Exit poll: पांचों चुनावी राज्यों में आखिर कांग्रेस के पतन की वजहें क्या हैं?
कांग्रेस (Congress) के लिए पिछले कुछ चुनावों नतीजे बहुत मुश्किल साबित हुए हैं. वहीं, हालिया 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों को लेकर किए गए इंडिया टुडे-एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल के अनुमानित आंकड़े भी कांग्रेस के पतन की ही कहानी कह रहे हैं.
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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों से पहले आए इंडिया टुडे-एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल के आंकड़ों ने निश्चित रूप से कांग्रेस को निराशा से भर दिया होगा. उत्तर प्रदेश में जहां कांग्रेस 1-3 सीटों पर सिमटती नजर आ रही है. वहीं, पंजाब में सत्ता से हाथ धोती दिखाई पड़ रही है. गोवा में फिर एक बार कांटे की टक्कर के बीच सत्ता की चाभी छोटे दलों के पास नजर आ रही है. उत्तराखंड में भी कांग्रेस तमाम जतन के बाद सत्ता से बाहर ही रहने का अनुमान है. वहीं, मणिपुर में भी एग्जिट पोल कांग्रेस के सिकुड़ने का अंदेशा जता रहे हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस के लिए मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं. हर विधानसभा चुनाव के साथ राज्य दर राज्य कांग्रेस सिमटती जा रही है. इसके बावजूद कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार सभी तरह की चिंताओं को दरकिनार करते हुए राहुल गांधी को विपक्ष का सर्वस्वीकार्य नेता बनाने की जिद पकड़े बैठा है. कांग्रेस के लिए हालात इस कदर बुरे हैं कि उत्तर प्रदेश में अपनी पूरी ताकत झोंक देने वाली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का चेहरा भी एग्जिट पोल में पार्टी को दहाई के आंकड़े में सीटें नहीं दिलवा पा रहा है. आइए जानते हैं कि पांचों चुनावी राज्यों में कांग्रेस कैसे पहुंची ऐसे बुरे हालात में...
इंडिया टुडे-एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल के आंकड़ों ने निश्चित रूप से कांग्रेस को निराशा से भर दिया होगा.
चुनावी मैनेजमेंट में फेल रही, खत्म नहीं कर सकी नेताओं का सत्ता लोभ
2014 के आम चुनाव के बाद कांग्रेस नेताओं और विधायकों का सत्ता लोभ पार्टी के लिए सबसे बड़ी समस्या के तौर पर उभर कर सामने आया. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि मणिपुर में भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया. लेकिन, सत्ता से बाहर हो जाने के डर से कई कांग्रेस विधायकों ने पाला बदलने को ज्यादा तरजीह दी. और, कांग्रेस के साथ समस्या ये रही कि वह इन नेताओं के बागी होने को रोक पाने में पूरी तरह से असमर्थ रही. मणिपुर की बात की जाए, तो 2012 के मणिपुर विधानसभा चुनाव में एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं कर पाने वाली भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 2017 में 21 सीटों पर जीत हासिल की थी. और, इस जीत के साथ भाजपा को पहली बार सत्ता में पहुंचाने वाले एन बीरेन सिंह रहे. जो कांग्रेस के पुराने नेता थे. दरअसल, 2002 से 2017 तक मणिपुर में कांग्रेस नेता ओकरम इबोबी सिंह मुख्यमंत्री बनकर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार चलाते रहे. और, मणिपुर में अच्छा-खासा प्रभाव रखने वाले एन बीरेन सिंह के लिए मुख्यमंत्री पद की ओर जाने वाला रास्ता बंद ही रहा.
यही वजह रही कि 2017 के विधानसभा चुनाव से करीब 6 महीने पहले एन बीरेन सिंह ने कांग्रेस का हाथ छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया. इसका नतीजा ये हुआ कि 2012 के विधानसभा चुनाव में 42 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2017 में 28 सीटें ही हासिल कर सकी. वहीं, भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 21 सीटें जीतीं. लेकिन, सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बावजूद कांग्रेस सत्ता पर काबिज नहीं हो सकी. भाजपा ने छोटे दलों के साथ गठबंधन को वरीयता दी. वहीं, कांग्रेस के 8 विधायक भी भाजपा में शामिल हो गए.भाजपा ने पूर्व कांग्रेस नेता रहे एन बीरेन सिंह के राजनीतिक अनुभव और संबंधों को भरपूर तवज्जो दी. और, इसका सीधे तौर पर फायदा भाजपा को मिला. एक तरह से देखा जाए, तो मणिपुर में भाजपा काफी हद तक कांग्रेस के ही बागी विधायकों के भरोसे है. इस बार के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस अपने बागी विधायकों से ही जूझती दिखी. जबकि, बीते चुनाव में गठबंधन के सहारे सरकार बनाने वाली भाजपा ने अकेले दम पर ही चुनाव में उतरी है.
कमोबेश गोवा में भी कांग्रेस का मणिपुर जैसा ही हाल रहा. मणिपुर की तरह ही गोवा में भी सत्ता की चाभी छोटे स्थानीय दलों के हाथों में रही है. वहीं, यह राज्य अपनी राजनीतिक अस्थिरता के लिए भी जाना जाता है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस के सबसे बड़ा दल बनने के बावजूद पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने गोवा में सरकार बनाई. चुनाव के बाद होने वाले मैनेजमेंट में कांग्रेस पूरी तरह से विफल नजर आई है. हालांकि, इसका बड़ा कारण कांग्रेस व अन्य राजनीतिक दलों के विधायकों का सत्ता लोभ ही कहा जाएगा. लेकिन, देश की सबसे पुरानी पार्टी के तमगे वाली कांग्रेस के लिए चुनावी मैनेजमेंट में कमजोरी उसके पतन का बड़ा कारण बनकर उभरी है.
आंतरिक कलह, राज्य के मूड भांपने में नाकामी और नया नेतृत्व तैयार करने में देरी
पांच चुनावी राज्यों में से पंजाब और उत्तराखंड की बात की जाए, तो इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस को आंतरिक कलह ले डूबी. इंडिया टुडे-एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल के अनुमानित आंकड़ों के मद्देनजर ये बात काफी हद तक स्पष्ट हो जाती है. पंजाब में कांग्रेस के 'ओल्डगार्ड' कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ पार्टी आलाकमान यानी गांधी परिवार ने ही विद्रोह को हवा दी. नवजोत सिंह सिद्धू के सहारे कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व कैप्टन अमरिंदर सिंह को पार्टी से बाहर निकालने में सफल हो गया. लेकिन, अमरिंदर सिंह के जाते ही पंजाब में कांग्रेस दर्जनों गुटों में बंट गई. सुनील जाखड़ से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू तक हर कोई खुद को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए हाथ-पैर मारने लगा. इस बीच कांग्रेस आलाकमान ने चरणजीत सिंह चन्नी को पहला दलित सीएम बनाने का दांव खेला. लेकिन, गांधी परिवार के इस दांव से सुनील जाखड़ खफा हुए, तो हिंदू मतदाता कांग्रेस से दूर होते नजर आए. वहीं, दशकों तक पंजाब की सत्ता के शीर्ष पर रहने वाले जट सिख भी चन्नी को सीएम बनाने के दांव से कांग्रेस से खफा नजर आए.
वहीं, उत्तराखंड में कांग्रेस को आंतरिक कलह के साथ ही नया नेतृत्व तैयार करने में देरी करने से नुकसान होता दिखाई पड़ रहा है. दरअसल, उत्तराखंड में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत लंबे समय से पार्टी पर अपना आधिपत्य जमाए हुए हैं. जिसके चलते उत्तराखंड में कांग्रेस का नया नेतृत्व तैयार नहीं हो सका. प्रीतम सिंह की अगुवाई वाले रावत विरोधी गुट के चलते उत्तराखंड में आंतरिक कलह अपने चरण पर पहुंच चुकी थी. चुनाव से पहले ही सीएम कैंडिडेट के नाम पर हरीश रावत और प्रीतम सिंह के गुटों के बीच तलवारें खिंची हुई थीं. इस चुनाव में भी हरीश रावत को कांग्रेस आलाकमान की ओर से एक और मौका देने की कोशिश की गई. जिससे निश्चित तौर पर कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में नाराजगी फैलना लाजिमी है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस आलाकमान को पंजाब और उत्तराखंड में आंतरिक कलह, नया नेतृत्व तैयार करने में देरी और राज्य का मूड न भांप पाने का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.
यूपी में नेतृत्व का मौका, लेकिन रोड़ा बना गांधी परिवार का अहंकार
उत्तर प्रदेश में तीन दशक से ज्यादा समय से बाहर रहने वाली कांग्रेस के लिए सूबे में अपनी जड़ें बचाए रखने की चुनौती थी. जिसे देखते हुए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने धुआंधार चुनावी प्रचार और जमीनी मुद्दों पर बेहतरीन पकड़ के साथ पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. लेकिन, जब प्रियंका गांधी के सामने खुद को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश करने का मौका आया, तो उन पर गांधी परिवार का अहंकार हावी हो गया. दरअसल, गांधी परिवार का कोई भी सदस्य विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा है. और, प्रियंका गांधी के सीएम फेस बनने से इनकार करने के फैसले ने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से रसातल में पहुंचा दिया. महिला केंद्रित चुनाव प्रचार के बावजूद महिलाओं का भरोसा जीतने में कांग्रेस कामयाब नहीं हो सकी. आसान शब्दों में कहा जाए, तो सही समय पर सही फैसले न ले पाने में गांधी परिवार की अकुशलता ने ही पार्टी को उत्तर प्रदेश में आज खत्म होने की कगार पर पहुंच गई है.
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