उद्धव ठाकरे-एकनाथ शिंदे की लड़ाई अपनी जगह है, लेकिन महाराष्ट्र में हिंदुत्व फिर लौट आया!
भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री घोषित कर उद्धव ठाकरे की सम्पूर्ण राजनीति पर ग्रहण लगा दिया. भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ऐसा पासा फेंका कि खेल ही खत्म. अब उद्धव को ना निगलते बन रही है ना ही उगलते. अब अगर वे इस बात पर ख़ुशी जाहिर कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री शिवसेना का बना है तो ये सब ढोंग है, प्रपंच है जो कि दिखावा व छलावा मात्र है.
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भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री घोषित कर उद्धव ठाकरे की सम्पूर्ण राजनीति पर ग्रहण लगा दिया. भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने ऐसा पासा फेंका कि खेल ही खत्म. अब उद्धव को ना निगलते बन रही है ना ही उगलते. अब अगर वे इस बात पर ख़ुशी जाहिर कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री शिवसेना का बना है तो ये सब ढोंग है, प्रपंच है जो कि दिखावा व छलावा मात्र है. सच तो ये हैं कि ठाकरे को लगता था कि एकनाथ शिंदे भी राजस्थान के पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की तरह जोश-जोश में बागी हो गये हैं, जैसे पायलट ने उलटे पांव व पेट के बल लेटकर अशोक गहलोत को पिता तुल्य समझ लिया, वैसे ही एकनाथ शिंदे भी बागी विधायकों के साथ मुंबई आकर मुझे पिता तुल्य ना सही पर बाला साहेब ठाकरे का पुत्र समझ कर हाथ मिला लेगा. अघाड़ी सरकार अपना बोरिया-बिस्तर समेटने में लगी हुई है. कांग्रेस और एनसीपी ने सरकार बचाने की कोशिश सिर्फ इतनी ही की, जितनी आगे की राजनीती में काम आ जाये. देवेन्द्र फडणवीस जो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन सकते थे उन्होंने भी एकनाथ शिंदे को समर्थन देकर राष्ट्र व पार्टी की एकमता को चुना.
महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे का मुख्यमंत्री बनना हिंदुत्व के लिहाज से बड़ी घटना है
भाजपा ने आज साबित कर दिया कि उनके लिए हिंदुत्व से बढ़कर कुछ नहीं है- ना सत्ता और ना ही कोई पद. कांग्रेसी व एनसीपी के नेता मात्र इसलिए खुश है कि देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री नहीं बन पाये, पर उनको ये नहीं मालूम कि राजनीती में साम-दाम-दंड-भेद सब जायज है. उद्धव ठाकरे जहां सत्ता के लोभ में शिवसेना का हिंदुत्व भूल बैठे थे, वहीं शिंदे ने हिंदुत्व को चुन भाजपा से हाथ मिला लिया. अगर यही काम ढाई साल पहले उद्धव ठाकरे कर लेता तो आज उसको ये दिन ना देखना पड़ता और ना ही शिवसेना के टुकड़े होते. जिस तरह कांग्रेस में बेटा-बेटी के मोह के चक्कर में पूरी कांग्रेस गहरे तलाब में डूब रही है वैसे ही हाल उद्धव का था.
बाला साहेब ठाकरे के जो प्रण थे, जो उनकी सोच थी उसे उद्धव ठाकरे ने सत्ता के मद में आकर कुचल दिया और मातोश्री के आगे नतमस्तक हो गये. सत्ता का अहंकार ऐसा उठा कि उसने अपने ही विधायकों की अनदेखी कर दी और शिवसेना के हिंदुत्व स्वरूप को जला डाला. महाराष्ट्र की राजनीति में अभी उठा भूचाल का हाल ढाई साल पहले ही पता लग चुका था, जब महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
105 सीट होने के बावजूद भाजपा इसलिए सरकार नहीं बना पाई, क्योंकि चुनाव से पहले भाजपा के साथ उद्धव ठाकरे ने एक ही थाली में खाना पसंद किया, पर जब सरकार बनाने की बारी आई तो सत्ता के लोभ में उद्धव ठाकरे ने उसी थाली में छेद कर विरोधी पार्टी कांग्रेस व एनसीपी की गोद में बैठना मंजूर कर लिया. ये वो कांग्रेस है जिसके लिए बाला साहेब ठाकरे ने कहा था कि वो कांग्रेस के साथ कभी हाथ नहीं मिलायेंगे और ना ही उसका साथ देंगे और अगर ऐसा होता है तो वो शिवसेना को ही खत्म कर देंगे.
अब उद्धव के पास कुछ ना बचा, कुर्सी गई, राजनीती पर ग्रहण लग गया और शायद शिवसेना भी. शिव सैनिक जो शिवसेना के साथ थे वो ही अब शिंदे के साथ खड़े होंगे. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही होगा, पर शिवसेना उद्धव की न होकर शिंदे की हो जायेगी. जिसके लिए उद्धव ठाकरे ने कोशिश भी कि ऐसा ना हो, पर ऐसा होगा जरूर.
महाराष्ट्र की राजनीति में सिर्फ इतना-सा बदलाव हुआ है कि हिंदुत्व की वापसी हो गई है, जहाँ एक समय पर कांग्रेस व एनसीपी शिवसेना के पक्ष में बैठी थी वहीं विपक्ष में बैठ कर शिवसेना के ही खिलाफ तमाशा करेगी. उद्धव अब नरम दिल दिखाकर शिंदे व महाराष्ट्र की जनता का दिल जितने की कोशिश कर रहा है, पर ऐसा होगा नहीं. फिर भी ये राजनीति है 'यहां कोई किसी का सगा नहीं, जिसने अपनों को ठगा नहीं.'
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