Farmers protest: सड़क रोक देना लोकतांत्रिक है, तो इंटरनेट बैन क्यों नहीं?
सोशल मीडिया पर 'इमोशनल ट्रैप' सबसे भयावह चीज माना जा सकता है. अफवाहों को फैलाने के लिए इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. सोशल मीडिया पर किसान आंदोलन से जुड़े पेजों पर जब ये तस्वीर और वीडियो वायरल हुए होंगे, तो क्या किसानों का गुस्सा और नहीं भड़का होगा. क्या आप इस संभावना को पूरी तरह से दरकिनार कर सकते हैं.
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दिल्ली की सीमाओं पर कृषि कानूनों के खिलाफ करीब ढाई महीनों से किसान आंदोलन (Farmer Protest) जारी है. किसान नेताओं ने 6 फरवरी को देश भर में चक्का जाम (Chakka Jam) करने की घोषणा की है. किसान संगठनों ने तीन घंटों के लिए चक्का जाम का आह्वान किया है. भारतीय किसान यूनियन (BKU) के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने किसानों से देश भर के शांतिपूर्ण तरीके से चक्का जाम करने को कहा है. संयुक्त किसान मोर्चा के मुताबिक, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली में चक्का जाम नहीं होगा. बाकी देश भर में राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों को दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक जाम किया जाएगा. 26 जनवरी को दिल्ली में भड़की हिंसा के बाद से ही किसान आंदोलन के धरना स्थलों के आस-पास के क्षेत्र में इंटरनेट बैन लगा दिया गया. इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय हस्तियों समेत बुद्धिजीवी वर्ग के तमाम लोगों ने अपनी आपत्ति जाहिर की. सरकार के इस फैसले की निंदा की जा रही है. लेकिन, विरोध प्रदर्शन के नाम पर चक्का जाम कर देना 'लोकतांत्रिक' है. चक्का जाम के इस लोकतांत्रिक अधिकार से देश की आम जनता को होने वाली समस्या पर कोई सवाल क्यों नही उठाता है. क्या किसानों का प्रदर्शन इंटरनेट की बहाली के लिए किया जा रहा है? ये सवाल उठने लाजिमी हैं. अगर चक्का जाम लोकतांत्रिक है, तो सरकार द्वारा लगाया गया इंटरनेट बैन क्यों लोकतांत्रिक नहीं हो सकता है?
क्यों जरूरी है इंटरनेट बैन?
अंतरराष्ट्रीय हस्तियों ने किसान आंदोलन में इंटरनेट बैन को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार ने भी अपने हालिया ट्वीट में अभिव्यक्ति के अधिकार को लेकर इंटरनेट बैन की ही बात कही है. किसान आंदोलन और चक्का जाम जैसी स्थितियों में इंटरनेट बैन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण और जरूरी है. सोशल मीडिया के इस दौर में इंटरनेट बैन की वजह से अफवाहों पर पूरी तरह से नियंत्रण पाया जा सकता है. दरअसल, ग्राउंड जीरो से कथित पत्रकार, एक्टिविस्ट और किसान किसी भी घटना का अपने तरीके से प्रसारण करते हैं. सोशल मीडिया पर ऐसी चीजें बहुत तेजी से वायरल होती हैं. इन लोगों की मॉडस ऑपरेंडी है 'इमोशनल ट्रैप'. इस इमोशनल ट्रैप को गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई किसान की मौत से समझ सकते हैं. सोशल मीडिया पर इन कथित पत्रकारों, एक्टिविस्ट और किसानों ने इसे पुलिस की गोली से हुई मौत बताया था. इस घटना की तमाम तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया में कुछ ही मिनटों पर हर पेज पर तैरने हुए दिखाई दे रहे थे. लोगों ने मान लिया था कि दिल्ली पुलिस की गोली से उस किसान की मौत हुई है. लेकिन, देर शाम दिल्ली पुलिस ने वीडियो जारी कर बताया कि वो किसान ट्रेक्टर से स्टंट करने की कोशिश में मारा गया था. उसे पुलिस ने गोली नहीं मारी थी. इन तस्वीरों और वीडियो की वजह से दिल्ली में और हिंसा भड़की थी, इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है.
सोशल मीडिया का 'इमोशनल ट्रैप'
सोशल मीडिया पर 'इमोशनल ट्रैप' सबसे भयावह चीज मानी जा सकती है. अफवाहों को फैलाने के लिए इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. सोशल मीडिया पर किसान आंदोलन से जुड़े पेजों पर जब ये तस्वीर और वीडियो वायरल हुए होंगे, तो क्या किसानों का गुस्सा और नहीं भड़का होगा. क्या आप इस संभावना को पूरी तरह से दरकिनार कर सकते हैं कि हो सकता है, दिल्ली में और भीषण रूप से हिंसा फैल सकती थी. इस तरह के 'इमोशनल ट्रैप' चक्का जाम और आंदोलन के समय उपद्रवियों और अराजक तत्वों के मुख्य हथियार होते हैं. इनके लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर डाली गई तस्वीर और वीडियो मिनटों में वायरल होते हैं. लाखों लोगों तक पहुंच जाते हैं. इन सोशल मीडिया पोस्ट पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. कुछ लोग सोशल मीडिया पर फैक्ट चेक की बात भी करते हैं. लेकिन, फैक्ट चेक करने और उसे हटाने के बीच में वो तस्वीरें और वीडियो कितना नुकसान कर चुकी होंगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.
जिम्मेदारी लेने से बच नहीं सकते किसान संगठन
इंटरनेट बैन और मानवाधिकार को लेकर अंतरराष्ट्रीय हस्तियों के ट्वीट फिलहाल किसान आंदोलन के लिए बिलकुल मुफीद है. ठीक वैसे ही, जैसे कुछ महीनों पहले पंजाबी अभिनेता दीप सिद्धू (Deep Sidhu) था. अपनी फर्राटेदार अंग्रेजी से उसने किसानों के बीच तुरंत जगह बना ली थी. 26 जनवरी को दिल्ली हिंसा भड़कने तक वो किसान आंदोलन से जुड़ा हुआ बड़ा चेहरा था. लेकिन, गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली में हुई हिंसा और अराजकता के नंगे नाच के बाद किसान नेताओं ने उसके आंदोलन से जुड़े होने की बात से सीधे तौर पर किनारा कर लिया था. किसान संगठनों ने उपद्रवियों को लेकर कहा था कि ये लोग किसान नहीं भाजपा के आदमी थे. ये किसान आंदोलन की छवि को खराब करने के लिए साजिशन किसान के बीच घुस गए थे. कुल मिलाकर इन किसान संगठनों ने उपद्रवी तत्वों से संबंधों को लेकर पल्ला झाड़ लिया था. लेकिन, यही लोग इनके मंच पर भी नजर आ चुके थे. दिल्ली हिंसा का मुख्य आरोपी दीप सिद्धू लंबे समय से किसानों के बीच रह रहा था. उसे आंदोलन से दूर करने के लिए किसान संगठनों ने कोशिश क्यों नहीं की. जब लोगों ने इसे लेकर सवाल उठाए, तो इन्ही संगठनों ने कहा था कि ये आंदोलन को खत्म करने की कोशिश है. हमारे आंदोलन में कोई खालिस्तान समर्थक या टुकड़े-टुकड़े गैंग का व्य़क्ति नहीं है.इन तमाम बातों के बीच एक बात ये भी ध्यान देने वाली है कि पंजाब की कांग्रेस सरकार ने दिल्ली हिंसा में आरोपी बनाए गए किसानों को कानूनी सहायता दिलाने के लिए 70 वकीलों की टीम बनाई है. सवाल यहां भी उठ रहे हैं कि जब ये लोग भाजपा के हैं और किसान नहीं हैं, तो पंजाब सरकार इन्हें क्यों रिहा कराने में जुटी हुई है?
लोकतांत्रिक अधिकार दूसरों पर अतिक्रमण की इजाजत नहीं देते
अंतरराष्ट्रीय हस्तियों का कहना है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन को रोकना नहीं चाहिए और इंटरनेट बैन नहीं होना चाहिए. किसान संगठन भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आड़ लेकर अपने विरोध प्रदर्शन को सही ठहराने लगे हुए हैं. जबकि, सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि कोई भी व्यक्ति या समूह सार्वजिनक स्थानों को ब्लॉक नहीं कर सकता है. सार्वजिनक स्थानों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नही किया जा सकता है. खैर, ऐसे में क्या सही माना जाए और क्या गलत, ये अलग ही मामला है. मान लिया कि चक्का जाम और ट्रैक्टर परेड जैसे प्रदर्शन लोकतांत्रिक अधिकारों में आते हैं. लेकिन, किसान संगठन अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की आड़ में देश की आम जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों पर अतिक्रमण क्यों कर रहे हैं? सवाल इस पर भी उठेगा. 6 फरवरी को होने वाले तीन घंटे के चक्का जाम से लोगों को होने वाली असुविधा का जिम्मेदार कौन होगा. किसान संगठन हर बार की तरह इस मामले पर भी पल्ला झाड़ लेता है और अपनी जिम्मेदारी से भागता हुआ दिखता है. किसान संगठनों के चक्का जाम से आम जनता को होने वाली असुविधा के लिए सरकार को जिम्मेदार क्यों बनाया जाता है. आम जनता की असुविधा के प्रति ये किसान संगठन संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाते हैं. एंबुलेंस, इमरजेंसी सरकारी वाहनों को रास्ता देने भर से किसान संगठन अपनी जिम्मेदारी खत्म मान लेते हैं. लेकिन, इस चक्का जाम की वजह से आम लोगों को होने वाली परेशानी से इनको कोई लेना-देना ही नहीं होता है. किसान हर बात का ठीकरा सरकार पर नहीं फोड़ सकते हैं. इन संगठनों की खुद की भी कोई जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए.
जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल करने में काम आया इंटरनेट बैन
किसान आंदोलन से पहले जम्मू-कश्मीर में भी इंटरनेट बैन करने को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत पर दबाव बनाने और बदनाम करने की कोशिश की गई थी. इसे दरकिनार करते हुए भारत सरकार ने धीरे-धीरे पाबंदियां हटाई थीं. केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त 2019 को धारा 370 खत्म कर दिया था. केंद्र सरकार ने जनवरी 2020 में इंटरनेट से बैन हटा दिया था. लेकिन, इसे 2जी स्पीड और कुछ वेबसाइट के लिए ही किया गया था. सरकार ने मार्च 2020 में सोशल मीडिया पर लगा बैन भी हटा दिया था. वहीं, अब जम्मू-कश्मीर में 4जी सेवा भी पहले की तरह शुरू कर दी गई है. सरकार ने 18 महीनों बाद इसे फिर से शुरू करने का फैसला लिया है. इस दौरान सरकार को राज्य में होने वाली हिंसा से निपटने में काफी सहयोग मिला. दरअसल, आतंकवादियों के सेना के सामने फंसने की स्थिति में आतंकियों के लिए काम करने वाले ग्राउंड वर्कर्स इंटरनेट का इस्तेमाल कर पत्थरबाजों को इकट्ठा कर लेते थे. ये लोग सेना पर पत्थरबाजी करते थे और इसी का फायदा उठाकर आतंकी बच निकलते थे. धारा 370 हटने के बाद आतंकवादियों के बड़ी संख्या में एनकाउंटर किए गए. इंटरनेट बंद होने से पत्थरबाजों के पास एनकाउंटर साइट की लोकेशन नहीं पहुंच पाती थी. इंटरनेट की 2जी स्पीड के चलते आतंकवादियों का एक बड़ा नेटवर्क सेना ने ध्वस्त कर दिया था. सरकार ने हिंसा भड़कने की आशंका के चलते कुछ बड़े नेताओं को उनके घरों में नजरबंद भी किया गया था. इस दौरान कश्मीर में शांति बनी रही. आतंकी हमलों से बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों और सेना के जवानों की जान भी बची.
कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी टूल है इंटरनेट बैन
कानून-व्यवस्था बनाए रखने में इंटरनेट बैन बहुत जरूरी है. देश भर में हुए CAA विरोधी दंगों के चलते कई जगहों पर इंटरनेट बैन किया गया था. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ, कानपुर समेत कई शहरों के कुछ विशेष हिस्सों में इंटरनेट पर पाबंदी लगाई गई थी. इस पाबंदी की वजह से पुलिस प्रशासन को कानून-व्यवस्था बनाए रखने में काफी मदद मिली. अफवाहों का फैलना पूरी तरह से बंद हो गया. किसान संगठन इंटरनेट बैन को राजनीतिक रंग देने के लिए कह सकते हैं कि विरोध प्रदर्शन को खत्म करने या दबाने के लिए पाबंदी लगाई जा रही है. लेकिन, कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए इंटरनेट बैन जरूरी है. कुल मिलाकर किसान संगठनों को अपनी जिम्मेदारियों से भागना नहीं चाहिए. आप हिंसा फैलाने वाले किसानों को भाजपा का आदमी भी बताएंगे और उन्ही किसानों को छोड़ने के लिए सरकार पर दबाव भी बनाएंगे. ये रवैया किसी भी हाल में सही नहीं माना जा सकता है. 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली से भड़की हिंसा के बाद इंटरनेट पर पाबंदी लगाई गई. इस बैन की जिम्मेदारी भी किसान संगठनों को ही लेनी चाहिए. देश भर में किए जा रहे चक्का जाम में अगर कोई अप्रिय घटना घटती है, तो किसान संगठन उससे अपना पल्ला झाड़ लेंगे. आम जनता के अधिकारों का हनन करते हुए चक्का जाम करना किसान संगठनों का लोकतांत्रिक अधिकार है, तो अप्रिय घटनाओं और इंटरनेट बैन की जिम्मेदारी भी इन्हे लेनी ही पड़ेगी. आप हर बार वो भाजपा के आदमी थे, कहकर अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते हैं.
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