ट्रंप-किम को सिंगापुर में देखकर अमन के फाख्ते चिंता में क्याें हैं?
डोनाल्ड ट्रंप और किम जांग उन के बीच की मुलाकात को एक सिनेमा से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाना चाहिए. देखिए और मनोरंजन कीजिए. इससे किसी गंभीर नतीजे की उम्मीद रखना खुद से ज्यादती होगी.
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दुनिया के दो जिल्लेइलाही. दोनों सिंगापुर में तशरीफ रखते हैं. एक ओर डोनाल्ड ट्रंप हैं तो दूसरी ओर किम जोंग उन. कायनात के सारे फाख्ते टकटकी लगाए इन्हीं दोनों को देख रहे हैं. कुछ काम की बात हो जाए तो चैन से परवाज़ भरें. वरना, इनकी मिसाइलों से न सही, बयानों से मरना तो है ही.
डोनाल्ड ट्रंप पिछले दो दिनों से कनाडा में थे. जी-7 देशों के सहयोगियों के साथ मिल रहे थे. मिल क्या रहे थे, जैसा होता है, हंगामा खड़ा कर रहे थे. दुनिया के सबसे ताकतवर कारोबारी देशों के इस समूह में अमेरिका, कनाडा के अलावा ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली और जापान शामिल हैं. ट्रंप पहले ही NAFTA (उत्तर अटलांटिक मुक्त व्यापार संधि) को कूड़े के ढेर में डालते हुए यूरोपीय देशों से आने वाले सामान, खासकर स्टील पर भारी टैरिफ लगा चुके हैं. इसके अलावा इरान न्यूसक्लियर डील और पेरिस क्लारइमेट समिट की घोषणाओं से खुद को अलग करते हुए उन्होंने अमेरिका और यूरोप की लामबंदी को ठेंगा दिखा दिया है.
ट्रंप प्रशासन ऐसे मनमाने घोड़े की सवारी कर रहा है, जो किस और दौड़ लगा देगा यह किसी को पता नहीं है. वह किसे दुलत्ती मारेगा, यह भी नहीं. इसमें घायल दोस्त होंगे, या दुश्मन यह भी अंदाजा नहीं लग पा रहा है.
तो इसी घोड़े पर सवारी करते हुए ट्रंप और उनके साथी कनाडा से सिंगापुर आ गए हैं. कहा जा रहा है कि यहां के सैंतोसा द्वीप पर एक ऐसी मुलाकात रही है, जिसे विश्व शांति के लिहाज से इस सदी की सबसे बड़ी घटना माना जा सकता है.
ट्रंप और किम की मुलाकात में गंभीरता के स्तर को बयां करती है इन दोनों नेताओं के हमशक्लों की चर्चित होती ये तस्वीर.
उत्तर कोरिया के किम जोंग उन और अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप आमने-सामने हैं. इन दोनों देशों ने एक-दूसरे के खिलाफ अतीत में क्या-क्या किया है, यह बात करने का अब वक्त नहीं है. दिलचस्पी इसमें है कि आगे क्या होगा. चलिए समझते हैं :
1. शांति से पहले शर्तों की लड़ाई
उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम और उसकी इंटर-कॉटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलें (ICBM) अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान के लिए चिंता का विषय बने हुए थे. लेकिन उत्तर कोरिया के शहंशाह का हृदय पिघला. वे एक दिन सीमा लांघकर दक्षिण कोरिया चले गए. वहां के राष्ट्रप-प्रमुख से गलबहियां करते हुए दुनिया को दिखा दिया कि अब प्रलय नहीं आएगा. इतना ही नहीं, उन्होंने औेर आगे बढ़कर अपने परमाणु परीक्षण वाले ठिकानों को ध्वस्त करके दुनिया को दिखा दिया है कि उनके इरादे क्या हैं. लेकिन, अमेरिका या कहें ट्रंप के लिए इतना काफी है? जी नहीं. बिलकुल नहीं. ट्रंप साहब एक अलग ही दुनिया के वासी हैं. वे किम के हृदय परिवर्तन की कभी प्रशंसा करते हैं. कभी उनपर शंका जताने लगते हैं. कभी वे मुलाकात की बात करते, तो कभी उससे पीछे हट जाते. या कभी शर्तें लादने लगते.
खैर, अब जब ये मुलाकात हो ही रही है तो मान सकते हैं कि दोनों देश कोरिया प्रायद्वीप को परमाणु हथियारों से मुक्त करने के लिए ठोस घोषणा करेंगे. किम भी दो बात अपनी तरफ से रखेंगे. वे अपने इलाके में होने वाली अमेरिकी सैन्य गतिविधि को नियंत्रित करने की कोशिश करेंगे. उनके राजनीतिक सलाहकार और सहयोगी- चीन और रूस, ने ऐसा करने के लिए तो कहा ही होगा. यदि किम अपनी तरफ से ये शर्तें लगाते हैं तो ट्रंप का धैर्य कब तक कायम रहेगा, इसकी गारंटी नहीं है.
2. इरान बनाम उत्तर कोरिया
जैसे इरान और बाकी अरब मुल्कों के बीच शिया-सुन्नी विवाद है. कुछ-कुछ वैसा ही, उतना धार्मिक तो बिलकुल नहीं, लेकिन विवाद उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया-जापान-अमेरिका गठबंधन के बीच है. इरान और उत्तर कोरिया से ठनी रार में अमेरिका की स्थिति जितनी प्रॉक्सी है, उतनी ही केंद्रीय भी. मिडिल ईस्ट में जैसे इरान एक अनसुलझा केस है, प्रशांत महासागर में उसी के समानांतर उत्तर कोरिया की स्थिति है. ये दोनों देश वैश्विक रस्साकशी की वो गांठे हैं, जिसके एक ओर अमेरिका और उसके मित्र देश हैं तो दूसरी तरफ रूस और चीन हैं. भारत जैसे देश दोनों ही मामलों में दर्शक हैं.
इरान के मामले को हम देख ही चुके हैं, कैसे न्यू क्लियर डील हो जाने के बाद भी अमेरिका ने उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया. यूरोप ऐतराज के अलावा कुछ न कर सका. और अरब के मुल्कों ने इसे अपनी रणनीतिक जीत मान लिया. उत्तर कोरिया के मामले में स्थिति थोड़ी अलग, लेकिन काफी कुछ मिलती-जुलती है. वहां मिडिल-ईस्ट की तरह दक्षिण कोरिया और जापान किम जोंग उन को दो-दो हाथ करने की धमकी नहीं देते. बल्कि उनकी ओर से ये काम अमेरिका को करना पड़ता है. लेकिन सिर्फ किम के शांत हो जाने से कोरियाई प्रायद्वीप की समस्या हल हो जाएगा, इसका मानना भी ठीक नहीं होगा.
किम जोंग उन और ट्रंप का अपना व्यक्तित्व और उनके शासन का अंदाज खुद बताता है कि कोई उन पर उम्मीद से ज्यादा भरोसा न करे.
जियो-पॉलिटिक्स में उत्तर कोरिया नाम की एक चाबी रूस औेर चीन के हाथ लग गई है, जिसे मनचाहा घुमाकर वह अमेरिका के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं. इसलिए किम और ट्रंप के बीच किसी न्यूक्लियर डील की कामयाबी रूस और चीन की मनोदशा पर टिकी हुई है. इन सभी पक्षों में से किसी भी एक की नीयत में खोट आया, तो समझो उत्तर कोरिया भी इरान वाली हालत में आ जाएगा.
3. प्रतिबंध बनाम हथियारों का बाजार
शांति के पैरोकारों का मानना है कि लंबे तनाव के खात्मे से उत्तर कोरिया पर वर्षों से लगे प्रतिबंध हट जाएंगे. इससे इस इलाके में रहने वाले लोगों को स्तरीय जीवन जीने में मदद मिलेगी. लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि शांति के लिए आम जनता की जरूरतें सबसे आखिरी पक्ष है. इस लड़ाई में मौजूद सभी पक्षों ने अपने प्रभुत्वब को कायम रखने के लिए द्विपक्षीय और सैन्य शक्तियां झोंक रखी हैं. दक्षिण कोरिया जैसा देश विश्व की छठी सबसे बड़ी सेना रखता है. यदि ये कलह बंद हो जाएगी तो चीन जापान पर किस तरह से दबाव बनाएगा. यदि इस इलाके में शांति हो जाएगी तो अमेरिका की महत्वा कांक्षाओं का क्या होगा. दक्षिण कोरिया और जापान को हथियारों की सबसे बड़ी आपूर्ति अमेरिका से ही होती है. और इन दोनों देशों में अमेरिका के शक्तिशाली सैन्यअ बेस मौजूद हैं. ये बेस ही तो अमेरिका को प्रशांत महासागर में चीन और रूस की गतिविधियों से अवगत कराते हैं. इन महारथियों को यदि अपनी रणनीति में यदि कोई भी कसर बाकी रहती दिखाई देगी, तो सबसे पहले सिंगापुर में हुई डील की बलि दी जाएगी.
किम का क्या है, फिर एक मिसाइल उड़ा देंगे. फिर एक परमाणु परीक्षण कर देंगे. ट्रंप भी कौन से कर्तव्य-परायण नेता हैं. एक झटके में इरान डील नकार दी, तो किम वाली कौन से खेत की मूली होगी. RUBBISH.
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