Dinesh Trivedi resignation से ममता बनर्जी को फायदा और भाजपा को नुकसान!
तृणमूल कांग्रेस से किनारा करने के बाद दिनेश त्रिवेदी ने पार्टी पर कई आरोप लगाए हैं. आमतौर पर पार्टी छोड़ने वाला हर नेता ऐसी ही बात करता है. टीएमसी की ओर से भी फिलहाल त्रिवेदी के इस्तीफे को लेकर कोई खास तवज्जो नहीं दी जा रही है. लेकिन, तृणमूल कांग्रेस और सीएम ममता बनर्जी के लिए चुनाव से पहले ये एक बड़ी असहज करने वाली स्थिति है.
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देश में आगामी महीनों में 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं. इसके बावजूद हर किसी की नजर पश्चिम बंगाल का नाम आते ही उसी पर ठहर जाती है. बीते कुछ महीनों में बंगाल की राजनीति में एक गजब भूचाल आया है और इसका सबसे ज्यादा नुकसान सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस को झेलना पड़ा है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के करीबियों में शामिल कई मंत्री और नेता टीएमसी को छोड़ भाजपा का दामन थाम चुके हैं. इस लिस्ट में एक नया नाम टीएमसी के राज्यसभा सांसद और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी का भी जुड़ गया है. दिनेश त्रिवेदी का इस्तीफा देना उतना अचंभित नहीं करता है. जितना उनका ये कहना कि टीएमसी में 'घुटन' होती है.
तृणमूल कांग्रेस से किनारा करने के बाद दिनेश त्रिवेदी ने पार्टी पर कई आरोप लगाए हैं. आमतौर पर पार्टी छोड़ने वाला हर नेता ऐसी ही बात करता है. टीएमसी की ओर से भी फिलहाल त्रिवेदी के इस्तीफे को लेकर कोई खास तवज्जो नहीं दी जा रही है. लेकिन, तृणमूल कांग्रेस और सीएम ममता बनर्जी के लिए चुनाव से पहले ये एक बड़ी असहज करने वाली स्थिति है. दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफे के बाद उनके भाजपा में शामिल होने के कयास लगाए जा रहे हैं. इन सबके बीच कैसे दिनेश त्रिवेदी का जाना टीएमसी के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है और भाजपा के लिए नुकसान? इस पर चर्चा से पहले जान लेते हैं दिनेश त्रिवेदी कौन हैं और कैसा रहा है उनका अब तक का राजनीतिक सफर.
कौन हैं दिनेश त्रिवेदी
पूर्व रेल मंत्री रहे दिनेश त्रिवेदी के गुजराती माता-पिता विभाजन के समय कराची से दिल्ली आकर बस गए थे. त्रिवेदी ने कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से स्नातक और टेक्सास यूनिवर्सिटी से एमबीए की पढ़ाई की. 80 के दशक में कांग्रेस पार्टी के सहारे राजनीति में कदम रखने वाले त्रिवेदी साल 1990 में जनता दल में चले गए. जनता दल की ओर से राज्यसभा भेजे गए. 1998 में ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस पार्टी बनाने पर दिनेश त्रिवेदी पार्टी महासचिव के पद पर टीएमसी में शामिल हुए. ममता के विश्वासपात्र बन 2002 में राज्यसभा गए. 2006 में ममता बनर्जी के सिंगुर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ की गई भूख हड़ताल के लिए उन्होंने दिल्ली में समर्थन जुटाया था. 2009 में उन्होंने बैरकपुर लोकसभा सीट पर जीत हासिल की और सीपीएम के कद्दावर नेता तड़ित तोपदार को हराया.
1998 में ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस पार्टी बनाने पर दिनेश त्रिवेदी पार्टी में शामिल हो गए.
2011 में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वामदलों का 35 सालों से अपराजित किला ढहा दिया. ऐतिहासिक जीत हासिल कर ममता सीएम बनीं और उन्होंने दिनेश त्रिवेदी को केंद्र की यूपीए सरकार में रेल मंत्री बनवा दिया. इसी दौरान 2012 में त्रिवेदी के रेल किराया बढ़ाने उनका काफी विरोध हुआ. ममता बनर्जी की ओर से इस किराया वृद्धि को वापस लेने के दबाव पर त्रिवेदी ने बागी तेवर अपनाते हुए कहा था कि रेल मंत्रालय रॉयटर्स बिल्डिंग से नहीं, बल्कि रेल भवन से चलता है. जिसके बाद त्रिवेदी को रेल मंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया गया था. हालांकि, कुछ समय बाद ममता और त्रिवेदी के संबंध फिर से पटरी पर लौट आए. 2020 में वह फिर से राज्यसभा सांसद बना दिए गए.
ममता के लिए कैसे फायदेमंद साबित होगा दिनेश त्रिवेदी का इस्तीफा
टीएमसी के पूर्व राज्यसभा सांसद दिनेश त्रिवेदी ने बंगाल में बढ़ रही हिंसा और पार्टी नेतृत्व के राजनीतिक लक्ष्य में बदलाव आने का आरोप लगाकर इस्तीफा दिया था. दिनेश त्रिवेदी को लेकर कहा जाता है कि वह अब तक ममता बनर्जी की छत्रछाया में ही फले-फूले हैं. 2009 से 2019 तक वह बैरकपुर लोकसभा सीट से सांसद रहे. लेकिन, इसमें भी त्रिवेदी का योगदान कम और ममता बनर्जी की राजनीतिक कुशलता को ज्यादा महत्व दिया जाता है. दिनेश त्रिवेदी को कभी भी जमीनी तौर पर स्थापित नेता के रूप में नहीं जाना गया. अभी तक वह ममता के सहारे ही राजनीतिक बाधाएं पार करते रहे. 2019 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्हें ममता ने फिर से राज्यसभा भेजा था.
माना जा रहा है कि दिनेश त्रिवेदी का इस्तीफा पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को और ज्यादा मजबूत कर सकता है. तृणमूल कांग्रेस इस खाली हो चुकी राज्यसभा सीट के सहारे एक बड़ा दांव खेल सकती है. ऐसी चर्चाएं हैं कि टीएमसी इस सीट के लिए पार्टी में कोई मुस्लिम चेहरा खोज रही है. AIMIM चीफ और सांसद असद्दुदीन ओवैसी की पश्चिम बंगाल में एंट्री और ममता बनर्जी के करीबी रहे पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की नई पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट की वजह से मुस्लिम वोट ममता से छिटक सकता है. ऐसे में कहा जा सकता है कि ममता बनर्जी की राज्यसभी सीट को लेकर बनाई गई ये रणनीति उन्हें फायदा पहुंचा सकती है.
दिनेश त्रिवेदी को विधानसभा चुनाव में उतारना ममता बनर्जी को 'गुजराती' थाली परोसने जैसा होगा.
दिनेश त्रिवेदी से पहले जितने भी टीएमसी नेता भाजपा में शामिल हुए वे सब बंगाली नेता थे. उस समय तक इस मुद्दे पर ममता बनर्जी के हाथ खाली थे. लेकिन, अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक से 'बंगाली अस्मिता' के नाम पर सीधा लोहा लेने वाली ममता बनर्जी इसे बड़े हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सकती हैं. पश्चिम बंगाल में बंगाली अस्मिता को खुद से जोड़कर हर बात कहने वाली ममता इसे भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगी.
माना जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में दिनेश त्रिवेदी के गुजराती मूल के होने का मुद्दा भी टीएमसी को फायदा पहुंचा सकता है. चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की गुजराती जोड़ी के साथ दिनेश त्रिवेदी के अच्छे संबंधों का हवाला देते हुए ममता जनता को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर सकती हैं. ममता बनर्जी इसे बंगाली अस्मिता का प्रश्न बनाकर ही दम लेंगी. ममता के लिए अब तक मिले तमाम झटकों से उबरने का ये एक बहुत बड़ा मौका है. ममता बनर्जी इसका इस्तेमाल कैसे और कब करती हैं, ये देखने वाली बात होगी.
भाजपा को उठाना पड़ सकता है नुकसान
दिनेश त्रिवेदी पूर्व रेल मंत्री रह चुके हैं, ममता बनर्जी के करीबियों में से एक रहे हैं, ऐसी तमाम चीजों ने उनका 'राजनीतिक वजन' काफी बढ़ा दिया है. ऐसे में भाजपा दिनेश त्रिवेदी के इस वजन को कहां तक झेल पाएगी, ये भी समझना बहुत जरूरी है. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और पश्चिम बंगाल के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय पार्टी में शामिल होने वाले नेताओं पर रोक लगाने की बात कह चुके हैं. हालांकि, त्रिवेदी का भाजपा में आना लगभग तय माना जा रहा है. लेकिन, दिनेश त्रिवेदी भाजपा में आकर क्या जिम्मेदारी संभालेंगे, सबसे बड़ा सवाल यही है.
अपने अच्छे-खासे पोर्टफोलियो और मोदी-शाह की जोड़ी के साथ 'घनिष्ठ' संबंधों के चलते भाजपा में दिनेश त्रिवेदी को किस तरह से फिट किया जाएगा, इस फॉर्मूला पर अभी केवल कयास लगाए जा सकते हैं. दिनेश त्रिवेदी को विधानसभा चुनाव में उतारना ममता बनर्जी को 'गुजराती' थाली परोसने जैसा होगा. हो सकता है कि भाजपा यह खतरा उठाते हुए त्रिवेदी को बैरकपुर सीट से चुनावी मैदान में उतार दे. ऐसे में अगर वह जीतते हैं और भाजपा सत्ता में आती है, तो त्रिवेदी को उनके पोर्टफोलियो को ध्यान में रखकर बंगाल कैबिनेट में एक बड़ा मंत्रालय देना होगा. अगर वह चुनाव हार जाते हैं, तो भी भाजपा को अपनी सहूलियत के लिए उन्हें कहीं न कहीं और किसी न किसी खांचे में फिट करना ही होगा.
दिनेश त्रिवेदी का राजनीतिक वजन ही उनके भाजपा में फिट होने के आड़े आ रहा है.
राज्यसभा छोड़कर आए दिनेश त्रिवेदी को भाजपा वापस से राज्यसभा शायद ही भेज सके. क्योंकि, भाजपा के लोकतांत्रिक मूल्य इसके आड़े आ जाएंगे और पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचने की आशंका है. दिनेश त्रिवेदी के राज्यसभा से इस्तीफे और भाजपा में शामिल होने तक हर तरह से देखा जाए, तो इस बात इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा पर भारी दबाव है. हो सकता है कि 70 की उम्र का आंकड़ा पार कर चुके दिनेश त्रिवेदी को किसी राज्य का गवर्नर बना दिया जाए. लेकिन, इससे भाजपा को पश्चिम बंगाल के चुनाव में कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा है.
दिनेश त्रिवेदी का राजनीतिक वजन ही उनके भाजपा में फिट होने के आड़े आ रहा है. दिल्ली के सियासी गलियारों में त्रिवेदी की अच्छी और मजबूत छवि है. अगर भाजपा सत्ता में आती है, तो उसके सामने पहले से ही टीएमसी छोड़कर पार्टी से जुड़ने वाले नेताओं को एडजस्ट करने का दबाव होगा. इस स्थिति में दिनेश त्रिवेदी को लेकर भाजपा को काफी मंथन करना पड़ेगा. खैर, राजनीति का ऊंट किस तरफ करवट लेकर बैठेगा, इसका फैसला मतदाता और वक्त ही करेंगे. तब तक भाजपा को दिनेश त्रिवेदी का 'वजन' उठाए रखना होगा.
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