चुनाव हारने के बाद कांग्रेस भी गंवाते दिख रहे राहुल गांधी, बगावत शुरू!
असम में कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर राजनीति करने वाले बदरुद्दीन से हाथ मिला लिया. पश्चिम बंगाल में भी पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की मदद ली. जिस वाम के साथ कांग्रेस ने जीवन भर संघर्ष किया उससे भी हाथ मिला लिया. लेकिन मिला कुछ भी नहीं.
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पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी की राजनीति एक बार फिर कसौटी पर है. की कांग्रेस बदहाल अवस्था को किसी भी बहाने से छिपाना नामुमकीन है. स्वाभाविक रूप से पार्टी के अंदर अब राहुल के लिए चुनौतियां बड़ा रूप ले रही हैं. नतीजों के ठीक बाद यह दिखने भी लगा है. पहले से ही असंतुष्ट नेताओं की मजबूत लॉबी मोर्चे पर है. इसमें नए नाम जुड़ते दिख रहे हैं. बंगाल में मोदी को हराने के लिए ममता बनर्जी की तारीफ़ के बहाने कई नेताओं ने को राहुल का तरीका पसंद नहीं आया.
I’m happy to congratulate Mamata ji and the people of West Bengal for soundly defeating the BJP.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) May 2, 2021
तेजतर्रार प्रवक्ता रागिनी नायक ने तो नाम लिए बिना सीधे सीधे सवाल ही पूछ लिया जो वाजिब हैं. रागिनी नायक ने इमोजी के साथ सोशल मीडिया पर पूछा (राहुल से ही)- 'यदि हम (कांग्रेसी) मोदी की हार में ही अपनी खुशी ढूंढते रहेंगे, तो अपनी हार पर आत्म-मंथन कैसे करेंगे.'
पिछले साल जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद सचिन पायलट भी नेतृत्व को लेकर अंदर की खींचतान से उपजे हालात में बगावत पर आ गा थे, तब संजय झा ने भी पार्टी फोरम से अलग शीर्ष नेताओं से सवाल पूछा था- "पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया. अब सचिन पायलट. अगला कौन? देखते रहिए."
कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता रहे संजय झा की प्रतिक्रया के तुरंत बाद उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया गया. रागिनी नायक ने भी सीधे तौर पर पार्टी फोरम से अलग राहुल के नेतृत्व और राजनीति पर सवाल कर खुली चुनौती पेश की है. उनके साथ क्या होगा भविष्य की बात है मगर इससे एक चीज साफ दिख रही है- "कांग्रेस में मजबूत बागी धड़े का विस्तार हो रहा है. जो यह मान चुका है कि राहुल में वो क्षमता ही नहीं कि कांग्रेस को उसकी पुरानी अवस्था तक पहुंचा पाए."
यह बहस और मजबूत होगी. दरअसल पश्चिम बंगाल, असम, पुद्दुचेरी और केरल में पार्टी को बुरी हार का सामना करना पड़ा. तमिलनाडु में गठबंधन जीता जरूर पर ड्राइविंग सीट पर एमके स्टालिन और द्रविण मुनेत्र कड़गम रहा. नतीजों में राहुल की उम्मीद के मुताबिक़ कुछ भी नहीं हुआ. हालांकि नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में सीएए, एनआरसी, जम्मू-कश्मीर में धारा 370 का खात्मा, भाजपा विरोधी (हरियाणा अपवाद) राज्यों में किसान आंदोलन का असर और कोरोना महामारी के बाद बुरी तरह बदहाल हुई अर्थव्यवस्था में गांधी परिवार के वफादारों ने राहुल गांधी को केंद्र में रखकर बहुत सारे ख्वाब बुने. इसमें एक बार फिर से पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनकी ताजपोशी भी थी.
विधानसभा चुनाव से पहले बैकफुट पर आ गया था राहुल का विरोधी धड़, मगर...
कोरोना के बाद पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से राजनीतिक बदलाव हुए और बिहार, बंगाल और तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टियां ताकतवर नजर आने लगीं, वरिष्ठ कांग्रेसियों का विरोधी धड़ा (इसे जी 23 कहा जा रहा) थोड़ा बैकफुट पर था. विरोधी धड़े के कमजोर पड़ने की वजह से ही गांधी परिवार के वफादारों ने पार्टी में राहुल की ताजपोशी के लिए माहौल बनाना शुरू कर दिया था. वक्त संभवत: विधानसभा चुनाव का तय किया गया था. तमिलनाडु, असम, केरल की सफलता के बहाने राहुल की नेतृत्व क्षमता के 'भ्रम' को खड़ाकर उनकी ताजपोशी की जाती और विरोधियों का सफाया.
मगर नतीजों में राहुल गांधी-प्रियंका गांधी वाड्रा का असर इतना फींका रहा कि अब जी 23 नेताओं को हमले के कई बहाने और नए साथी मिल सकते हैं. राहुल की ताजपोशी लंबे समय के लिए टल सकती है. बावजूद अगर वफादारों का धड़ा ताजपोशी पर अड़ा रहा तो कांग्रेस में बड़े बगावती संकट को टालना लगभग असंभव है. राहुल गांधी के तौर तरीकों को लेकर विरोधी धड़ा 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से ही सक्रिय है. हालांकि ये कई हफ़्तों तक बंद दरवाजों के पीछे थी.
मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट की बगावत के साथ सतह पर आ गई. दो धड़े एक-दूसरे के आमने-सामने थे. वफादारों का धड़ा भी वक्त के साथ-साथ नए बदलाव की बात कर रहा है लेकिन उसका केंद्रीय बिंदु गांधी परिवार ही बना हुआ है. जबकि वरिष्ठों का धड़ा जिस बदलाव पर अड़ता दिख रहा है उसकी केंद्रीय तस्वीर में राहुल गांधी हैं ही नहीं.
कांग्रेसियों के लिए भी समझ से परे है राहुल गांधी की ये राजनीति
विरोधी धड़ा राहुल की राजनीति पर सवाल उनके फैसलों की वजह से भी कर रहा है. गठबंधन के लिए कांग्रेस ने हाल फिलहाल जिस तरह का राजनीतिक समझौता किया पार्टी के कई नेताओं को समझ नहीं आ रहा. विश्लेषकों भी हैरान हुए. जैसे असम में कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर राजनीति करने वाले बदरुद्दीन से हाथ मिला लिया. पश्चिम बंगाल में भी पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की मदद ली. जिस वाम के साथ कांग्रेस ने जीवन भर संघर्ष किया उससे भी हाथ मिला लिया. इससे पार्टी समर्थकों में भी एक तरह से भ्रम है. अब भला ये कैसे संभव है कि वाम के साथ बिहार, असम और पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ रहे हैं और केरल में उसी का विरोध कर रहे हैं. उस पर भी नतीजों में (पश्चिम बंगाल के) शून्य हासिल हो रहा है.
स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस से जुड़े दो बड़े सवाल भविष्य की गर्त में हैं. एक- क्या कांग्रेस टूट का शिकार होगी. दूसरा- कांग्रेस टूटने से बच जाएगी तो राहुल गांधी की स्थिति पार्टी में क्या होगी?
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