New

होम -> सियासत

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 05 दिसम्बर, 2022 09:48 PM
  • Total Shares

'गिरता मतदान प्रतिशत लोकतंत्र के प्रति उदासीनता है या फिर लोग निश्चिन्त हैं?' गुजरात के हालिया प्रथम चरण के मतदान के आंकड़ों ने एक बार फिर इस सवाल को जन्म दिया है. देखा जाए तो ऐसा चुनाव दर चुनाव हो रहा है. जबकि चुनाव आयोग और सरकार की पिछले कई वर्षों से ये लगातार कोशिशें जारी हैं कि वोट प्रतिशत को बढ़ाया जाए. फिर सभी राजनीतिक पार्टियां, सत्तापक्ष हो या विपक्ष, भी लोगों से मतदान करने की पुरजोर अपील करती हैं. लेकिन दुख व चिंता का विषय है कि तमाम कोशिशों व प्रचार के बाद भी वोट प्रतिशत बढ़ने की बजाय घट रहा है.असल में लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक मतदाता का लोकतंत्र में भागीदारी करना बड़ा महत्तवपूर्ण माना जाता है और वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी किसी स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था की निशानी है. सवाल है भारत में जहां चुनावों को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है वहां मतदान में रुचि कम क्यों होने लगी है? गुजरात में प्रथम चरण के लिए 63.14 फीसदी मतदान हुआ जो 2017 में 68 फीसदी था यानी इस बार करीब 5 फीसदी कम रहा. कुल मिलाकर व्यापक दृष्टिकोण अपनाएं तो चुनावों में हर बार होता है कि कहीं मतदान का प्रतिशत उम्मीद से ज्यादा होता है तो कहीं इतना कम कि बीस फीसदी वोट हासिल करने वाले भी विधायिकाओं तक पहुंच जाते हैं.

Gujarat, Assembly Elections, Gujarat Assembly Elections, Voting, Vote, Voter, Election Commissionगुजरात विधानसभा चुनावों में जो वोटिंग पर्सेंटेज दिख रहा है वो लोकतंत्र के लिए गहरी चिंता का विषय है

हालांकि आश्चर्य तब होता है जब इन्हीं कम मतदान की ख़बरों के बीच केरल और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों में 85 फीसदी से ज्यादा वोटिंग होती है. फिर एक ख़ास राज्य में भी कहीं ज्यादा मतदान होता है तो कहीं कम. गुजरात भी अपवाद नहीं रहा है, दक्षिण गुजरात के मतदाताओं का मतदान में सौराष्ट्र के मुकाबले उत्साह ज्यादा रहा. ऐसा भी नहीं है कि सभी जगह मतदाताओं की बेरुखी रही हो. प्रथम चरण के चुनाव में ही तापी जिले में 78 फीसदी मतदान दर्ज हुआ.

सवाल है ऐसा क्यों होता है ? उत्तर है राजनीतिक दल चाहें तो लोगों को वोट डालने के लिए घरों से बाहर ला सकते हैं. इसका मतलब अवांक्षित प्रभाव सरीखी कोई बात नहीं है और ना ही किसी एक दल के कारण ऐसा हो सकता है. ये तो सभी दलों के सामूहिक प्रयासों से संभव है मसलन अपने अपने उम्मीदवारों का निरपेक्ष चयन, आसमान से तारे तोड़ने जैसी बातों से परहेज, आदर्श आचार संहिता का आदर्श पालन आदि.

दरअसल राजनीतिक दल कभी प्रत्याशियों के चयन में जनता की राय जानने की ईमानदार कोशिश करते ही नहीं. तब जातिवाद, धनबल, बाहुबल और भाई भतीजावाद की बिना पर टिकट मिले उम्मीदवारों में जनता रुचि क्यों ले ? ख़ास गुजरात चुनाव की ही बात करें तो बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों ही दलों ने अथक प्रयास किये हैं कि मतदाता घरों से बाहर निकलें, परंतु वे आशानुरूप नहीं निकले.

सीधी सी बात है यदि वोटर लिस्ट परफेक्ट है यानी जेन्युइन है और सभी वोटर जीवित हैं तो मतदान कम से कम अस्सी फीसदी तो होना ही चाहिए. बीस फीसदी की छूट इस बिना पर मान लें कि कोई बीमार है या बाहर से आ नहीं पाया या दीगर वाजिब वजह. हालांकि तमाम वाजिब वजहों के लिए भी यथासंभव इंतजाम किए जाते हैं चुनाव आयोग द्वारा पोस्टल बैलट के माध्यम से.

फिर भी मतदान का प्रतिशत साठ के आसपास रुक जाए और उसमें 'नोटा' के मत भी शामिल हैं, तो जो चुना जाएगा उसे प्रतिनिधि कैसे मान लिया जाए ? साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मात्र 31 फीसदी मतों के साथ 282 लोकसभा सीटें मिल गई थीं तब दिल है कि मानता नहीं पीएम मोदी के पास जनादेश है भले ही वे बार बार दावा करते रहें! आखिर जनसमर्थन तो एक तिहाई ही हुआ ना.

पुरानी कहावत थी जैसा राजा तैसी प्रजा. लेकिन आज के जमाने में जैसी प्रजा तैसा राजा होता है. इसलिए राजा या नेता चुनने वाले ही यदि उदासीन हैं तब सत्ता कैसी होगी ये आसानी से समझा जा सकता है. विगत 75 सालों में हमारे देश के सामाजिक जीवन पर राजनीति की छाया इतनी व्यापक और घनी हो चुकी है कि गांव में बैठे अनपढ़ से लेकर अभिजात्यवर्गीय क्लब और अन्य उच्चवर्गीय जमावड़ों में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर अधिकांश समय राजनीति ही चर्चा का विषय रहती है.

नागरिकों को यह समझना होगा कि लोकतंत्र में सहभागिता के बिना न तो उनका भला होगा और न ही लोकतंत्र का भला होगा. नागरिकों को अपनी जिम्मेदारी समझते हुये लोकतंत्र के महापर्व में अपनी सहभागिता को बढ़ाना होगा. असल में जब लोकतंत्र में नागरिकों की सहभागिता बढ़ेगी तभी एक स्वस्थ, सुंदर एवं सुदृढ़ लोकतंत्र की स्थापना कर सकेंगे. या फिर सरकार चुनाव आयोग को पर्याप्त शक्ति दें कि वह किसी भी चुनाव के लिए मतदान की अनिवार्यता हेतु नियम कानून बनाएं और तंत्र पालन सुनिश्चित कराएं.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय