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Updated: 10 नवम्बर, 2015 04:32 PM
संतोष कुमार
संतोष कुमार
  @santoshtvtoday
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'दिवाली बाद होगी बीजेपी के बयान बहादुरों पर कार्रवाई' हर चुनाव के बाद ऐसा ही होता है. लगता है जैसे कुछ बयानों के कारण बीजेपी हार गई. ये जनादेश का मज़ाक नहीं तो क्या है? ये वोटर को कम आंकने के अलावा क्या है?

ताज्जुब और दुख दोनों हो रहा है. सर्वे गलत साबित हुए. एक्जिट पोल के नतीजे गलत निकले. एक नहीं, कई चुनावों में. लेकिन न पार्टियां समझने को तैयार हैं, न पत्रकार. 8 नवंबर से पहले नेता ताल ठोक कर दावे कर रहे थे और पत्रकार विश्लेषण. मगर ताज्जुब इस बात का है कि नतीजे आने का बाद भी चश्मा बदल नहीं रहे. ज़्यादातर सर्वे और एक्जिट पोल में या तो ये दावा किया गया एनडीए को बढ़त है या फिर आकाशवाणी के अंदाज में बताया गया कि टक्कर कड़ी होगी. आकाशवाणी इसलिए क्योंकि अब ये साबित हो चुका है कि सर्वे या तो वैज्ञानिक तरीके से नहीं या फिर सही सवाल नहीं पूछे गए.

देश में यही दुखद परिपाटी है. हर चुनाव के बाद एक जैसे जुम्ले ही फेंके जाते हैं. चुनाव जीते/हारे क्योंकि जातिय समीकरण ने काम किया/नहीं किया. सोशल इंजीनियरिंग का कमाल है जी. फलां नेता का चेहरा था. फलां पार्टी ने इतने दलितों को टिकट दिए, इसलिए जीते. अगड़ों और ओबीसी के वोट एकतरफा गिर गए, इसलिए हारे. हिंदू या मुस्लिम ध्रुवीकरण हो गया. यानी यही साबित करने की कोशिश होती है कि हार और जीत दोनों ही स्थिति में नेता ही सुपरस्टार होते हैं, उनके फैसले जिम्मेदार होते हैं. ताज्जुब ये है कि ये चुनावी पंडिताई अगले ही चुनाव में धराशाई हो जाती है. कोई ये समझने को तैयार नहीं कि नेताओं का 'सुपरस्टार युग' चला गया. अब हर चुनाव में वोटर ही सुपरस्टार होता है. वोटर अब बदल गया है. वोटर अब सोचता है कि वोट किसी को देना है तो क्यों देना है और क्यों नहीं. वोटर तोलता है कि किसको वोट देने से फायदा होगा. ज़रा दिल्ली चुनाव के बारे में सोचिए. दिल्ली विधानसभा चुनावों से तुरंत पहले बीजेपी ने सातों लोकसभा सीटें जीत लीं. कहा गया कि मोदी लहर है. लेकिन मोदी लहर थी तो विधानसभा चुनावों में बीजेपी की नैया पार क्यों नहीं लगी? आम आदमी पार्टी को 70 में से 67 सीटें मिलीं. क्या केजरीवाल का करिश्मा था? केजरीवाल का करिश्मा था तो लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मुंह की क्यों खानी पड़ी? संदेश साफ था. तब बीजेपी समझ पाती तो अब बिहार से बाहर न होती. 49 दिन में केजरीवाल ने तुलनात्मक रूप से बेहतर काम किया तो वोटरों ने दूसरा मौका दिया. लोकसभा चुनाव में मोदी के वादे थे. और कोई विकल्प नहीं था. केजरीवाल मैदान में थे ज़रूर. लेकिन मतदाता जानते थे कि केजरीवाल भले बेहतर हैं लेकिन विकल्प नहीं हैं...पता था सातों सीटें जिता भी दीं तो भी हमारे सांसदों को विपक्ष के पाले में बैठना होगा. सो बीजेपी को सातों सीटें दे दीं. ये भी समझिए जिस मोदी को वोटर ने लोकसभा चुनाव में जिताया, और जिसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में हराया उसी मोदी को फिर महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में जीत दिलाई. हरियाणा और महाराष्ट्र में कोई विकल्प नहीं था सिर्फ इसलिए जनता को मोदी की मंडली अच्छी लगी. मतलब मोदी तो वही थे लेकिन वोटर अलग-अलग फैसले लेता गया. अपनी सहूलियत से, अपने फायदे के लिए.

अब बिहार को समझिए. मोदी सरकार ने करीब दो साल में बोलने के सिवा कुछ किया नहीं. नीयत और नीतियां होंगी भी तो इसके नतीजे अभी तक आम आदमी के घर नहीं पहुंचे हैं. तो किस बूते गए थे चुनाव लड़ने? कुछ मुद्दे थे. काम न आए. आएंगे भी नहीं. सामने थे नीतीश. नीतीश ने काम किया था. कितना काम, इस पर बहस मुमकिन है. लेकिन कुछ तो किया ही था. और काम नहीं तो माहौल तो बेहतर किया ही था. आप बिहार में रहने वाले किसी भी शख्स से पूछिए-क्या नीतीश के शासन में चीज़ें पहले से बेहतर हुई थीं? जवाब हां में मिलेगा. आज वोटर कितना जोखिम उठाने को तैयार है ये भी देखिए. नीतीश को पहली बार जनादेश लालू राज से छुटकारा पाने के लिए मिला था? आज नीतीश ने उसी लालू से हाथ मिला लिया. इसे सार्वजनिक धोखाधड़ी भी कहा जा सकता है. फिर भी जनता ने नीतीश को सज़ा नहीं दी. क्यों? कहना चाहें तो इसे वोटर का स्वार्थ कह सकते हैं. धोखाधड़ी के बाद भी वोटर ने नीतीश के कंधे पर सवार लालू को स्वीकार किया क्योंकि उसने देखा था कि नीतीश राज में चीज़ें बेहतर हुईं. अगर नीतीश साथ हों तो बिहार को वो कांग्रेस भी मंजूर है जिसका पिछले कई चुनावों में बुरा हाल हो चुका है. ये है आज का वोटर. जाती, धर्म, बीफ, आरक्षण, अस्मिता, बाहरी, भीतरी. बेमानी. कसौटी एक ही है. काम करने के लिए भेजा है. काम करो. नहीं करोगे तो आपकी ज़रूरत नहीं. अब गांवों में भी वोटर किसी चुनावी चश्मे से दुनिया देखने को मज़बूर नहीं. अब वो आपके 'दूरदर्शन' के भरोसे नहीं है. डिश टीवी का ज़माना है. आप बिजली नहीं देंगे तो सोलर पैनल का जुगाड़ है. एक्सपोज़र बढ़ गया है. दुनिया उसने देख ली है. अब दुनिया भर की सुविधाएं चाहिए, और अभी चाहिए. नीतीश-लालू भी आज ये समझ लें तो कल आसानी होगी.

दुख इस बात का है कि शायद इसे समझकर भी नेता और कथित बुद्धिजीवी स्वीकारने को तैयार नहीं. वजह ये हो सकती है कि काम करना मुश्किल है और भाषण देना आसान. वैसे भी काम पांच साल करना होगा. भाषण और रैलियों की मेहनत सिर्फ चुनावी महीनों में. फर्जी मुद्दों की सवारी करेंगे तो रेस नहीं जीत पाएंगे, तय है. यही हाल रहा तो एक्जिट पोल आगे भी गलत होंगे. सर्वे सफेद झूठ साबित होंगे. और चुनाव के नतीजे ऐसे ही चौंकाने वाले होंगे.

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लेखक

संतोष कुमार संतोष कुमार @santoshtvtoday

लेखक दिल्‍ली आज तक में पत्रकार हैं.

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