तालिबानियों ने अमेरिका को खदेड़ा/हरा दिया, इस झूठ का सच क्या है?
मीडिया के वर्ग में प्रचारित किया जा रहा है कि अरबों डॉलर और सैकड़ों सैनिकों की जान गंवाने वाला अमेरिका अफगानिस्तान की जंग हार गया. उसे तालिबान ने खदेड़ दिया.
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अमेरिकी 20 साल तक तालिबान के मुंह पर जूता रखकर खड़े रहे, और अब जूता हटा दिया है तो मीडिया का एक वर्ग कह रहा है कि तालिबान ने अमेरिका को हरा दिया. अफगानिस्तान से अमेरिका के हटने के फैसले को वे वियेतनाम युद्ध की हार जैसा शर्मनाक बता रहे हैं. क्या वाकई ऐसा है? जंगली-जेहादी तालिबानियों की वापसी क्या वाकई अमेरिका की हार है? इन 20 साल में अमेरिका ने अफगानिस्तान में क्या खोया, क्या पाया?
20 साल गुफाओं, या पाकिस्तान में दबे-छुपे रहे तालिबानी अपने पुराने रूप में नजर आ रहे हैं. लगता है जैसे समय का पहिया 25 साल पीछे घूम गया है. अमेरिका से पहले तालिबान, अमेरिका के बाद तालिबान. वे कंधे पर कलाश्निकोव टांगे शरिया कानून लागू करवा रहे हैं. मुल्क अब इस्लामिक अमीरात है. औरतें बुरके के पीछे भेज दी गई हैं. घरों में बंद. लड़कियों को अगवा किया जा रहा है. जबरन शादी, बलात्कार और हत्याएं हो रही हैं. इन तथ्यों के अलावा, एक तथ्य ये भी है कि तालिबान प्रेस कान्फ्रेंस कर रहा है. दिखावे के लिए ही सही, वो तमाम गारंटियां देता नजर आ रहा है, जिसकी दुनिया को उम्मीद है. तो तालिबान का ये दोहरा रूप आखिर क्यों है? 1996 से 2001 तक इस्लाम के नाम पर जंगल राज चलाने वाला तालिबान आखिर किससे सहमा हुआ है? दुनिया के लाख मना करने के बाद बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ने वाला तालिबान आज किसका लिहाज करके अल्पसंख्यकों को ना डरने के लिए कह रहा है?
अफगानिस्तान में मीडिया से मुखातिब होकर बस अपनी बातों को कहता तालिबान
तालिबान के इस रवैये का राज समझना है तो काबुल एयरपोर्ट के स्टेटस से समझिए. आज भी काबुल का एयरपोर्ट अमेरिकियों के कब्जे में है, और तालिबान की मजाल नहीं है जो उन पर एक भी गोली चला दे. बल्कि 600 तालिबानी मदद कर रहे हैं अमेरिकियों की. तो जिन लड़ाकों को क्रेडिट दिया जा रहा था कि उन्होंने रूसियों को खदेड़ दिया था, वो अमेरिकियों का इतना लिहाज क्यों कर हैं?
दरअसल, 1996 और अबका तालिबान बुनियादी रूप से एक ही है, लेकिन उसके व्यवहार में जो अंतर है उसकी वजह है अमेरिका का खौफ. तालिबान को डर है कि यदि उसने पहले की तरह आतंक का नंगा नाच शुरू किया तो अमेरिका ने जिस तरह इराक-सीरिया में ISIS को कुचला, वो उसके सिर फिर से आ धमकेगा.
अमेरिका के 2.26 लाख करोड़ डॉलर क्या पानी में गए?
अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी ने गणना करके बताया है कि अफगान युद्ध पर 2.26 लाख करोड़ डॉलर खर्च हुए. 20 साल के दौरान हजारों जानें गई, लेकिन अंत में अमेरिका को अफगानिस्तान से अराजकता भरे माहौल के बीच बेइज्जत होकर निकलना पड़ा. लेकिन, क्या वाकई ऐसा है?कतई नहीं. अमेरिका ने इस एक युद्ध से बहुत कुछ साबित किया है.
1- विषम परिस्थितियों वाला युद्ध जीतने की काबिलियत: 9/11 से पहले अमेरिकियों का अफगानिस्तान से वास्ता सिर्फ सीआईए से होकर ही जाता था. वो भी रूसियों को खदेड़ने के लिए. उसे अंदाजा नहीं था कि जिस जमीन पर वो अपनी रणनीतिक निगाह रखना चाहता है, वहीं से कुछ मंसूबे उड़ान भरेंगे और अमेरिकी जुर्रत का प्रतिनिधित्व करने वाले दो टॉवरों को जमींदोज कर देंगे.
लेकिन, ये अमेरिका का ही जज्बा था जो उसने एक मध्य युगीन दौर में रह रहे कबिलाई तालिबानियों की अक्ल ठिकाने लाने की ठानी. 'साम्राज्यों का कब्रस्तान' कहे जाने वाले कि अफगानिस्तान पर आ डटा. अफगानिस्तान के सबसे मुश्किल जंगी हालात के बीच से उसने दुनिया को संदेश दिया कि वो हर तरह के युद्ध के लिए तैयार है.
2- काबिलाई, लड़ाकू समुदायों के बीच 20 साल तक जमे रहने की इच्छाशक्ति: दुनिया ने तालिबानी शासन का जंगली दौर देखा है. पूर्व राष्ट्रपति को सरेआम फांसी. तीन दिन तक काबुल में लटकता उनका शव दुनिया ने देखा. चौराहों पर लोगों को मौत के घाट उतारा जाता रहा. महिलाओं पर ज्यादती. सरेआम उन पर कोड़े बरसाना. पूरे मुल्क को आतंक की पनाहगाह बना देना.
जैश, अलकायदा जैसे संगठनों का अड्डा. और ऐसे जंगलियों के बीच अमेरिका उतरता है. इस्लाम के नाम पर जेहादी बने घूम रहे 'लड़ाकों' को दौड़ा-दौड़ाकर मारता है. और कुछ ही महीनों में होता ये है कि कुछ जंगली गुफाओं में छुपकर जान बचाते हैं, तो कुछ डूरंड लाइन लांघकर पाकिस्तान की गोद में आ छुपते हैं.
तालिबानियों का इस्लाम और शरीयत का निजाम तितर-बितर कर दिया गया. सूरमा बने फिर तालिबानी या तो मार गिराए गए, या यातनाभरी जेलों में ठूंस दिए गए.
3- युद्ध कला को आधूनिक करते चले जाने की क्षमता: क्या अफगानिस्तान पर हमला करने वाले अमेरिका का मकसद सिर्फ तालिबान और अलकायदा को ठिकाने लगाना ही था? कुछ लोग अमेरिका पर दोष मढ़ रहे हैं उसने अफगानिस्तान को अस्थिर छोड़ दिया. तो ये समझ लेने की जरूरत है कि अमेरिका का इरादा कभी ये नहीं था कि वो वहां तालिबान की जगह किसी मंडेला या गांधी को स्थापित करे.
अफगानिस्तान तो वो विशुद्ध रूप से 9/11 के बदले के लिए ही था. लेकिन, फिर उसने इस युद्ध को अपनी क्षमताओं की ग्लोबल प्रदर्शन बना दिया. अमेरिका ने अफगानिस्तान हमले की शुरुआत तो अपने कुछ जंगी जहाजों पर से उड़े B52 बम वर्षक विमानों से की थी, लेकिन धीरे धीरे नाटो सेनाओं ने अफगानी आसमान को तालिबान के लिये मौत का साया बना दिया.
अमेरिकी स्पेशल फोर्सेस जमीन पर उतरने लगीं, और तालिबान के होश हवा होने लगे. काबुल के अलावा कंधार, जलालाबाद, मजार-ए-शरीफ जैसे तमाम बड़े शहर कस्बों पर अमेरिकी सेना का नियंत्रण हो गया. कहने को तो अमेरिका छह महीने में ही अफगानिस्तान पर मुकम्मल काबिज़ हो चुका था, लेकिन, वो वहां शासन करने नहीं आया था. अमेरिका ने अफगानिस्तान को अपनी वॉर लैबोरेटरी बना लिया.
अपने 20 वर्षीय मिशन के दौरान उसने अपनी ड्रोन अटैक प्रणाली का अद्भुत विकास किया. बिना एक भी सैनिक मैदान में भेजे, उसने तालिबानियों को हर जगह ठोका. अफगानिस्तान ही नहीं, पाकिस्तान के भीतर भी. तालिबान के 'अब्बा हुजूर' मुल्ला उमर भी ऐसे ही एक ड्रोन हमले में खेत रहे थे. कहा जाता है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान सीमा से सटे इलाकों में दोनों ओर लोगों की निगाहें आसमान पर ही रहती थीं. पता नहीं, कहां से मौत आ जाए. अदृश्य मौत.
4- दुश्मन को पाताल से ढूंढ निकालने का दम-खम: जिस अफगानिस्तान और तालिबान के गुण गाए जा रहे हैं, उसे तो अमेरिका ने अपने पैरों के नीचे रौंदा ही, अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को जो मौत दी, उसने आतंकियों को न भुलाया जा सकने वाला सबक दिया. दस साल तो उसे दौडाते रहे. ओसामा के एक एक साथी को मौत से बदतर जिंदगी के दीदार कराए.
आतंकियों से पूछताछ के ऐसे तरीके अपनाए, जो इस प्रोफेशन में आने वालों की पुश्तें याद रखेंगी. ओसामा को जिस तरह मारा गया है, वो मिसाल ही है. मिसाल है इच्छाशक्ति की. 'यदि कोई हमें नुकसान पहुंचाएगा, तो हम उसे दुनिया के आखिरी सिरे तक छोड़ेंगे नहीं'. पाकिस्तान के महफूज आर्मी बेस एबोटाबाद में गुनाम जिंदगी बिता रहे ओसामा को नेवी सील ने न सिर्फ मौत के घाट उतारा, बल्कि दुनिया के सामने उसका कोई निशान नहीं छोड़ा.
जो किया अमेरिका ने किया. और अमेरिका का ये इंसाफ पूरी दुनिया ने कबूल भी किया. हिम्मत नहीं किसी की, जो कहे कि ऐसा क्यों किया? अभी भले कहा जा रहा हो कि अमेरिका अफगानिस्तान से भाग गया, लेकिन वो अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों को सपने में आकर डराता रहेगा.
5- पैशाचिक तालिबानियों को भी सलीका सिखाने की सलाहियत: अफगानिस्तान में तालिबान ने उतनी ही जगह हांसिल की है, जितनी अमेरिका ने उसे खाली करके दी है. अब भी काबुल एयरपोर्ट अमेरिकी सैनिकों के ही कब्जे में है. और तालिबान की हिम्मत नहीं है, जो उन सैनिकों की तरफ आंख उठाकर भी देख ले. सवाल, ये है कि जिन तालिबानियों की 'बहादुरी' का इस्लामिस्ट और वामपंथी गुण गा रहे हैं, वो अमेरिका से काबुल एयरपोर्ट क्यों नहीं छीन रहा है.
वजह है, 20 साल की ठुकाई. जिस तालिबान को अमेरिका ने रौंदा, उसे जाने से पहले दोहा बुलाकर सलीके से रहने की ट्रेनिंग दी. दुनिया ने जिसे अफगान शांति समझौते के रूप में देखा, दरअसल, वो अमेरिका का अपना तरीका था तालिबानियों को सबक देने का. कि, बेटा हमसे तो तुम ठीक से ही रहना.
तालिबानी भी वहां मुंह में घास का तिनका दबाए, हर बात पर हां में हां मिलाते रहे हैं. तालिबान ने अफगानिस्तान आकर उन शर्तों का पालन क्यों नहीं किया, ये एक अलग विषय है. लेकिन, 20 साल अफगानिस्तान को रौंदने वाले अमेरिकी जा रहे हैं, तो तालिबान सिर्फ बाय-बाय ही कर पा रहा है.
उससे ज्यादा उसकी औकात भी नहीं है. हिम्मत तो बिल्कुल ही नहीं. इसके साथ एक जानकारी यह भी कि, तालिबान जिस मुल्ला बिरादर को राष्ट्रपति बनाना चाहता है, उसे अमेरिका के कहने पर ही पाकिस्तान ने 9 साल अपनी जेल में बंद रखा था. समझ लीजिये, ये तालिबानी कुछ नहीं हैं अमेरिका के आगे.
अब भी काबुल एयरपोर्ट अमेरिका के ही कब्जे में है, और तालिबान की मजाल नहीं है जो चूं कर दे.
6- और अमेरिकी हिदायत- फिर हिमाकत की तो फिर आ जाएंगे: ऐसा बिल्कुल नहीं माना जाना चाहिए कि 20 साल तक अमेरिकी जूते के नीचे रहने से तालिबान सुधर गया है. वो प्रेस कान्फ्रेंस कर रहा है, मतलब उसमें सलीका आ गया है. जी नहीं. तालिबान न सुधरा है, न सुधरेगा. हां, वो अमेरिका के रूप में सवा सेर, क्षमा करें 'ढाई सेर' मिल जाने से सुकड़ गया था.
लेकिन, इस 20 साल के दौरान पाकिस्तान ने क्वेटा में रहबर शूरा के रूप में इन तालिबानियों को जुटाए रखा. उन्हें देवबंदी मदरसों में जहरभरी ट्रेनिंग देता रहा. तालिबानी दिखावे के लिए भेड़ की खेल में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं. और मीडिया का एक वर्ग उन्हें सिविल बताने की कोशिश रहे हैं. जबकि, वो नफरती विचारधारा के बीच पले बढ़े हैं.
उनकी नजर में औरतों की वही कद्र है, जो हिटलर की नजर में यहूदियों की थी. खैर, तालिबानी नेतृत्व बहुत सलीके से कह रहा है कि 'वह महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करेगा. वह बदले की कार्रवाई नहीं करेगा. अफगानिस्तान से विदेशी डिप्लोमेट को जाने की जरूरत नहीं है.'
क्या इन बातों के लिए तालिबान पर भरोसा किया जाना चाहिए? तो जवाब होगा, तालिबान की सारी बातें झूठी हो सकती हैं, लेकिन वो विदेशी डिप्लोमेट, खासकर नाटो सदस्य देशों के लोगों के रास्ते कभी नहीं पड़ेगा. कारण है अमेरिकी घुट्टी, जो तालिबान को ठीक से पिलाई गई है.
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