क्या ब्राह्मण बीएसपी को लेकर गंभीर हैं ?
नई व्यवस्था के तहत सतीश मिश्रा के पास अब सिर्फ पूर्वी यूपी के ब्राह्मणों को जोड़े रखने का ही जिम्मा है - पश्चिम यूपी में ये काम रामवीर उपाध्याय देख रहे हैं.
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यूपी में मायावती का पहला फोकस दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर है - लेकिन हाल फिलहाल एक बार फिर वो ब्राह्मणों पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान दिख रही हैं. सतीश मिश्रा की अगुवाई में 30 से ज्यादा रैलियां बीएसपी के ब्राह्मण प्रेम के राजनीतिक प्रस्ताव की तरह नजर आ रहा है.
ऐसे तो न बोलो आगरा की रैली में मायावती जोरदार तरीके से सफाई दे रही थीं - 'तिलक तराजू और तलवार...' बीएसपी का नहीं, बल्कि बीजेपी का प्रॉपेगैंडा रहा है. एक संयोग भी था कि माया की उस रैली से कुछ ही पहले बीजेपी नेता वेंकैया नायडू ने इसी बात पर मायावती को घेरा था.
हालांकि, आगरा में उसी वक्त डेरा डाले मोहन भागवत के बयान ने मायावती की बात को कम अहम बना दिया. शायद इसीलिए मायावती ने बाद की रैलियों में भी इस मुद्दे पर अपना स्टैंड क्लिअर करने की कोशिश की.
ब्राह्मण फेशियल
मायावती जो भी सफाई दें, कांशीराम का ये स्लोगन बीएसपी के बैनर तले दलितों को एकजुट करने में सबसे कारगर हथियार साबित हुआ था. मुमकिन है किसी दिन मायावती इस बात से भी मुकर जाएं कि कभी वो ब्राह्मणों को मनुवादी बताकर जीभर कोसती रहीं. गुजरते वक्त के साथ अगर मायावती इससे किनारा कर रही हैं तो उनके नये सियासी इरादों की इबारत की तरह समझा जा सकता है.
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बीएसपी की ब्राह्मण सभाएं गोरखपुर से शुरू हुई हैं. गोरखपुर से इसकी शुरुआत का भी एक खास मकसद हो सकता है. गोरखपुर में बीजेपी ब्राह्मण और ठाकुर नेताओं की खटपट से खासी जूझ रही है. योगी आदित्यनाथ के चलते ब्राह्मण नेताओं को भाव न मिलने से बीजेपी के समर्थक ब्राह्मण द्विविधा की स्थिति में देखे जा रहे हैं. बतौर सर्जरी बीजेपी ने अपने एक नेता को लेकर तमाम विरोधों को दरकिनार कर राज्य सभा भेजा है. कहा जाता है कि योगी आदित्यनाथ के दबदबे के चलते उस नेता का विधानसभा का टिकट तक काट दिया जाता रहा.
अब तक मायावती ब्राह्मण वोटों के लिए सतीश मिश्रा पर भी निर्भर रही हैं, लेकिन अब बीएसपी में रामवीर उपाध्याय की भी अहमियत बढ़ी है. मायावती ने ये कदम ब्रजेश पाठक के बीजेपी ज्वाइन कर लेने के बाद उठाया है.
ब्राह्मण सीएम का ख्वाब न देखे... |
नई व्यवस्था के तहत सतीश मिश्रा के पास अब सिर्फ पूर्वी यूपी के ब्राह्मणों को जोड़े रखने का ही जिम्मा है - पश्चिम यूपी में ये काम रामवीर उपाध्याय देख रहे हैं.
ब्राह्मणों की पार्टी
प्रशांत किशोर के कांग्रेस के चुनाव प्रचार की कमान संभालने के बाद पार्टी में फिर से ब्राह्मण वोटों पर जोर दिया जाने लगा है. शीला दीक्षित को यूपी में सीएम कैंडिडेट के तौर पर उतारने के साथ ही सोनिया गांधी के बनारस दौर में कमलापति त्रिपाठी को खास अहमियत दिया जाना भी इसी का हिस्सा रहा.
एक दौर था जब जब कांग्रेस में कमलापति त्रिपाठी और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेताओं का दबदबा रहा और इसके चलते उसे ब्राह्मणों का सपोर्ट भी हासिल रहा. अयोध्या आंदोलन के बाद ब्राह्मणों का बीजेपी की ओर रुझान हो गया - यही वजह रही कि बीजेपी ब्राह्मण-बनियों की पार्टी भी कही जाने लगी. वैसे बीजेपी ने ब्राह्मणों को लेकर अभी कोई खास तत्परता नहीं दिखाई है. संभव है वो ये मान कर चल रही हो कि ब्राह्मण अभी न तो कांग्रेस के बहकावे में आने वाले और न ही बीएसपी की ओर आंख मूंद कर जाने वाले - लेकिन बीजेपी के लिए ये खतरनाक हो सकता है.
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वोटों के हिसाब से देखें तो यूपी में दलित और मुस्लिम के बाद ब्राह्मणों का नंबर आ रहा है. दलित 21 फीसदी और मुस्लिम 18 फीसदी हैं तो ब्राह्मण भी 10 फीसदी से ज्यादा हैं.
ये तो ठीक है कि मायावती ब्राह्मणों को एक्स्ट्रा तवज्जो देने लगी हैं - लेकिन सवाल है कि क्या ब्राह्मण भी ऐसा सोच रहे हैं. अगर सोच रहे हैं तो उसके पीछे सोच क्या हो सकती है?
ब्राह्मणों के लिए मायावती ने उम्मीद की सारी किरणें दफना डाली हैं. सहारनपुर की रैली में मायावती साफ कर चुकी हैं कि ब्राह्मण कभी भी बीएसपी में मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं हो सकता. मायावती ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि सतीश मिश्रा को भी हमेशा वो इसलिए साथ रखती हैं कि अगर कोई कानूनी संकट आ पड़े तो उन्हें उबार सकें. अगर कभी मायावती का सपना हकीकत के करीब दिखा और वो प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में हुईं तो भी भविष्य के सीएम की पोस्ट की रेस में पहले नंबर पर दलित और दूसरे नंबर पर मुस्लिम होगा - ब्राह्मण कभी नहीं. फिर किस बात के बूते मायावती ब्राह्मणों को रिझाने में जुटी हैं? कहीं भीड़ की नब्ज पहचानने में उनसे 2014 जैसी ही गलती तो नहीं हो रही.
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