Delhi Riots: दंगों के बाद कुछ सवाल आए हैं जिनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए!
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध (Anti CAA Protest) में जिस तरह हिंसा (Delhi Violence) ने दंगों (Delhi Riots) का रूप लिया सवाल दिल्ली पुलिस (Delhi Police) पर तो हैं ही साथ ही सवालों के घेरे में जिला प्रशासन, केंद्र सरकार और राज्य के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) हैं.
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नागरिकता कानून के विरोध (Anti CAA Protest) में हुई हिंसा (Delhi Violence) के बाद उत्तर पूर्वी दिल्ली धूं-धूं कर जल उठी. मौजपुर, जाफराबाद, सीलमपुर, गौतमपुरी, भजनपुरा, चांद बाग, मुस्तफाबाद, वजीराबाद, खजूरी खास और शिव विहार में हालात बद से बदतर हुए जो जबरदस्त दंगों (Delhi Riots) में परिवर्तित हुए जिनमें करीब 42 लोगों की मौत हुई और तकरीबन 350 लोग घायल हुए. दिल्ली में विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Election) के फ़ौरन बाद हुए इन दंगों (Riots) में जहां एक तरफ दोषी दिल्ली पुलिस (Delhi Police) और केंद्र सरकार (Central Government) को माना जा रहा है तो वहीं जिला प्रशासन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) भी सवालों के घेरे में हैं. माना जा रहा है कि दंगे एक बहुत बड़ी प्रशासनिक चूक का परिणाम हैं और अगर वक़्त रहते सबने अपनी जिम्मेदारी तय कर ली होती तो आज स्थिति दूसरी होती.
अब जबकि पूरा देश दिल्ली में कानून व्यवस्था के अलावा भाईचारे को ध्वस्त होते देख चुका है तो तमाम सवाल हैं जो जस के तस खड़े हैं और जिनका जवाब दिल्ली पुलिस, राज्य सरकार और केन्द्रता सरकार को देना होगा और बताना होगा कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां थीं जिनको देखते हुए वक़्त रहते एक्शन नहीं लिया गया और जिसके परिणामस्वरूप पूरे देश ने दिल्ली को तबाह होते देखा.
दिल्ली दंगों के बाद सबसे ज्यादा सवाल दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली को लेकर खड़े हो रहे हैं
आइये नजर डालते हैं उन सवालों पर जो दिल्ली दंगों के बाद देश की सरकार के सामने बने हुए हैं और आशा यही की जा रही है कि आज नहीं तो कल जवाब जरूर मिलेंगे.
इस बात पर ध्यान दिए बिना कि दिल्ली में ये दंगे स्वतःस्फूर्त या फिर एक करवाए गए थे, दिल्ली पुलिस ने सांप्रदायिक दंगों के पूर्व-त्वरित कार्रवाई क्यों नहीं की?
दिल्ली पुलिस ने नफ़रत फैलाने वालों को हिरासत में क्यों नहीं लिया, संभावित सांप्रदायिक गड़बड़ी के बारे में अलर्ट था तो इनकी नजरबंदी क्यों नहीं की गई ?
दिल्ली पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में देरी क्यों की?
उच्च न्यायालय में जो तर्क पुलिस और केंद्र सरकार की तरफ से पेश किये गए हैं उनमें कहा गया है कि नफ़रत फैलाने वाले भाषणों के संबंध में एफआईआर दर्ज करने का समय अनुकूल नहीं था. कौन सा कानून एफआईआर दर्ज करने के लिए 'अनुकूल' समय निर्धारित करता है?
एफआईआर जांच का आधार है. कई निर्णयों में, अदालतों ने माना है कि पुलिस एफआईआर दर्ज करने में देरी नहीं कर सकती है. पुलिस बुधवार को अचानक कार्रवाई में जुट गई. एक समाचार पत्र ने एक पुलिस अधिकारी के हवाले से कहा, 'पुलिस के मानक में बदलाव लाया गया.'
इससे पता चलता है कि जमीन पर मौजूद दिल्ली पुलिस के कर्मियों के पास दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने के आदेश नहीं थ. सवाल यह है कि क्या दिल्ली पुलिस के कर्मियों को नियमित पुलिसिंग कार्य करने के लिए ऊपर से आदेशों का इंतजार करना पड़ता है?
और उस ऊपर से आर्डर देता कौन है?
दिल्ली पुलिस अमित शाह की अध्यक्षता में केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करती है. दिल्ली पुलिस में यह 'ऊपर' आखिर कहां जाकर रुकता है?
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने स्थिति प्रभावित क्षेत्रों का जायजा लिया था. उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ और ग्राउंड पर आकर पुलिस कर्मियों के साथ बैठकें कीं थी। उन्होंने आधी रात को दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया और साथ ही उन्होंने दंगा पीड़ितों को आश्वासन दिया था कि पुलिस अपना काम करेगी. इतनी चीजों के बावजूद दंगा हुआ.
दिलचस्प बात ये है कि जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल ने किया वो किसी दिल्ली पुलिस के किसी एसएचओ का काम था. सवाल ये है कि रविवार को दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने उस वक़्त कोई फ्लैग मार्च क्यों नहीं किया? जिस समय झड़पें हो रही थी. बाद में सोमवार को यही छोटी छोटी झड़पें दंगों में परिवर्तित हुईं? पुलिस की इस लाचार कार्यप्रणाली के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?
किसी भी तरह के दंगों से निपटने में पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. पर इसका ये मतलब बिलकुल नहीं है कि जिला प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे. दिल्ली में पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है. जिला प्रशासन दिल्ली सरकार के अधीन है. जिलाधिकारी और जिला प्रशासन दोनों के पास दंगा रोकने के तमाम उपकरण मौजूद रहते हैं.
गौरतलब है कि दंगे की स्थिति में जिले के जिलाधिकारी के पास ये अधिकार होते हैं कि वो दंगा प्रभावित क्षेत्रों में सेना बुला सकता है. अगर पुलिस दंगे को काबू करने में नाकाम थी तो आखिर क्यों जिला प्रशासन ने पहल नहीं कि? आखिर क्यों इन्होंने सरकार को ये चिट्ठी नहीं लिखी कि दंगा प्रभावित क्षेत्रों में तत्काल प्रभाव में सेना को भेजा जाए?
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने इसी महीने दिल्ली चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल किया है. आदम आदमी पार्टी के पास सीएम अरविंद केजरीवाल समेत 62 विधायक हैं. उनकी पार्टी के सदस्यों ने सांप्रदायिक दंगों के लिए कपिल मिश्रा को दोषी ठहराया. कपिल मिश्रा दंगा प्रभावित क्षेत्रों में से एक, करावल नगर से पूर्व विधायक हैं. यदि कोई पूर्व-विधायक इलाके में इतना ज्यादा प्रभाव रखता है, तो जीतने वाले विधायक को और अधिक प्रभावशाली होना चाहिए, खासकर तब जब चुनावी जीत को अभी केवल दो सप्ताह ही हुए हैं.
क्या और किसने AAP विधायकों को लोगों तक पहुंचने से रोका. ताकि कपिल मिश्रा के उस भड़काऊ बयान के बाद जो उन्होंने दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में दिया था उसके चलते ख़राब हुई स्थिति को नियंत्रित किया जा सके.
और अंत में, जब सिविल और पुलिस प्रशासन दिल्ली के लोगों को दंगाइयों के गिरोह से बचाने में विफल रहा, तो न्यायपालिका ने अपने कान खड़े कर दिए. लेकिन दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार पर भारी पड़ने वाले जज का उसी रात तबादला क्यों कर दिया गया?
यह सच है कि उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम ने 12 फरवरी को दिल्ली उच्च न्यायालय से न्यायमूर्ति एस मुरलीधर के स्थानांतरण की सिफारिश की थी, लेकिन उनके स्थानांतरण आदेश का समय उस समय में संदेह पैदा करता है जब राज्य एजेंसियों की विश्वसनीयता एक गंभीर संकट का सामना कर रही है.
संदेह तब और गहराता है जब अगली बेंच पुलिस के इस तर्क से सहमत होती है कि एफआईआर दर्ज करने के लिए समय अनुकूल नहीं था और दिल्ली पुलिस को नफरत फैलाने वाले भाषणों में एफआईआर दर्ज करने के लिए चार सप्ताह का समय देती है, बता दें कि मामले की अगली सुनवाई के लिए छह हफ्ते से ज्यादा का समय लिया गया है.
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