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Updated: 07 जनवरी, 2016 03:32 PM
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रिहाई के तत्काल बाद रुबिया सईद ने अलगाववादियों की मेहमानवाजी की खूब तारीफ की थी. मुफ्ती मोहम्मद सईद के गृह मंत्री रहते ही उनकी बेटी रुबिया को रिहा करने के बदले केंद्र सरकार को पांच अलगाववादियों को छोड़ना पड़ा था. बाद में, हालांकि, चर्चा ये भी रही कि अपहरण के इस नाटक के सूत्रधार कोई और नहीं बल्कि खुद देश के पहले मुस्लिम होम मिनिस्टर मुफ्ती ही रहे.

करीब 25 साल बाद मुफ्ती ने जब दोबारा जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली तो सबसे पहले घाटी के अलगाववादियों, हुर्रियत और पाकिस्तान का शुक्रिया अदा किया. मुफ्ती का कहना था कि उन्हीं की बदौलत सूबे में शांतिपूर्ण चुनाव हो पाया. विवाद होने पर भी मुफ्ती ने दोहराया, ''जो मैंने कहा, मैं उस पर कायम हूं.''

सियासत के माहिर मुफ्ती

मुफ्ती के समर्थकों और विरोधियों की लंबी फेहरिस्त है. राज्य के कई पुराने कांग्रेसी अब भी मानते हैं कि जम्मू कश्मीर में कांग्रेस जितनी भी है उसे खड़ा करने वाले मुफ्ती ही हैं. अपनी हीलिंग टच पॉलिसी के लिए जाने जाने वाले मुफ्ती की राजनीति एक तरह से नरम अलगाववाद के रूप में जानी जाती रही. कश्मीर समस्या के समाधान में मुफ्ती हमेशा पाकिस्तान को भी शामिल करने के पक्षधर रहे तो दूसरी तरफ घाटी में उन्हें केंद्र के आदमी के तौर पर देखा गया. जो भी हो, मुफ्ती भारत समर्थक एक ऐसे कश्मीरी के तौर पर जाने जाएंगे जिन्होंने ताउम्र कश्मीर की अलग-थलग पड़ी जनता को भारत की मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश की.

शासन भले ही बदलते रहे हों, मुफ्ती की राजनीतिक निष्ठा भी भले ही बदलती रही हो, मगर हमेशा वो केंद्र सरकार के सबसे विश्वस्त नेता रहे बने रहे. गृह मंत्री राजनाथ सिंह का ये बयान इस कड़ी में काफी अहम है, ''मुफ्ती मोहमम्द सईद को जम्मू कश्मीर से जुड़े जटिल मुद्दों की गहरी समझ थी. वो घाटी में शांति लाना चाहते थे.''

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सियासत की नई बयार...

मुफ्ती ने खुद को राजनीति के एक ऐसे सांचे में फिट किया जो केंद्र की सत्ता में काबिज नेताओं की हमेशा जरूरत रही. अगर इंदिरा गांधी की शह पर मुफ्ती शेख अब्दुल्ला को टक्कर देने लगे तो 1999 में पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के गठन के पीछे भी खुफिया एजेंसियों का रोल नकारा नहीं गया.

1 मार्च 2015 को जब मुफ्ती ने जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली उससे पहले बीजेपी और पीडीपी के बीच गठबंधन कई बार नामुमकिन सा लगने लगा था. सियासी विचारधारा के दो ध्रुवों का कुछ मसलों पर एक मत होना 2015 की बड़ी घटना थी. ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पीडीपी नेता पर भरोसे और मुफ्ती की सूझबूझ का ही नतीजा रहा जो जम्मू-कश्मीर में मौजूदा गठबंधन बना भी और अब तक कायम है. इस तरह मुफ्ती ने साबित किया कि मुफ्ती का एक मतलब मुमकिन भी होता है.

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एक सियीसी झप्पी तो बनती है जी...

वाकई मुफ्ती सियासत की नब्ज खोज कर पकड़ने, जैसे भी मिले - मौके को लपकने और दस्तूर को भुनाने में पूरी तरह माहिर थे.

महबूबा का इम्तिहान

विरासत तो हर वारिस को हासिल हो ही जाती है, उसे संभालना और कायम रखते हुए उसे आगे ले जाना बड़ा मुश्किल होता है. महबूबा मुफ्ती पर भी यही बात लागू होती है. महबूबा ने सियासत का पहला सबक मुफ्ती से ही सीखा. बीजेपी और पीडीपी के मौजूदा गठबंधन को गढ़ने से लेकर उसे अंजाम देने और अब तक कायम रखने में भी महबूबा की कम भूमिका कहीं से भी कम नहीं रही.

मुफ्ती के सत्ता संभालने के बाद भी चर्चा चलती रही कि मुफ्ती तो कुर्सी पर बैठे भर हैं, सरकार तो महबूबा ही चलाती हैं. इस चर्चा की हकीकत का पता उस दिन चला जब एक कार्यक्रम में खुद मुफ्ती ने कह दिया कि असल में काम तो महबूबा ही करती हैं वो तो सिर्फ भाषण देते हैं.

ऐसा नहीं था कि राजनीति में ऐसा पहली बार हो रहा था, पंचायत स्तर से लेकर केंद्र सरकार के संचालन में अक्सर रिमोट कंट्रोल की बातें उठती रहती हैं. व्यक्ति बदल जाते हैं परिस्थितियां वैसी ही बनी रहती हैं. लेकिन किसी दूसरे और मजबूत कंधे पर रख कर बंदूक चलाने और खुद फायर करने में बड़ा फर्क होता है.

महबूबा को अभी कड़े इम्तिहान से गुजरना होगा - क्योंकि उनके सामने कई चुनौतियां साफ नजर आ रही हैं.

महबूबा की चुनौतियां

बहन रुबिया और पिता मुफ्ती ने तो अलगाववादियों को शुक्रिया भर अदा किया था, महबूबा तो उनके प्रति हमदर्दी और उनसे करीबियों के लिए जानी जाती हैं. अपने बयानों और एक्शन को लेकर महबूबा अक्सर विवादों में रही हैं. चाहे पीडीपी द्वारा जारी कश्मीर के नक्शे की बात हो, कश्मीरी पंडितों के मामले हों या फिर अमरनाथ यात्रा उनका रवैया विरोधी ही रहता है.

मुफ्ती के रहते ही अगर महबूबा की ताजपोशी हो गई होती तो अलग बात होती. मिलजुल कर चुनौतियों को सुलझाना वैसे भी ज्यादा आसान होता है. महबूबा के सामने बीजेपी के साथ साथ गठबंधन में सहयोगी सज्जाद लोन के साथ भी राजनीतिक रिश्ता कायम रखना कोई छोटी चुनौती नहीं है. बाहरी दुनिया से ज्यादा मुश्किल होता है अंदरूनी मुश्किलों से दो चार होना - क्योंकि पार्टी के दो सांसद और कद्दावर नेता मुजफ्फर हुसैन बेग और तारीक हमीद कर्रा खुलेआम दो दो हाथ करने को तैयार नजर आ रहे हैं. महबूबा के सामने चुनौतियों में सबसे बड़ी शायद यही है.

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