'ढाई राज्यों' के किसान आंदोलन के खत्म होने का समय आ गया है?
सिंघु बार्डर पर हुई हत्या (Singhu Border Murder) समेत तमाम आरोपों की कालिख से पुता किसान आंदोलन (Farmers Protest) अब अराजकता और हिंसा (Violence) का अड्डा बनता जा रहा है. राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) सरीखे कथित किसान नेताओं की बक्कल उतारने वाली संस्कृति को अपनाना किसानों के लिए नुकसानदायक हो गया है.
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तारीख: 15/10/2021
स्थान: सिंघु बॉर्डर, दिल्ली
पूरा देश 'असत्य पर सत्य की विजय' के रूप में मनाए जाने वाले विजयदशमी पर्व के उत्साह से लबरेज नजर आ रहा था. लेकिन, इसी बीच खबर आई कि दिल्ली के सिंघु बॉर्डर (Singhu Border) पर चल रहे किसान आंदोलन के मंच के पास लगी बैरिकेडिंग पर बेदर्दी से कत्ल कर एक युवक का शव लटका दिया गया है. क्रूरता की पराकाष्ठा को पार करते हुए युवक का हाथ काटकर भी शव (Singhu Border Murder) के पास लटका दिया गया था. और, ये सब उसी किसान आंदोलन (Farmers Protest) में हुआ जिस पर बीते कुछ महीनों में पहले भी हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की कालिख पुत चुकी है. इसी किसान आंदोलन के नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) और योगेंद्र यादव (Yogendra Yadav) लखीमपुर खीरी हिंसा (Lakhimpur Kheri Violence) में 3 भाजपा कार्यकर्ताओं की मौत को जायज ठहराने के लिए तर्क और तथ्य गढ़ रहे थे. इस हिसाब से ये हत्या भी कोई बड़ी बात नहीं है.
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिस्सों यानी 'ढाई राज्यों' के किसान आंदोलन ने इस साल गणतंत्र दिवस पर ही उग्र अराजकता को अपना लिया था. लेकिन, अब यह हिंसक और उपद्रवी होने की सीमा को पार कर चुका है. किसान आंदोलन की वजह से आगे भी जो कुकृत्य किये जाएंगे, उन्हें भी न्यायोचित ठहराने की व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा ही दिये गए हैं. मुझे याद आता है महाराष्ट्र के अन्ना हजारे का दिल्ली में किया गया 'आंदोलन'. आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे को 'लोकपाल कानून' के लिए पूरे देश से समर्थन मिला था. एक ऐसा शख्स जिसे महाराष्ट्र से बाहर शायद ही कोई जानता हो, उस अन्ना हजारे के आंदोलन के आगे केंद्र सरकार को झुकना पड़ा था. लेकिन, करीब एक साल से चल रहे किसान आंदोलन की अन्ना हजारे जैसे आंदोलन की तरह विश्वसनीयता ही नहीं बन पाई. और, इसके जिम्मेदार संयुक्त किसान मोर्चा के किसान नेता ही हैं.
किसान आंदोलन अराजकता और हिंसा का प्रतिबिंब बनता जा रहा है.
केंद्र सरकार बीते साल तीन नए कृषि कानून लाई थी. लेकिन, किसानों के विरोध-प्रदर्शन को देखते हुए इन कृषि कानूनों को डेढ़ साल के लिए टाल दिया गया था. केंद्र सरकार चाह रही है कि किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं के साथ बातचीत कर इन कृषि कानूनों के लिए रास्ता बनाया जाए. लेकिन, संयुक्त किसान मोर्चा के कथित किसान नेताओं ने राजनीतिक चादर ओढ़ते हुए इन कृषि कानूनों के रद्द न होने तक किसान आंदोलन चलाने की घोषणा कर दी. देश की राजधानी के बॉर्डरों को इन कथित किसानों ने कब्जा कर लिया है. इन कथित किसान नेताओं द्वारा हमेशा से ही ये तर्क दिया जाता है कि हम तो एक किनारे बैठे हैं और लोगों का रास्ता रोकने का काम पुलिस ने बैरिकेडिंग लगा कर किया है. सोचकर देखिये कि पुलिस ने हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम देने वाले और इन घटनाओं को तर्कसंगत बताने वाले कथित किसानों के लिए बैरिकेडिंग लगाई है, तो क्या गलत किया है? अगर इन्हें एक जगह ना रोका गया, तो ये इसी साल 26 जनवरी जैसी ही अराजकता का प्रदर्शन पूरे देश में करने लगेंगे.
किसान आंदोलन में खालिस्तान समर्थकों, अर्बन नक्सलियों, पाकिस्तान प्रेमियों जैसे लोगों की संख्या को पहले संयुक्त किसान मोर्चा ने किसानों की तादात बताया. अब ऐसी घटनाओं के होने पर वह कभी निहंग सिखों, कभी भाजपा के एजेंट होने, कभी किसान आंदोलन को खत्म करने की साजिशों के आरोप लगाकर खुद को बचाने की कोशिश कर रहा है. कहना गलत नहीं होगा कि अगर यह वास्तव में किसान आंदोलन होता, तो इसे अपनेआप ही देशभर से समर्थन मिलता. लेकिन, यह किसान आंदोलन न होकर राजनीतिक स्वार्थों को साधने का हथियार बन गया है. ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि किसान आंदोलन की नींव ही उग्रवाद को बढ़ावा देने के लिए रखी गई है. 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों और लाल किले पर हुई अराजकता के बाद कई किसान संगठनों ने आंदोलन वापस ले लिया था. लेकिन, राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव सरीखे कथित किसान नेताओं ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए इस आंदोलन को अपने आंसुओं के सहारे फिर से खड़ा कर दिया.
दिल्ली के बॉर्डरों पर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में से चलाया जा रहा किसान आंदोलन 26 जनवरी के बाद से ही अराजकता का अड्डा बन चुका है. भाजपा नेताओं को निर्वस्त्र करना, उनके काफिले पर पत्थरबाजी करना, उन्हें बंधक बना लेना और संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में आने पर रोक लगा देना किसान आंदोलन के कथित किसानों का मुख्य शगल हो गया है. बक्कल उतारने वाली संस्कृति लिए राकेश टिकैत सरीखे कथित किसान नेता अब अपना बनाया कानून लागू कर रहे हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो यह एक चुनी हुई सरकार के खिलाफ विद्रोह है, जो सीधे तौर पर राजद्रोह कहा जा सकता है. संविधान में आवाज उठाने का हक सभी को प्रदत्त है, लेकिन अराजकता की कीमत पर नहीं.
सुप्रीम कोर्ट लंबे समय से इन कथित किसान नेताओं से कह रही है कि आंदोलन के लिए सड़कों का घेराव ना करें. लेकिन, केंद्र और राज्य की सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति के आगे ये बर्बर और उपद्रवी कथित किसान अपनी मनमानियां करने पर उतारू हो गए हैं. किसान आंदोलन की विश्वसनीयता रसातल में जा चुकी है. क्योंकि, किसानों के नाम पर शुरू हुआ आंदोलन अब राजनीतिक रंग ले चुका है. इस स्थिति में अब तक हुई और भविष्य में हो सकने वाली घटनाओं की संभावना को देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि 'ढाई राज्यों' के किसान आंदोलन के खत्म होने का समय आ गया है.
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