राहुल-सोनिया का फैसला लेने का तरीका भारी पड़ रहा है पूरी विपक्ष को.
अगर विपक्ष ने मीरा कुमार का नाम एनडीए से पहले ही घोषणा कर दी होती तो भी क्या यही हाल होता? शायद नहीं. विपक्ष में भी ज्यादातर नेता इसी बात से इत्तेफाक रखते हैं.
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मोदी सरकार के दलित कार्ड के बाद विपक्षी खेमे में ये बात शिद्दत से महसूस की जा रही है कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार पर फैसले में देर भारी चूक रही. राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार तय करने को लेकर अगुवाई कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कर रही हैं इसलिए तोहमत उन्हीं के मत्थे मढ़ा जाएगा...
हाल के दिनों में कांग्रेस के सामने ऐसे कई मौके आये हैं जिसमें फैसले में देर पार्टी पर बहुत भारी पड़ा है. मामला चाहे राज्यों में सरकार बनाने का हो या फिर राहुल की ताजपोशी का कांग्रेस का हर निर्णय ऐसे लग रहा है जैसे - एक रुका हुआ फैसला.
चुनाव के वक्त
विपक्षी खेमे में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर जिस भी नाम पर चर्चा हुई उनमें कोई भी एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद से उन्नीस नहीं था, ज्यादातर तो बीस ही माने जा सकते हैं. जब बीजेपी नेताओं की टीम विपक्ष के पास पहुंची तब भी नेता इसी बात पर अड़े रहे कि पहले एनडीए अपने कैंडिडेट का नाम बताये. मोदी की टीम ने आखिर तक सस्पेंस बनाये रखा और जब रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा की तो जैस सबको सांप ही सूंघ गया. जिस शिवसेना से विपक्ष उम्मीद लगाये बैठा था वो पहले ही पलट गयी. मायावती ने भी बड़ी मुश्किल से अपनी बात रखी - और नीतीश कुमार तो साफ गच्चा दे गये. फिर भी लालू नाउम्मीद नहीं हैं, उनका कहना है कि बिहार की बेटी के पक्ष में खड़े होने के लिए वो नीतीश को समझाने की कोशिश करेंगे.
मीरा बनाम राम
अगर विपक्ष ने मीरा कुमार का नाम एनडीए से पहले ही घोषणा कर दी होती तो भी क्या यही हाल होता? शायद नहीं. विपक्ष में भी ज्यादातर नेता इसी बात से इत्तेफाक रखते हैं.
सरकार बनाते समय
पंजाब में सत्ता परिवर्तन में दिल्ली की भूमिका न के बराबर रही. इसमें कुछ तो खुद बादल सरकार के प्रति एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर की भूमिका रही, बाकी रोल खुद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने तय किया. प्रशांत किशोर को भी चुनाव प्रचार के लिए पहले कैप्टन ने फाइनल किया, उसके काफी बाद यूपी में भी पीके एक्टिव हो पाये.
चुनाव जीत कर सीएम बन जाने के बाद भी कैप्टन को इस बात का मलाल रहा कि राहुल गांधी समय रहते कांग्रेस के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के नाम का ऐलान कर देते तो नतीजे और बेहतर हो सकते थे.
एनडीए का दलित कार्ड
पंजाब के साथ ही गोवा और मणिपुर में भी चुनाव हुए थे. 40 सदस्यों वाली गोवा विधानसभा में बीजेपी को 13 सीटें मिल पाई थीं जबकि कांग्रेस के खाते में 17 सीटें आईं. गोवा में जो काम बीजेपी ने किया, कांग्रेस तो सालों-साल उस दांवपेंच की माहिर खिलाड़ी रही है, दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गज के होते हुए भी इतनी बड़ी चूक हुई तो. बाद में सब एक दूसरे को कोसते रहे. 14 मार्च को अपने 13 विधायकों और अन्य विधायकों के साथ मनोहर पर्रिकर ने बहुमत साबित किया. मालूम हुआ कांग्रेस विधायक विश्वजीत राणे मतदान के वक्त गायब रहे.
मणिपुर में भी नतीजे गोवा जैसे ही रहे. कांग्रेस को 28 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि 60 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी 21 सीटें ही जीत पायी थी. ओकराम इबोबी सिंह बहुमत साबित करने का दावा करते रहे, लेकिन दिल्ली से उन्हें पर्याप्त सपोर्ट नहीं मिला. राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला का कहना था कि जिन दो सदस्यों के समर्थन की चिट्ठी कांग्रेस ने दी वे दोनों बीजेपी नेताओं के साथ उनसे पहले ही मिल चुके थे. हेपतुल्ला ने दोनों को लेकर आने को कहा था. यानी उन दोनों ने चिट्ठी तो दोनों पार्टियों को दे दी, लेकिन समर्थन देने उसके साथ पहुंचे जिसने तत्परता दिखायी. राजनीति की भाषा में इसे कुछ और भी कहा या समझा जा सकता है.
आगे भी चालू आहे
गुजरात और हिमाचल में लगभग एक ही साथ विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. हिमाचल की बात अलग हो सकती है, लेकिन गुजरात में वाघेला को भी समझ नहीं आ रहा कि किधर जायें. वाघेला अगर छुट्टी पर जाते हैं तो चर्चा होने लगती है कि वो बीजेपी खेमे में जा रहे हैं. फिर वो दिल्ली आते हैं आलाकमान से मिलते हैं - सफाई पर सफाई देते हैं लेकिन मामला टस से मस नहीं हो रहा.
गुजरात में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने के लिए कुछ वरिष्ठ नेताओं की ओर से कोशिशें हुईं तो उनके विरोधियों ने ऐसा पेंच लगाया कि बात जहां थी वहीं ठहर गयी. कहा गया कि गुजरात को लेकर कोई भी फैसला दिल्ली से लिया जाएगा, भला अहमदाबाद से क्यों? नेताओं की गुटबाजी के चक्कर में गुरुदास कामत को हटाकर अशोक गहलोत को प्रभारी बनाया गया.
घातक भी होता है फैसले न लेने का फैसला
गुजरात कांग्रेस के सीनियर नेता शंकरसिंह वाघेला ने महीनों पहले चुनाव तैयारियों को लेकर खूब माथापच्ची की. एक प्रस्ताव तैयार किया कि पंजाब में कांग्रेस को सत्ता में वापसी कराने में मददगार रहे प्रशांत किशोर की सेवाएं गुजरात में भी ली जायें. फिर तय हुआ आखिरी फैसला कांग्रेस आलाकमान ही लेगा - जो अब तक लटका ही हुआ है. राजनीतिक हलकों में बापू के नाम से लोकप्रिय 74 साल के वाघेला ने थक हार कर आलाकमान को 24 जून तक का अल्टीमेटम दिया हुआ है - वरना, वो खुद फैसला लेंगे.
बाकी बातें छोड़ भी दें तो राहुल की ताजपोशी तो ऐसा रुका हुआ फैसला है कि फिर से पूरी एक फिल्म ही बन जाये. माना जाता है कि खुद राहुल गांधी ही इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं - क्योंकि इस बारे में आखिरी फैसला उन्हें ही लेना है. आलम ये है कि तबीयत पूरी तरह दुरूस्त न होने के बावजूद सोनिया को फिर से कमान संभालनी पड़ी है. करें भी तो क्या? बेटे को नानी के घर भी तो इसी मौके पर जाना था. पीवी नरसिम्हाराव कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री रहे जिनकी चर्चित थ्योरी रही - कोई फैसला न लेना भी एक फैसला ही होता है. कई बार ये बड़े बवाल टाल जरूर देता है, लेकिन अक्सर घातक ही साबित होता है.
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