सत्ता नहीं, अब तो विपक्ष का अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी है महागठबंधन
नीतीश के बाद लालू प्रसाद - और दोनों की मन की बात सुनने के बाद महागठबंधन को लेकर अब सोनिया गांधी की भी सक्रियता देखी जा रही है जिसका मुख्य मकसद तो 2019 का आम चुनाव ही है, लेकिन तात्कालिक वजह राष्ट्रपति चुनाव है.
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विपक्ष की एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा सत्ता ही रही है. सत्ता के खिलाफ ही विपक्ष को इकट्ठा होना होता है - और सत्ता की ख्वाहिश ही उसे साथ होने नहीं देती. ताजा त्रासदी तो ये है कि विपक्ष देश में महागठबंधन खड़ा करने की कोशिश तो कर रहा है, लेकिन उसके पास सत्ता हासिल करने से अलग कोई एजेंडा नहीं है.
नीतीश के बाद लालू प्रसाद - और दोनों की मन की बात सुनने के बाद महागठबंधन को लेकर अब सोनिया गांधी की भी सक्रियता देखी जा रही है जिसका मुख्य मकसद तो 2019 का आम चुनाव ही है, लेकिन तात्कालिक वजह राष्ट्रपति चुनाव है.
हाथ से हाथ मिला...
बिहार की तर्ज पर यूपी में महागठबंधन की कवायद फेल रही. असली राजनीतिक वजह जो भी रही हो, यूपी में नीतीश कुमार ने जैसी शुरुआत की अंत उससे बिलकुल जुदा रहा. विपक्ष की ओर से अब बिहार जैसी ही कोशिश राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है. यूपी से अलग बात इसमें ये है कि नीतीश के साथ साथ लालू प्रसाद भी खासे सक्रिय हैं - और दोनों इस बात पर सहमत भी हैं कि विपक्ष का हर हाथ कांग्रेस के हाथ से हाथ मिला ले. नीतीश कई बार पहले भी कह चुके हैं कि चूंकि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे इस लाइन पर अगुवाई भी करनी चाहिये.
फिर जुटेंगे पटना में...
नीतीश की कोशिश गैर-बीजेपी दलों को एक मंच पर खड़ा करने की रही है - और उसी को आगे बढ़ाते हुए सोनिया गांधी चाहती हैं कि राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की ओर से एक साझा उम्मीदवार मैदान में उतारा जाये. इस सिलसिले में फोन पर बात और मुलाकातों का सिलसिला जारी है जिसके लिए नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त बनी है - शरद पवार, सीताराम येचुरी, डी राजा, एचडी देवगौड़ा, मुलायम सिंह यादव और उमर अब्दुल्ला. इसी में ओडीशा के नवीन पटनायक और एमके स्टालिन से लेकर तेलंगाना के के चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं और एआईएडीएमके और शिवसेना जैसी पार्टियों को भी अपने पक्ष में तैयार करना है. शिवसेना से ज्यादा उम्मीद उसके ट्रैक रिकॉर्ड की वजह से है. विपक्ष को उम्मीद है कि पहले की तरह इस बार भी वो साथी बीजेपी से अलग स्टैंड लेगी. बीजेपी के साथ शिवसेना के हालिया रिश्तों के चलते इसकी संभावना भी अधिक लग रही है.
पहले पटना चलो
राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष एकजुट होकर अगर एनडीए को टक्कर दे पाया तो ये उसके लिए बहुत बड़ी बात होगी. साथ ही, इससे आगे का रास्ता भी खुलेगा और मालूम होगा कि असली चुनौतियां कहां छिपी हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है. वैसे अब तक जो बातें सामने आई हैं उनसे लगता है कि दिल्ली में विपक्ष के प्रदर्शन की समीक्षा पटना में होगी - गांधी मैदान ही नये महागठबंधन के शक्ति प्रदर्शन का भी गवाह बनेगा, ऐसी संभावना है. लालू प्रसाद ने 27 अगस्त को पटना में सभी विपक्षी दलों की महारैली का ऐलान किया है.
प्रस्तावित रैली के लिए नाम दिया गया है - 'भाजपा भगाओ-देश बचाओ'. बिहार चुनाव से पहले वहां पर स्वाभिमान रैली हुई थी जिसमें सोनिया गांधी भी शामिल हुई थीं.
महागठबंधन बोले तो अस्तित्व की जंग है
महागठबंधन के लिए राजी होना ऐसी स्थिति है कि विचारधारा पीछे छूट जाती है. ऐसे में या तो सत्ता का लालच या कोई ज्वलंत मसला या फिर अस्तित्व का संकट ही महागठबंधन खड़ा होने की शर्त होती है. जहां तक मुद्दों की बात है तो ये महागठबंधन बीजेपी के खिलाफ है. बीजेपी के खिलाफ यानी उसके हिंदुत्व के एजेंडे के खिलाफ और कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए मुश्किल ये है कि वो विरोध करे तो किस आधार पर करे. क्षेत्रीय नेताओं में कोई सांप्रदायिकता के नाम पर तो कोई आरक्षण के नाम पर विरोध का झंडा बुलंद कर लेता है, लेकिन कांग्रेस इसमें फंस जाती है. नतीजा ये होता है कि विरोध के नाम पर उसे कुछ भी बोलना पड़ता है. सर्जिकल स्ट्राइक पर राहुल गांधी का बयान - खून की दलाली, ऐसी ही एक मिसाल है.
जो राजनीतिक हालात हैं उससे ऐसा ही लगता है कि कांग्रेस एक बार फिर वैसी ही स्थिति में पहुंच रही है जैसी वो 1996 से 1998 के दौरान रही. ये वो दौर रहा जब कांग्रेस का शासन तीन-चार राज्यों तक सीमित रहा. ये ठीक सोनिया गांधी के कमान अपने हाथ में लेने से पहले की बात है.
हाल के विधानसभा चुनाव बताते हैं कि सोनिया गांधी रूटीन की राजनीतिक गतिविधियों से दूर होना चाहती रहीं. इसकी बड़ी वजह उनका स्वास्थ्य माना जाता है. लेकिन उन्हीं चुनावों के नतीजों ने राहुल के नेतृत्व सवाल उठाने वालों को मौका दे दिया. संभव है, इसी नाते सोनिया को फिर से न चाहते हुए भी सक्रिय होना पड़ा हो.
कांग्रेस कहने को तो विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन संवैधानिक हकीकत ये है कि उसके पास विपक्ष के नेता का ओहदा भी नहीं है. ऐसे में लालू और नीतीश कांग्रेस के लिए हनुमान बन कर संजीवनी खोजने में मददगार साबित हो सकते हैं. लालू ने तो पहले भी सोनिया का सपोर्ट किया है. पेंच तभी फंसता है जब स्क्रीन पर राहुल गांधी आ जाते हैं.
कांग्रेस के लिए केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की ओर से बड़ा खतरा है ये है कि कांग्रेस मुक्त भारत के नाम पर वो उसके नेताओं को आगे बढ़ कर लपक ले रही है.
ऊपर से देखने से तो ऐसा ही लग रहा है कि राष्ट्रीय महागठबंधन के सेंटरस्टेज पर नीतीश कुमार ही हैं. लालू की भी इसमें दिलचस्पी इसलिए हो सकती है क्योंकि इससे तेजस्वी को सीएम की कुर्सी पर बैठाने का रास्ता साफ हो सकता है. पेंच एक बार फिर राहुल गांधी के इर्द गिर्द ही फंसता है. या तो नीतीश भी किस्मत को कोसते हुए राहुल गांधी को नेता मान लें या फिर कांग्रेस के युवराज ही नीतीश को दूसरा मनमोहन मान कर मां सोनिया की तरह संतोष कर त्याग की नई मिसाल पेश करें. ले देकर यही वो व्यवस्था है जिसमें विपक्ष का अस्तित्व कायम रह सकता है, वरना मोदी-शाह और भागवत की तिकड़ी तो अपने मिशन पर निकल ही पड़ी है.
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