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Updated: 28 अगस्त, 2020 07:08 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कांग्रेस के 23 नेताओं की चिट्ठी के बाद CWC की मीटिंग से जो पहली बड़ी खबर आयी वो राहुल गांधी के बयान को लेकर रही. कपिल सिब्बल के ट्वीट और गुलाम नबी आजाद के रिएक्शन उसे और भी महत्वपूर्ण बना दिया. बाद में कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद दोनों ने सफाई देकर रहस्य और भी गहरा कर दिया. बहरहाल, आधिकारिक बयान तो वही माना जाएगा जो बताया गया है, लेकिन जो परिस्थितियां बनी रहीं, उनमें राहुल गांधी की तरफ से बीजेपी को घसीटे जाने की बातें निराधार भी नहीं लगतीं.

चिट्ठी प्रकरण में गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) का नेतृत्व काफी महत्वपूर्ण लगता है - लेकिन क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि चिट्ठी लिखने वालों में वो सबसे सीनियर हैं? कहने को तो CWC मीटिंग के बाद सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और राहुल गांधी ने गुलाम नबी आजाद को फोन कर उनको समझाने की कोशिश भी की थी, लेकिन उसके बाद से जिस तरीके से चिट्ठी लिखने वालों के खिलाफ परोक्ष तौर पर गांधी परिवार की सक्रियता देखने को मिल रही है - वो पूरी तरह अलग लग रही है.

माना जा रहा है कि सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले नेताओं में ज्यादातर वे हैं जिनका कोई अपना जनाधार नहीं है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ये क्यों भूल जा रहा है कि गुलाम नबी आजाद जम्मू कश्मीर (Jammu and Kashmir) से आते हैं - और फिलहाल कश्मीर की कितनी राजनीतिक अहमियत है!

गुलाम नबी आजाद की आखिरी चेतावनी

कांग्रेस के सीनियर नेता कई मौकों पर याद दिलाते रहे हैं कि कैसे इमरजेंसी के बाद चुनावी हार के बावजूद इंदिरा गांधी ने जोरदार वापसी की थी, लेकिन वे ये भूल जाते हैं कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी न तो इंदिरा गांधी हैं और न ही दोनों में से किसी के पास ही वैसा विजन ही है - दूर दृष्टि, कड़ी मेहनत, पक्का इरादा और अनुशासन. ये इंदिरा गांधी के राजनीतिक दर्शन के मूल अवयव रहे, लेकिन क्या कभी सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने चीजों को इस नजरिये से देखने की कोशिश की है.

गुलाम नबी आजाद की अगुवाई में कांग्रेस के नेता सोनिया गांधी को फिलहाल चिट्ठी के जरिये इंदिरा के जमाने की कांग्रेस बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल ही फ्रंट पर एक्टिव नजर आ रहे हैं और खुल कर मन की बात भी कर रहे हैं. कपिल सिब्बल ने हिंदुस्तान टाइम्स को दिये इंटरव्यू में इसी बात पर जोर दिया है कि चिट्ठी का कंटेंट पढ़ने की भी जहमत नहीं उठायी जा रही है. कपिल सिब्बल का मानना है कि अगर चिट्ठी को फोरम पर पढ़ा गया होता तो मौके पर ही दूध का दूध और पानी का पानी हो चुका होता.

कांग्रेस नेतृत्व के कई ताजा फैसले चिट्ठी वाले कांग्रेस नेताओं के खिलाफ परोक्ष एक्शन के तौर पर देखे जाने लगे हैं. माना जा रहा है कि कांग्रेस ने CWC की उस बेहद तनावभरी मीटिंग के बाद जो नयी नियुक्तियां की है या कमेटियां बनायी गयी हैं, सभी का एक ही और साफ साफ मकसद है - चिट्ठी के जरिये बगावत का रास्ता अख्तियार करने वालों के पर कतरने की कोशिश मानी जा रही है.

कपिल सिब्बल चिट्टी लिखे जाने को कांग्रेस के प्रति जिम्मेदारी मानते हैं, लेकिन उको मलाल इस बात का है कि असल मुद्दे से ध्यान हटाने की ही कोशिश जारी है. कहते हैं, 'काश हमारी चिट्ठी के मुद्दों को सामने रखा गया होता तो कांग्रेस कार्यसमिति में मौजूद लोगों को पता चल जाता कि ये पार्टी को फिर से खड़ा करने और मजबूत करने के लिए था.'

ghulam nabi azad, kapil sibalकांग्रेस नेतृत्व के एक्टिव होने और एक्शन के बावजूद गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल खामोश नहीं हो रहे हैं तो उसकी वजह समझने की कोशिश होनी चाहिये

कपिल सिब्बल चिट्ठी लिखने वालों को गद्दार साबित करने को लेकर भी हैरान हैं, कार्यसमिति में मौजूद एक नेता ने तो गद्दार शब्द का भी इस्तेमाल किया. काश वहा मौजूद लोग उन्हें समझाते. चिट्ठी में तो एक भी शब्द ऐसा नहीं इस्तेमाल हुआ है जिसे असभ्य भाषा कहा जाये.' कपिल सिब्बल ने उस नेता का नाम तो नहीं लिया है, लेकिन CWC से खबर आयी थी कि अहमद पटेल भी राहुल गांधी के साथ साथ बेहद खफा थे और अंबिका सोनी तो एक्शन लेने की मांग कर रही थीं.

अब तक गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा ही राज्य सभा में कांग्रेस की आवाज हुआ करते रहे, लेकिन अब संसद में कांग्रेस की रणनीति और उठाये जाने वाले मुद्दों को लेकर 10 नेताओं का एक ग्रुप बना दिया गया है. ग्रुप में गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा हैं तो लेकिन उसमें गांधी परिवार के ज्यादा करीब नेताओं को शामिल किये जाने के पीछे उनकी खुली छूट खत्म करने की कोशिश मानी जा रही है. ग्रुप में अब सोनिया गांधी के सबसे भरोसेमंद अहमद पटेल और राहुल गांधी के करीबी केसी वेणुगोपाल के साथ साथ जयराम रमेश और लोक सभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी भी शामिल किये गये हैं. जयराम रमेश को राज्य सभा में कांग्रेस का चीफ व्हिप नियुक्त किया गया है.

असम से सांसद गौरव गोगोई को अधीर रंजन चौधरी के साथ कांग्रेस का उपनेता बनाया गया है. ये नियुक्ति भी शशि थरूर और पंजाब के आनंदपुर साहिब से सांसद मनीष तिवारी की वरिष्ठता को दरकिनार कर दिया गया है क्योंकि दोनों ही नेताओं ने चिट्ठी पर हस्ताक्षर किये थे और राज्य सभा सांसदों की मीटिंग में हुई गर्मागर्म बहस के बाद ट्विटर पर कई बयान जारी किये थे. गौरव गोगोई असम के मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई के बेटे हैं. कांग्रेस की एक दलील हो सकती है कि अगले साल असम में होने जा रहे विधानसभा चुनावों को देखते हुए ऐसा किया गया है, लेकिन ये भी याद रखना होगा कि हाल फिलहाल राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की मांग करने वालों में गौरव गोगोई आगे देखे जाते रहे हैं.

अब तक व्हिप की जिम्मेदारी संभाल रहे गौरव गोगोई की जगह लुधियाना से कांग्रेस सांसद रवनीत बिट्टू की नियुक्ति की गयी है. लोक सभा में कांग्रेस के चीफ व्हिप के. सुरेश हैं. बिट्टू के अलावा केरल से सांसद मणिकम टैगोर के. सुरेश के सहयोगी रहेंगे. मणिकम टैगोर भी राहुल गांधी के करीबियों में शुमार किये जाते हैं. याद कीजिये जब राहुल गांधी के डंडा मार बयान को स्वास्थ्य मंत्री संसद में मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे थे मणिकम टैगोर जाकर भिड़ गये थे. बाद में दोनों पक्षों की ओर से स्पीकर के यहां शिकायत दर्ज करायी गयी थी और फिर राहुल गांधी का भी बयान आया था कि मणिकम टैगोर ने नहीं बल्कि उनके साथ बीजेपी के लोगों ने हाथापाई की थी.

ये सब गुलाम नबी आजाद और उनके साथ खड़े कांग्रेस के सीनियर नेताओं को सबक सिखाने की कवायद नहीं तो और क्या है. फिर भी गुलाम नबी आजाद खामोश नहीं बैठे हैं, मीडिया को इंटरव्यू देकर लगातार अपनी बात रख रहे हैं. कहते हैं, 'दशकों से हमारी पार्टी में निर्वाचित बॉडी नहीं है. हमें शायद 10-15 साल पहले ही इस पर जोर देना चाहिये था. हम चुनाव दर चुनाव हार रहे हैं. अगर हमें वापसी करनी है तो हमें चुनाव कराकर पार्टी को मजबूत करना चाहिये.'

साथ ही साथ, गुलाम नबी आजाद कांग्रेस नेतृत्व को आगाह भी कर रहे हैं, 'अगर हमारी पार्टी अगले 50 साल तक विपक्ष में ही रहना चाहती है, तो चुनाव कराये जाने की कोई जरूरत नहीं है.'

गुलाम नबी आजाद ही क्यों?

गांधी परिवार अगर करीबी नेताओं की सलाह पर या अपने ही मन से सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले नेताओं के खिलाफ एक्शन लेने का फैसला कर चुका है तो इससे कांग्रेस का नुकसान के अलावा कोई फायदा नहीं होने वाला. हो सकता है कांग्रेस नेतृत्व को ये समझाया जा रहा हो कि ये नेता कहीं जाने वाले तो हैं नहीं, इसलिए अनुशासनहीनता के लिए सबक सिखाया जाना जरूरी है - और अगर कांग्रेस नेतृत्व भी ऐसी सलाह मान लेता है तो समझदारी तो जरा भी नहीं लगती.

हो सकता है अहमद पटेल, अंबिका सोनी और कुमारी शैलजा जैसे नेता सोनिया गांधी को सलाह दे रहे हों कि गुलाम नबी आजाद निजी हितों के लिए ये सब कर रहे हैं. ये समझाने की कोशिश भी हुई होगी कि वो राज्य सभा की सदस्यता खत्म होने के बाद अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं, इसलिए ये सब कर रहे हैं.

गुलाम नबी आाजाद को भी मालूम है कि उनके खिलाफ क्या क्या चल रहा होगा और उनका जवाब भी आ चुका है - 'मेरी कोई निजी महत्वाकांक्षा नहीं है. मैं पार्टी के प्रति निष्ठावान हूं. मैं मुख्यमंत्री रहा हूं, केंद्रीय मंत्री रहा हूं. कार्यसमिति में हूं और पार्टी का महासचिव भी हूं. मुझे और कुछ नहीं चाहिए. मैं अगले 5-7 साल तक सक्रिय राजनीति में रहूंगा.'

साथ ही गुलाम नबी आजाद ने ये भी साफ कर दिया है कि संगठन में भी अब उनकी कोई लालसा नहीं बची है, 'मैं पार्टी अध्यक्ष नहीं बनना चाहता. सच्चे कांग्रेसी की तरह मैं पार्टी की बेहतरी के लिए चुनाव चाहता हूं.'

अपनी बात पर कायम रहने के लिए गुलाम नबी आजाद ने जो कहा है वो काफी है. हो सकता है चिट्ठी लिखने जैसी हिमाकत के लिए उनको हटाकर राज्य सभा में किसी और को कांग्रेस का नेता बना दिया जाये, लेकिन कांग्रेस अगर ये समझ रही है कि गुलाम नबी आजाद किसी काम के नहीं हैं तो ये नेतृत्व की भूल समझ आती है. राहुल गांधी अपना गुस्सा मीटिंग में दिखा चुके हैं और यूपी में जितिन प्रसाद के खिलाफ पास प्रस्ताव में भी प्रियंका गांधी वाड्रा की भूमिका से इंकार करना मुश्किल हो रहा है. सोनिया गांधी ने ताजा नियुक्तियों के साथ ही चिट्ठीवालों के प्रति गांधी परिवार के नजरिये को साफ साफ जाहिर कर दिया है.

लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने क्या सोचा है कि ये गुलाम नबी आजाद ऐसी मुहिम का नेतृत्व क्यों करने लगे? ये सवाल इसलिए क्योंकि राज्य सभा सांसदों की मीटिंग में निशाने पर मनमोहन सिंह जरूर आये थे लेकिन सीधे सीधे राजीव सातव के हमले तो कपिल सिब्बल ही झेल रहे थे. बाद में शशि थरूर, मनीष तिवारी और मिलिंद देवड़ा ने विरोध जरूर प्रकट किया था. फिर अचानक गुलाम नबी आजाद कैसे असंतुष्टों के नेता बन गये.

पहली बात तो ये है कि गुलाम नबी आजाद को लगा होगा कि जो लोग भी सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले हैं वे सभी पार्टी के हित में मुद्दे उठा रहे हैं. मुश्किल ये रही होगी कि बिल्ली के गले घंटी बांधे तो कौन?

अपनी तरफ से गुलाम नबी आजाद ने वे सारी बातें बता दी हैं, लेकिन कोई ये नहीं समझ रहा है कि गुलाम नबी आजाद कांग्रेस छोड़ना चाहें तो उनके पास क्या विकल्प हो सकता है? आखिर एसएम कृष्णा और टॉम वडक्कन जैसे नेता कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में गये हैं कि नहीं. फिर गुलाम नबी आजाद क्यों नहीं जा सकते?

अगर गुलाम नबी आजाद बीजेपी न भी ज्वाइन करना चाहें तो जम्मू-कश्मीर की राजनीति में केंद्र सरकार को ऐसे नेताओं की सख्त जरूरत है जो बदले माहौल में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें. मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उप राज्यपाल बनाये जाने के बाद से ऐसी कोशिशें तेज हो चली हैं. शाह फैसल का राजनीति छोड़ना और फिर से उनके आईएएस ज्वाइन करने की संभावना इसीलिए जतायी गयी है. हाल ही में बीजेपी नेताओं ने मनोज सिन्हा से मुलाकात कर राजनीतिक संवाद तेज करने की सलाह दी है. ये राजनीतिक संवाद जम्मू-कश्मीर में उन सभी नेताओं के साथ करने की कोशिश हो रही है जो नये माहौल शाह फैसल की तरह नयी सच्चाई मान कर चल रहे हैं. उमर अब्दुल्ला जैसे नेताओं की उसमें फिलहाल कोई जगह नहीं है जिनका कहना है कि जब तक जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य के दर्जा वापस नहीं दिया जाता वो चुनाव नहीं लड़ने वाले हैं.

बीजेपी की तरफ से भी बार बार ये याद दिलाने की कोशिश हो रही है कि अगर अमित शाह ने संसद में मौजूदा व्यवस्था को अस्थाई बताया है तो वो इसे पुराने स्वरूप में लाने की कोशिश भी करेंगे, लेकिन उसका वक्त नहीं तय है.

ऐसा क्यों मान कर चलना चाहिये कि गुलाम नबी आजाद नयी व्यवस्था में फिट नहीं हो सकते? अगर कश्मीर के लोगों के लिए कुछ करने का मौका आया तो वो भला पीछे क्यों हटना चाहेंगे? अगर ये सब जानते हुए भी कांग्रेस नेतृत्व गुलाम नबी आजाद को हल्के में ले रहा है, फिर तो वो ठीक ही कह रहे हैं कि पार्टी को 50 साल तक विपक्ष में बैठने के लिए तैयार हो जाना चाहिये.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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