जज धर्मेंद्र राणा वही हैं, लेकिन सफूरा जरगर बनाम दिशा रवि की जमानत पर बहस अलग!
सोशल मी़डिया के इस दौर में लोग तथ्य से ज्यादा कथ्य को तरजीह देते हैं. यह बहुत आम बात हो चुकी है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों के चलते देश की न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े करने से भी नहीं चूकते हैं. इन सबके बीच गौर करने वाली बात ये भी है कि अगर किसी फैसले से लोगों के नजरिये को बल मिलता है, तो लोग उसे हाथोंहाथ ले लेते हैं. फैसला देने वाला जज लोगों के लिए 'हीरो' बन जाता है.
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बीते कुछ समय से देश में न्याय प्रक्रिया और न्यायाधीश पर सवाल उठाने का चलन बहुत आम हो गया है. अदालत और जज के किसी भी फैसले का लोग अपने हिसाब से मतलब निकाल कर सोशल मीडिया पर शेयर करने लगते हैं. ऐसा ही कुछ पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को 'टूलकिट' मामले में जमानत देने का फैसला करने वाले पटियाला हाउस कोर्ट के एडिशनल सेशन जज धर्मेंद्र राणा के साथ भी हो रहा है. धर्मेंद्र राणा ने अपने 18 पन्नों के फैसले में कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं. इसे लेकर सोशल मीडिया पर लोग धर्मेंद्र राणा की तारीफ कर रहे हैं. इसके उलट कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो इसमें हिंदू-मुस्लिम वाला एंगल खोजकर ले आए हैं. दरअसल, दिल्ली दंगों की एक आरोपी सफूरा जरगर को जस्टिस धर्मेंद्र राणा ने जमानत देने से इनकार कर दिया था.
सोशल मी़डिया के इस दौर में लोग तथ्य से ज्यादा कथ्य को तरजीह देते हैं. यह बहुत आम बात हो चुकी है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों के चलते देश की न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े करने से भी नहीं चूकते हैं. इन सबके बीच गौर करने वाली बात ये भी है कि अगर किसी फैसले से लोगों के नजरिये को बल मिलता है, तो लोग उसे हाथोंहाथ ले लेते हैं. फैसला देने वाला जज लोगों के लिए 'हीरो' बन जाता है. लेकिन, इसका उलटा होने पर लोग उसी की बुराई करने में भी पीछे नहीं रहते हैं. उसे पक्षपात करने वाले से लेकर धर्म के आधार पर फैसला करने वाला घोषित कर देते हैं.
सोशल मी़डिया के इस दौर में लोग तथ्य से ज्यादा कथ्य को तरजीह देते हैं.
मुंबई की एक ब्लॉगर सोनम महाजन ने ऐसे लोगों की मानसिकता को उजागर करने वाला एक सटीक ट्वीट किया है. सोनम महाजन ने लिखा है कि दिशा रवि को जमानत देने वाले जज धर्मेंद्र राणा वही हैं, जिन्होंने सफूरा जरगर की जमानत खारिज की थी. उस समय दक्षिणपंथियों ने उनकी तारीफ की थी और वामपंथियों ने आक्षेप लगाए थे. आज, इसका उल्टा है. हम अपने कथित पूर्वाग्रहों की वजह से अपने संस्थानों को बदनाम करते हैं. लोगों के नजरिये पर चोट करता हुआ ये ट्वीट एक बेहतरीन उदाहरण हैं कि कैसे लोग 18 पन्नों के फैसले से गिनी-चुनी लाइनों के सहारे आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलने लगते हैं. अपना नजरिया सही साबित करने के लिए इसे धर्म से भी जोड़ने में कोताही नहीं बरतते हैं.
Dharmendra Rana, the judge who granted bail to Disha Ravi is the same judge who rejected Safoora Zargar’s bail.The right celebrated him back then and the left cast aspersions on him. Today, it’s the reverse. We discredit our own institutions because of our own perceived biases.
— Sonam Mahajan (@AsYouNotWish) February 23, 2021
सोशल मीडिया पर लोगों ने जस्टिस धर्मेंद्र राणा को लेकर अपने-अपने हिसाब से तर्क पेश किए हैं. जस्टिस राणा आरोपी दिशा रवि के पक्ष में खड़े वकील की दलीलों से संतुष्ट हुए और उन्होंने जमानत दे दी. वहीं, सफूरा जरगर के मामले में वकील दलीलों के जरिये अपने पक्ष को मजबूती से रखने में नाकामयाब रहे, जिसकी वजह से जमानत खारिज कर दी गई. किसी को भी जमानत देने या न देने का फैसला जज के विवेक पर निर्भर करता है. ऐसे मामलों में लोगों को तर्क रखने का अधिकार है, लेकिन फैसले पर धर्म का चश्मा लगाकर सवाल उठाने से पहले उन्हें सौ बार सोचना चाहिए.
जस्टिस धर्मेंद्र राणा के कुछ महत्वपूर्ण फैसले
दिशा रवि और सफूरा जरगर के मामले से पहले भी जस्टिस धर्मेंद्र राणा कई महत्वपूर्ण फैसले सुना चुके हैं. बार एंड बेंच नाम की वेबसाइट के अनुसार, दिशा रवि को जमानत देने से कुछ दिन पहले जज राणा ने 21 साल के एक मजदूर को राजद्रोह के मामले में जमानत दी थी. अपने आदेश में उन्होंने कहा था कि समाज में शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए राजद्रोह का कानून सरकार के पास एक शक्तिशाली टूल है. हालांकि, उपद्रवियों को शांत करने के के नाम पर इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. जस्टिस राणा ने यह भी स्पष्ट किया था कि अव्यवस्था पैदा करने के लिए उकसाने या सार्वजनिक शांति भंग करने या हिंसा का सहारा लेने की स्थिति में राजद्रोह का कानून लागू नहीं किया जा सकता.
निर्भया केस के दोषियों की फांसी टालने का फैसला
निर्भया कांड के दोषियों की फांसी से जुड़े मामले पर भी जस्टिस धर्मेंद्र राणा ने कई महत्वपूर्ण फैसले दिए थे. करीब एक साल पहले जज राणा ने निर्भया कांड के चारोंदोषियों का डेथ वारंट जारी किया था. दोषियों को 20 मार्च 2020 की शाम 5 बजकर 30 मिनट पर फांसी दी जानी थी. वहीं, 3 मार्च को फाइनल डेथ वारंट जारी करने से पहले जज राणा ने दो बार फांसी को टाला था. इसके पीछे उनका तर्क था कि चारों आरोपियों के पास अभी कानूनी प्रक्रिया के तहत रास्ता बचा हुआ है. जज राणा ने मामले में दोषी पवन की राष्ट्रपति के पास विचाराधीन नई दया याचिका के आलोक में अपने फैसले में कहा था कि पीड़ित पक्ष की तरफ से लगातार विरोध के बावजूद मैं मानता हूं कि किसी दोषी के मन में अपने निर्माता के पास जाने से पहले यह शिकायत नहीं होनी चाहिए कि उसके देश की अदालतों ने उसे अपने कानूनी बचाव के सभी रास्ते अपनाने का अवसर नहीं दिया.
इससे पहले फरवरी 2020 में जज राणा ने निर्भया कांड के चारों दोषियों की फांसी की तारीख की घोषणा करने से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के अनुसार, दोषियों के कानूनी रूप से बचाव के सभी रास्ते समाप्त नहीं हुए थे. इसे लेकर जस्टिस राणा ने कहा था कि दोषियों को फांसी चढ़ा देना आपराधिक पाप होगा, जबकि कानून उसे अभी जिंदा रहने की इजाजत देता है.
वहीं, फांसी दिए जाने से एक दिन पहले दोषियों के डेथ वारंट पर रोक लगाने की याचिका को जज राणा ने खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि इस कानूनी प्रक्रिया में जितना समय लगा है, उसने कुछ शंका भरी आवाजों को जन्म दिया है, जो 'कानून के शासन' की अवधारणा पर ही सवाल खड़ी कर रही हैं. मैं शंका करने वाले हर एक शख्स से कहना चाहता हूं कि गौतम बुद्ध और गांधी की महान धरती पर 'कानून के शासन' की अवधारणा से ही न्याय होगा, न कि भीड़ की मानसिकता से, फिर चाहें वह न्याय किसी खतरनाक अपराधी के किए सबसे जघन्य अपराध के लिए ही क्यों न हो. कानून का लचीलापन किसी भी तरह की इंसानी गलती से बचाव के लिए है, इसे कानून की कमजोरी न समझा जाए.
निर्भया कांड के कुछ दोषियों की ओर से फांसी की सजा से बचने के लिए जब कई बार एप्लिकेशन दी गई, तो जज राणा ने इस पर एतराज जताया था. उन्होंने यहां तक कहा था, 'यह वकील का कर्तव्य है कि वह अपने क्लाइंट का प्रतिनिधित्व अपनी पूरी क्षमता के साथ करे. अपने क्लाइंट को राहत दिलाने और केस में दोरी करने के लिए कानूनी पैंतरों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. इसके बाद उन्होंने इस मामले पर वकील को लेकर बार काउंसिल से कहा था कि इन्हें 'उपयुक्त संवेदनशील' बनाए जाने की जरूरत है.
जस्टिस राणा ने जामिया यूनिवर्सिटी की छात्रा सफूरा जरगर की जमानत याचिका को खारिज कर दिया था.
सफूरा जरगर का मामला
जून 2020 में जस्टिस धर्मेंद्र राणा ने जामिया यूनिवर्सिटी की छात्रा और दिल्ली दंगों में आरोपी सफूरा जरगर के खिलाफ UAPA के मामले में जमानत याचिका को खारिज कर दिया था. सफूरा जरगर उस समय तकरीबन 5 माह से गर्भवती थीं. इस मामले में जस्टिस राणा ने गौर किया था कि एक ऐसी गतिविधि, जिसमें एक हद तक अव्यवस्था या अशांति पैदा करने की प्रवृत्ति होती है, जो पूरे शहर को अपने घुटनों पर ला देती है और पूरे सरकारी तंत्र के लिए रुकावट पैदा करती है, जैसा वर्तमान मामले में है, इसे UAPA के तहत ही माना जाएगा. उन्होंने साफ किया कि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सफूरा जरगर के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है. इस मामले पर जज धर्मेंद्र राणा ने आदेश देते हुए कहा था कि अगर आप चिंगारी से खेलते हैं, तो हवाओं को यह दोष नहीं दे सकते कि उसकी वजह से चिंगारी ज्यादा दूर चली गई और आग फैल गई.
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