स्मार्ट कौन ? सरकार या मच्छर
मच्छर तो सरकार से भी स्मार्ट निकला. सरकारी महकमा सोता रहा और मच्छर ने अपना काम कर दिया. अफसोस कि हर साल की तरह आदतन नींद से जागने के लिए सरकार को किसी मौत का इंतजार इस बार भी रहा.
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मच्छर तो सरकारों से भी स्मार्ट निकला. सरकारी लोग सोते रहे और मच्छर ने इस बार भी हर साल की तरह अपना काम कर दिया. हर साल की तरह नींद से जागने के लिए सरकारों को किसी मौत का इंतज़ार रहता है. जब तक डेंगू के मरीज़ और डेंगू की वजह से होने वाली मौतें मीडिया की सुर्खी न बन जाएं, तब तक हमारा सिस्टम सिटपिटाता भी नहीं है.
दिल्ली में डेंगू को रिपोर्ट करते हुए दस वर्षों में कभी ऐसा नहीं लगा कि सरकार और सिस्टम के पास इस बीमारी और बीमारी को फैलाने वाले मच्छर से लड़ने का दम है. दम इसलिए क्योंकि साल दर साल सरकार और उसकी कोशिशों पर मच्छर ही हावी रहा है, सिस्टम तो सिर्फ लाचार होकर मौसम के बदलने का इंतज़ार करता है. यकीनन इस साल भी यही होगा. यह तथ्य किसी भी सरकार के लिए एक जोरदार तमाचे की तरह है कि जब सरकार ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी हो, उसी वक्त डेंगू के मरीज़ों की संख्या में सबसे ज्यादा इज़ाफा होता हो, जो हर बीतते दिन के साथ बढ़ता ही जाता है.
डेंगू के मच्छर से मेरा पहला एनकाउन्टर साल 2006 में हुआ था और शायद दोस्ती भी. दोस्ती इसलिए क्योंकि मुझे लगा कि वह शायद उस दिन मुझे अपने ठिकाने का पता दे रहा था. रिपोर्टिंग के लिए तब के मेयर फरहाद सूरी के साथ एमसीडी के हिंदूराव अस्पताल जाना हुआ. गया मेयर के साथ था, लेकिन लौटा उनके जाने के बाद. शायद यही वजह थी कि अस्पताल की बिल्डिंग के पिछवाड़े में दीवार पर टंगे एक कूलर में मेरी मुलाकात एडीज़ मच्छर से हो गई. जब डेंगू फैलाने वाले एडीज़ की ब्रीडिंग की तस्वीरें मेरे कैमरापर्सन प्रेमचंद मिश्रा के कैमरे में कैद हुईं, तो ये आंखें खोल देने वाली थीं. यह बात और है कि सिस्टम की आंखें न तब खुलीं और न अब.
2006 में डेंगू के 1958 मरीज़ सामने आए, इनमें से 17 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी. हंगामा तब मचा था जब एम्स के एक जूनियर डॉक्टर कमला राजकिरण की डेंगू की वजह से मौत हो गई. डेंगू नेशनल मीडिया की सुर्खियां बन गया. एम्स के परिसर में ही डेंगू के कई मरीज़ सामने आ गए. दिल्ली में डेंगू और देश के बाकि हिस्सों में चिकनगुनिया एडीज मच्छर ही फैला रहा था. 2007 दिल्ली के लिए डेंगू से राहत वाला रहा. इस साल सिर्फ 495 मामले सामने आए और एमसीडी के रिकॉर्ड के मुताबिक सिर्फ एक मौत हुई. लेकिन यह सरकार या एमसीडी की कामयाबी नहीं थी, बल्कि मच्छर की ही मेहरबानी थी. क्योंकि 2007 में भी मेरे कैमरे ने एमसीडी के मुख्यालय टाउन हाल के फाउंटेन में एडीज़ मच्छर की ब्रीडिंग कैद की थी. 2008 में डेंगू के 1268 मरीज़ और 2009 में 1055 मरीज़ सामने आए और दोनों सालों में दो-दो मौतें हुईं. इन सालों में भी मच्छर एमसीडी के नाक के नीचे पलता रहा, जिसे मैंने अपने कैमरे में कैद किया. इन दोनों वर्षों में डेंगू तुलनात्मक रूप से कम खतरनाक रहा.
डेंगू के लिए ज़िम्मेदार एडीज़ मच्छर हर चौथे साल में असरदार होता है. सरकारी ढर्रा किस कदर फिसड्डी है या फिर पूरा सिस्टम ही नाकारा है डेंगू के मच्छर ने 2010 में यह भी साबित कर दिया. 2010 में अक्टूबर में कॉमनवेल्थ गेम्स होने थे और यह वक्त डेंगू के लिहाज से भी सबसे खतरनाक वक्त होता है. चार साल वाला चक्र भी 2010 में ही आना था. विदेशी मेहमान आने थे, लेकिन मच्छर ने मेहमानों के लिए बने खेलगांव में ही अपना घर बना लिया. लाख कोशिशों के बाद भी यमुना किनारे बने खेलगांव में डेंगू की ब्रीडिंग स्वास्थ्य विभाग का अमला नहीं रोक पाया. मरीज़ों की संख्या के लिहाज़ से 2010 का साल सबसे ज्यादा प्रभावित रहा. 6259 मरीज़ और 8 मौत, वह भी तब जबकि डेंगू को रोकने के लिए सरकार ने अपनी ताकत लगा दी थी.
पहली बार देखा कि एनडीआरएफ के जवान खेलगांव के आसपास के जंगल में मच्छर मार रहे थे. डेंगू इस कदर फैला था कि पूरी राजधानी में हाहाकार मच गया था, भला हो वायरस का जो उस साल जानलेवा नहीं था. अगले साल 2011 में 1131 मरीज़ सामने आए और 8 लोगों को एडीज़ नाम के जानलेवा मच्छर ने मार डाला. 2012 में भी चार लोगों को डेंगू की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी और करीब 2093 लोग डेंगू की चपेट में आकर अस्पताल पहुंचे. 2013 में डेंगू फिर अपने रंग में दिखा और 5574 लोगों को अस्पताल पहुंचा दिया, 6 लोगों की जान भी डेंगू की वजह से चली गई. 2014 में सिर्फ 995 मामले सामने आए, लेकिन डेंगू ने तीन लोगों की जान ली. इस साल आंकड़ा तीन हज़ार पार कर गया है और 17 मौत हो चुकी हैं, जो 2006 से भी ज्यादा है.
ये आंकडे बताते हैं कि एडीज़ राजधानी में हर साल कोहराम मचाता है, लेकिन इन आंकड़ों की एक हकीकत यह भी है कि हमारी सरकार भी आदतन अपराधी है. फिर वो सरकार भले ही देश की हो, दिल्ली की हो या फिर एमसीडी हो. क्योंकि उसके पास डेंगू की रोकथाम की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है. या फिर सरकार मच्छर के आगे इतनी लाचार है कि मच्छर के मरने के लिए उसके पास मौसम बदलने का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं है. दस वर्षों के दौरान जो देखा, जो सुना और जो समझा उसमें एक बात कॉमन है और वो ये कि हमारे सरकारी सिस्टम ने मच्छर के आगे घुटने टेक दिये हैं. क्योंकि सरकारी अफसर ये मान बैठे हैं कि मच्छर आएगा, लोंगों को बीमार करेगा. लोग अस्पतालों में भटकेंगे भी, कुछ मरेंगे भी, लेकिन एक दिन मौसम बदलेगा और मच्छर भी मर जाएगा.
तब तक हम उन्हीं पुराने नुस्खों को अपनाते रहेंगे. मच्छर मरे या नहीं, दवा का छिड़काव और फॉगिंग करते रहेंगे, हो हल्ला मचेगा तो आंकड़े भी पेश कर देंगे. लेकिन इस बात का जवाब नहीं देंगे कि आखिर करोड़ों रुपए खर्च करने, भारी भरकम सरकारी अमले और पुराने तजुर्बे के बाद भी आखिर हर बार देश की राजधानी को डेंगू का डंक क्यों झेलना पड़ता है. क्योंकि शायद हम डेंगू के ठिकानों तक पहुंच ही नहीं पा रहे है. डेंगू की रोकथाम के लिए अंधेरे में तीर चला रहे हैं. लोगों को बता नहीं पा रहे हैं कि मच्छर को कैसे मारना है. क्योंकि हर साल दिल्ली के दो लाख से ज्यादा घरो के अंदर ही मच्छर पनपते हुए पाये जाते हैं.
हां, मीडिया में हल्ला होने पर या दबाव आने पर धुआं छोड़ती गाड़ियां ज़रूर दिखा देते हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि आप मच्छर को वहां ढूढ ही नहीं रहे हैं, जहां पैदा होकर वो दिल्लीवालों को शिकार बना रहा है. शायर महिपाल की दो लाइनें सड़ चुके सिस्टम के लिए सटीक हैं.
"गली संकरी, अंधेरा घुप, नज़र भी कम, गिरी सूई बेचारे ढूंढने सूई, उजाला था वहां आए".
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