वे जो शरद पवार की तरह प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए...
जन्मदिन के मौके पर शरद पवार ने अपनी जीवनी में लिखे उस मलाल को जाहिर कर दिया कि कांग्रेस में खींच तान के चलते वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए. लेकिन ऐसा क्या सिर्फ उन्ही के साथ हुआ. दरअसल देश के सर्वोच्च पद के लिए उठा-पटक आजादी के पहले से जारी है.
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देश में मराठा राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर पहुंचे एनसीपी प्रमुख शरद पवार 75 साल के हो गए हैं. इस मौके पर देश के सभी दिग्गज किंगमेकर, किंग और भूतपूर्व किंग के साथ मंच साझा करते हुए पवार ने अपने राजनीतिक सफर में मिले एक मलाल को जगजाहिर कर दिया. वह भी अपनी जीवनी के माध्यम से. खुद ने लिखा है कि 1991 में किस तरह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में वह सबसे आगे थे लेकिन अन्य उम्मीदवारों ने उनकी टांग कुछ यूं खींची कि उन्हें राजनीति की नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ गई.
लेकिन, क्या ऐसा सिर्फ उन्हीं के साथ हुआ?
नेहरू बने, जिन्ना-पटेल रह गए (1946) अब राजनीति है ही ऐसे दांव-पेंच का खेल और सवाल जब प्रधानमंत्री के पद का हो तो याद कीजिए देश आजाद होने से पहले ही राजनीति शुरू हो गई थी. 1946 में भारत के सामने प्रधानमंत्री पद के लिए 3 विकल्प थे, पहला, जवाहरलाल नेहरू की जगह मुहम्मद अली जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाकर देश का बंटवारा रोक लिया जाए अथवा भारत और पाकिस्तान बनाकर दोनों को प्रधानमंत्री बना दिया जाए. इन दोनों के अलावा सरदार पटेल को आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनाने का भी विकल्प था लेकिन बंटवारा तय होने के बाद पटेल को सत्ता के शिखर की दहलीज से लौटना पड़ा.
मोरारजी-कामराज को छोड़ शास्त्री बने (1964) देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद मोरारजी देसाई, के. कामराज और लाल बहादुर शास्त्री इस पद के प्रमुख दावेदार थे. हालांकि उस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने पहले 47 वर्षीय इंदिरा गांधी को देश की कमान संभालने के लिए कहा. इंदिरा के मना करने के बाद मोरारजी देसाई ज्यादा शक्तिशाली दावेदार माने जा रहे थे लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने लाल बहादुर शास्त्री को तरजीह इसलिए दी कि वे नेहरू के सीधे-सादे अनुयाई थे. लिहाजा आजादी के बाद सबसे पहले मोरारजी देसाई थे जो प्रधानमंत्री की कुर्सी के नजदीक पहुंचकर रह गए. हालांकि, 13 साल बाद मोरारजी देसाई को मौका मिला और वह दो साल के लिए 1977 में प्रधानमंत्री बने.
दो बार वंचित रहे प्रणव मुखर्जी (1984 और 2004) इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणव मुखर्जी देश में प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे बड़े दावेदार माने जा रहे थे. वे इंदिरा गांधी के सबसे करीबी और विश्वसनीय कैबिनेट मंत्रियों में शुमार थे. हालांकि कांग्रेस में गांधी परिवार के करीबियों को राजीव गांधी को प्रधानमंत्री के पद पर बैठाना था. ऐसे में राजीव गांधी ने जब मुखर्जी से संभावित प्रधानमंत्री पर उनकी राय जाननी चाही, तो प्रणव ने कैबिनेट के सबसे वरिष्ठ मंत्री के पक्ष में फैसला करने को कहा. लेकिन उनकी इस राय से कांग्रेस का परिवार खेमा सशंकित हो गया और राजीव गांधी के नेतृत्व में बनी सरकार में प्रणव को कैबिनेट का दर्जा भी नहीं दिया गया. इसके बाद 2004 में एक बार फिर प्रणव मुखर्जी का नाम प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे ऊपर आया. लेकिन कांग्रेस ने फैसला राजनीति में उनके जूनियर रहे मनमोहन सिंह के पक्ष में किया. लिहाजा, प्रणव मुखर्जी एक ऐसा नेता रहे जो प्रधानमंत्री पद के नजदीक दो बार पहुंच कर भी इस पद को नहीं पा सके.
नरसिंहाराव से पीछे रह गए अर्जुन सिंह-शरद पवार(1991) राजीव गांधी की हत्या के बाद शरद पवार का नाम सुर्खियों में था. अर्जुन सिंह परिवार के करीबी नेताओं में सबसे अहम थे. लिहाजा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में शरद पवार से खुद को पिछड़ता देख अर्जुन सिंह ने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से किसी ऐसे शख्सम को प्रधानमंत्री बनाने की सलाह दी जो स्वतंत्र होकर न सोचता हो. इस सलाह पर शरद पवार का नंबर तो कट गया और अर्जुन सिंह खुद प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से बाहर हो गए क्योंकि कांग्रेस आलाकमान को नरसिंहराव का नाम सबसे उचित लगा क्योंकि वह कुछ समय पहले ही सक्रिय राजनीति का त्याग कर चुके थे.
माधवराव-ज्योति बसु-अर्जुन सिंह-मुलायम सिंह (1999) अटल बिहारी वाजपेई की एक साल पुरानी सरकार 1999 में अल्पमत में आ गई. क्षेत्रीय पार्टियों से सपोर्ट के बाद आंकड़ें कांग्रेस के पक्ष में आ गए थे. ऐसे में सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाना चाह रही थीं. मुलायम सिंह मनमोहन के मान पर समर्थन देने के लिए राजी हो गए थे. लेकिन कांगेस में सोनिया की पसंद से अलग दो उम्मीदवार माधवराव सिंधिया और अर्जुन सिंह भी थे जो मनमोहन सिंह जैसे गैरराजनीतिक आदमी को बतौर प्रधानमंत्री नहीं देखना चाहते थे, लिहाजा उन्होंने मुलायाम सिंह और सोनिया के बीच बनी सहमति को साजिश के तहत खारिज कर दिया और आखिरी मौके पर मुलायम सिंह यादव ने ज्योति बसु को बतौर कंसेंस कैंडिडेट प्रस्तावित कर दिया. ऐसी स्थिति में चुनाव एक मात्र रास्ता बचा और किसी को प्रधानमंत्री बनने का मौका नहीं मिला क्योंकी बाजपी को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बना आम चुनाव कराए गए.
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