उनकी संतानों में खोजना शुरू किया. राहुल गाँधी का देश और पार्टी की राजनीति में प्रवेश हुआ और प्रियंका गाँधी की भी मांग उठती रही. राहुल गाँधी एक तरह से कांगेस के अघोषित अध्यक्ष ही हैं और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होते हुए भी सार्वजनिक मंचों से उनके आदेशों की धज्जियाँ उड़ा चुके हैं जैसा कि हम सभी ने मनमोहन सरकार द्वारा दागी सांसदों को बचाने वाले अध्यादेश के मामले में देखा.
सोनिया गांधी |
लेकिन राहुल कांग्रेस के लिए अभी तक तुरुप का पत्ता नहीं साबित हो पाए हैं. कांग्रेस कई राज्यों में चुनाव हार चुकी है जहाँ राहुल ने अपना पूरा दम-ख़म लगाया था और 2014 के लोकसभा चुनावों ने तो इसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. कांग्रेस अपने राजनीतिक अस्तित्व के अपने सबसे कम, 44 लोकसभा सांसदों, पर सिमट गई है और आगे का रास्ता काफी मुश्किल भरा दिखाई देता है. इसी कारण कांग्रेस में प्रियंका-प्रियंका की रट को फिर से हवा दे दी गई है. चाटुकार चालीसाएं पढ़ रहे हैं. जगह-जगह पोस्टर लगाए जा रहे हैं और मांग की जा रही है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव, जो देश के अगले सबसे महत्वपूर्ण चुनाव हैं, के अभियान की कमान प्रियंका गाँधी को दे दी जाए.
प्रियंका और राहुल गांधी |
अब प्रियंका गाँधी तैयार भी हो गई हैं. यद्यपि प्रियंका अभियान का नेतृत्व नहीं करेंगी लेकिन वो कांग्रेस और अपने भाई राहुल के लिए चुनाव अभियान में सक्रीय भाग लेंगी. लेकिन प्रियंका गाँधी कांग्रेस के लिए नेहरू-गाँधी परिवार में तुरुप का पत्ता खोजने का अंतिम मौका साबित हो सकती हैं. चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में यूपी में कांग्रेस हाशिए पर दिखाई देती है. पिछले महीने इंडिया टुडे-एक्सिस ओपनियन पोल में कांग्रेस सिर्फ 8-12 सीटें पा सकी और प्रियंका गाँधी इसमें सुधार कर पाएंगी इसमें संदेह है. अगर ओपिनियन पोल्स के नतीजे सही साबित होते हैं तो यूपी चुनाव के बाद हम कांग्रेसी हलकों में प्रियंका गाँधी के बारे में भी वैसी ही आलोचना सुन सकते हैं जो हमें राहुल के बारे में सुनाई देती है. प्रियंका-राहुल के बाद नेहरू-गाँधी परिवार से कोई ऐसा है भी नहीं जिसकी ओर कांग्रेसी टकटकी लगाकर देख सकेंगे.
कहा भी जाता है की बंद हो तो मुट्ठी लाख की और खुली तो प्यारे ख़ाक की.
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