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Updated: 28 जून, 2016 09:10 PM
न्यूटन मिश्र
न्यूटन मिश्र
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हर जगह, हर माध्यम में कल से सिर्फ एक ही बात दिखाई और सुनाई पड़ रहा है कि - “चीन के कारण भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) का सदस्य देश नहीं हो पाया.” लेकिन, ये सभी लोग भूल बैठे हैं कि इसका दोषी चीन कतई नहीं है, खुद हम भारतीय, हमारी व्यापारिक नीतियाँ और हमारे राजनयिक क्षमता एवं कूटनीतिक पैरोकार की रणनीतिक रफ़्तारें हैं. ध्यान रहे - "हमें अपने दुखों का निवारण खुद करना होगा." कोई दूसरा या तीसरा नहीं करेगा. यह इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि हम सभी जानते हैं -"एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता." लेकिन, चने का कमाल और काबलियत तो देखिये, एनएसजी का सदस्य बनने के लिए अपने नहीं कहा, बल्कि उससे कहलवा डाला और आगे कर जय हो, जय हो करने दिया, उन्हें भारत में परमाणु-संयंत्रों के व्यापर में आपार संभावनाएं भी दिखा दिया. जिन्हें भारत वर्तमान एवं भविष्य का सबसे बड़ा एवं व्यापक खरीदार के साथ-साथ उपयुक्त बाजार दिख रहा है.

भले भारत, भविष्य में इसका बड़ा बाजार बने या न बने यह आगे की बात है, क्योंकि भविष्य के हमारे काबलियत और अनुकूलताओं पर निर्भर करता है. अगर, यही काबलियत हमारे राजनयिक और कूटनीतिक रणनीतियों में जिस समय से दिखानी शुरू हो जायेगी. सच, पूछिए उस समय से ही तमाम अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं या संगठनों का सदस्य बनने के लिए उसके सदस्य देश निमंत्रण के साथ भारत की चाटुकारिता करना शुरू कर देंगे और जी हजुरी भी करने लगेंगे. हमें जरूरत है तो आर्थिक सम्पन्नता लाने कि जो मूर्त होगा एक्सटर्नल और इंटरनल आर्थिक नीतिओं से. तब जा के हम आर्थिक क्षमतावान बन सकेंगें. इसमें एक्सटर्नल आर्थिक रणनीतियों को प्रभावी एवं क्षमतावान बनाने के लिए राजनयिकों को महत्वपूर्ण भूमिका अदा करना पड़ेगा अर्थात जब हमारी रणनीति और कूटनीति दमदार एवं क्रिस्पी होगी, तो अपने आप भारत के लिए अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं या संगठनों का दरवाजा खुलता जायेगा. जो भारत के अनुरूप भी होगा.

अच्छा यह होगा कि भारत NSG (एनएसजी) या किसी भी अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं या संगठनों की सदस्यता के पीछे जी तोड़ जान लगाकर न पड़े और इसे सम्मान का सवाल तो बिलकुल ही न बनाए. वैसे भी, भारत एनएसजी की सदस्यता के बगैर यहाँ तक पहुँच गया है. यह दिक्कत तब भी हमारे साथ ही थी और अब भी हमारे साथ ही है. उसके बावजूद भारत ने हिम्मत, धैर्य एवं संयम से काम किया. हाँ, न बनने से कुछ वर्षो की दिक्कत और है, लेकिन, यह दिक्कत हमारे लिए कोई बड़ी चुनौती भी नहीं है. यह ध्यान में रखते हुए समझना चाहिए कि अमेरिका ने ही भारत को समर्थन का आश्वासन दिया था. यह सौ प्रतिशत साफ़ भी है ऐसा उसने क्यों किया था. इससे सिर्फ उसका ही लाभ नहीं है, निःसंदेह वर्तमान और भविष्य के हमारे भी स्वहित दिखाई पड़ रहें हैं. इसके कईयों कारण हैं, जिनमें जहाँ एक तरफ अमेरिका के भारत के साथ कुछ विशेष आर्थिक हित जुड़े हैं. वहीं दूसरी ओर भारत के आर्थिक उड़ान और सामरिक हितों की रक्षा का सपना. हमें यह भी साफ-साफ समझना चाहिए कि अमेरिका एक निश्चित बिंदु तक ही भारत के लिए पैरवी कर सकता है, उससे आगे बढ़ने कि हिमाकत उसके संसद और न्यायिक ढांचे नहीं करने देंगे. हाँ, ये स्पष्ट है कि इसके बावजूद भी अमेरिका और वे सभी समर्थक देश भारत का समर्थन करते रहेंगे, जिन्हें भारत दुनिया का उभरता एक सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र खरीदार और इसके लिए उपयुक्त बाजार दिखाई दे रहा है.

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नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा

जब हम ऐसे अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं या संगठनों का सदस्य बनना चाहते हैं. खासकर, उन स्थितियों और परिस्थितियों में जब हमें ज्ञात रहता है कि हमारे कई मुखर और शांत प्रतिरोधी समक्ष मौजूद हैं, तब हमें उनके लिए ज्यादा उत्सुकता के बजाए शांत कूटनीतिक तरीके से आर्थिक और राजनयिक रणनीतिक अपनाना चाहिए, जो सबसे बेहतर होता है. इसमें उन सभी सेवानिवृत राजनयिकों का भी सहयोग प्राप्त करना चाहिए जो उन सभी सदस्य देशों में अपनी मजबूत और प्रगाढ़ पकड़ रखते हैं. जो डिप्लोमेसी के हर चाल से वाकिफ हैं, उन्हें पता होता है कि किस चाल पर कौन-सा पत्ता डालना है. जिससे गेम में हर हाथ हमारा हो. स्वभावतः भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बढ़ेगी, तो अपने आप सभी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं या संगठनों के दरवाजे स्वतः खुलते नजर आएंगे. अंतरराष्ट्रीय संबंध और राजनयिक में सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका शांत रणनीति, बिना प्रचार के ग्राउंड और अंडर ग्राउंड शार्प कूटनीतिक मेहनत की होती है. मौजूदा सरकार को ग्राउंड और अंडर ग्राउंड तरीके से शार्प राजनैतिक, राजनयिक और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए.

अंतिम बात यह कि चीन से अधिकतर भारतीयों (चाहें, वो व्यापारी वर्ग हो या अन्य नागरिक) को जब इतनी ही परेशानियाँ है तो इसके निदान के लिए भारत सरकार चाह कर भी कोई कदम नहीं उठा सकती है, खुद भारतीय नागरिकों को कदम उठाना पड़ेगा. कारण है WTO और इसके जैसी अन्य संधिया. इसका तोड़ खुद भारतीय व्यापारियों और यहाँ के उपभोक्ता स्वरूप नागरिकों के पास है. जब भारतीय व्यापारियों द्वारा कम लागत लगाकर अधिक मुनाफे कमाने के चक्कर में चीन निर्मित वस्तुओं का आयात नहीं किया जायेगा और दूसरी तरफ उपभोक्ता समान जनता द्वारा #मेड_इन_चाइना का मोह-माया का त्याग जब तक नहीं किया जायेगा, तब तलक बात बनती नहीं दिखाई देगी. हम जितना मेड इन चाइना का उपभोग करेंगे, हम उतने ही चीन को सिर्फ आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामरिक मजबूती प्रदान करते जायेंगे. यह निर्णय भारत के नागरिकों के हाथ में हैं कि उन्हें थोड़ा-सी महँगी स्वदेशी या अन्य देशों की निर्मित वस्तुएं खरीदकर, कुछ कष्ट सहन कर, कुछ सुख-सुविधाओं का एक निश्चित समय के लिय त्याग कर भारत को अर्थात अपने आप को आर्थिक संपन्न बनाना है या और दलदल में फंसते जाना है?

लेखक

न्यूटन मिश्र न्यूटन मिश्र @newtonrockstar4sep

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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