गुजरात की सुनीता यादव को 'लेडी सिंघम' बनाने में जल्दबाजी कर दी
गुजरात में कांस्टेबल सुनीता यादव (Gujarat cop Sunita Yadav) का प्रकरण लोगों की जुबान पर है जिस तरह ये वीडियो सामने आया है और इसमें जैसे सुनीता बात कर रही है साफ़ है कि वो मंत्री के बेटे को अपनी वर्दी का रौब दिखा रही थी.
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हमारे जीवन में फ़िल्मो (Film) का बहुत प्रभाव है. फ़िल्मो के प्रभाव से जो पुलिस वाले अब नेताओं के नाम की धौंस दिखाने वालों को उनकी औकात दिखाते हैं उनके लिए एकाएक सिंघम (Singham) शब्द का प्रयोग होने लगता है. हमे, ख़ासकर मीडिया को, बहुत जल्दबाज़ी है 'सिंघम' जैसे किरदार को किसी पुलिस वाले के साथ जोड़ने की. पिछले दो-तीन दोनों से टीवी चैनलों, अख़बारों एवं सोशल मीडिया पर एक और फोटो के साथ 'सिंघम' टाइटल जोड़ लिया गया है. नाम है सुनीता यादव (Sunita Yadav). उनकी फोटो के साथ लिखा जा रहा है गुजरात की ‘लेडी सिंघम'. विधायक के बेटे की क्या गलती थी, कर्फ्यू में बाहर निकलना कितनी बड़ी गलती थी, उसे घर से निकलने से पहले किसकी परमिशन लेनी चाहिए थी, इन सब मैं नहीं जाना चाहता. वो काम एजेंसियों का है लेकिन जो वीडियो हम तक पहुंचा है उसमे जिस तरह के तेवर यह महिला कांस्टेबल दिखा रही है उसको देखकर कुछ पुलिस-कल्चर को बेनकाब करते सवाल उठते हैं जिनको ध्यान में लाना जरुरी है.
गुजरात में सुनीता यादव प्रकरण सोशल मीडिया पर खूब सुर्खियां बटोर रही है
इस महिला कांस्टेबल को सिंघम के किरदार में फिट करते हुए शायद हम उसके व्यवहार की बारीकियों को गौर करना भूल गए हैं.
सुनीता यादव पुलिस-कल्चर की अभिव्यक्ति
जनता भले ही इस महिला कांस्टेबल के कारनामे पर तालियां पीट रही है लेकिन इस पूरे प्रकरण के दौरान महिला कांस्टेबल की अभिवृत्ति, उसकी आवाज़ की तीव्रता, डंडे का ज़ोर, उसकी भाषा और वर्दी को लेकर घमंड ने पुलिस-कल्चर को बेनकाब कर दिया है. अमूमन इस तरह के मामलों निपटने के लिए में पुलिस दो विकल्पों का सहारा लेती है. एक या तो बातचीत कर के समझ-समझा के, थोड़ा ले-दे के मामला रफ़ा-दफ़ा किया जाए या कोई वाकही सिंघम है तो उचित कार्यवाही की जाए.
किरण बेदी गलत जगह पार्क PMO की कार न उठवाकर इंदिरा गांधी को फाेेेन पर जलील करतीं तो? अब सुनीता यादव के प्रकरण को देखें तो उस ने कहीं भी ये नहीं चाहा कि उन लड़कों पर कार्रवाई की जाए. यदि वह वास्तव में सबक सिखाना चाहती थी तो बगैर कुछ सुने, बगैर किसी से बात किये उन लड़कों का नाम उसी समय पुलिस रजिस्टर में चढ़ता और ज़रूरत पड़ती तो उन्हें कुछ देर के लिए ही सही, जेल में डाला जाता. ऐसे समय में यदि ये लड़के मंत्री के नाम की धौंस जमाते तो वीडियो रिकॉर्डिंग का सहारा लिया जाता उन्हें बेनकाब करने के लिए!
लेकिन वीडियो देखकर नहीं लगता कि महिला एल.आर का रवैया कार्यवाही करने को लेकर था.
वीडियो रिकॉर्डिंग का अंततः लक्ष्य क्या था?
इस महिला कांस्टेबल ने जो किया उसकी हक़ीक़त हम तक पहुंची क्योंकि उसने विधायक के बेटे के आने से पहले ही वीडियो-रिकॉर्डिंग का इंतेज़ाम कर रखा था! और यदि वीडियो रिकॉर्डिंग किया जाना था तो उसका अंततः लक्ष्य क्या था? कार्यवाही के बीच VVIP-कल्चर को एक्सपोज़ करना या बगैर कार्यवाही किये तमाशा खड़ा करना?
यहां सवाल ये भी उठता है कि क्या पुलिस को उनकी सहूलियत के हिसाब से वीडियो रिकॉर्डिंग करने की छूट दी जा सकती है? यह स्थिति हमें कहां ले जाएगी, इसकी आप कल्पना कीजिये. यदि पुलिस इस तरह की रिकॉर्डिंग्स का समर्थन करती है तो यह दोनो तरफ से होना चाहिए. आमलोगों को भी पुलिस से बात करते वक्त रिकॉर्डिंग का अधिकार होना चाहिए.
पुलिस-कल्चर का विरोध क्यों नहीं?
अमूमन जनता जिस पुलिस-कल्चर का विरोध करती हैं आज उसी को आधार बनाकर महिला कांस्टेबल को ‘लेडी सिंघम’ बता रहे हैं. वह महिला यदि ऑन-कैमरा इतना चिल्ला रही थी, डंडे का ज़ोर दिखा रही थी तो आप यहां से समझ सकते हैं कि ऑफ़-द-कैमरा यह कल्चर क्या नहीं करता होगा.
अच्छा या बुरा करने के लिए कोई किसी की परमिशन नहीं लेता. ये एक सामान्य सी समझ है.लेकिन बार-बार परमिशन, परमिशन पूछना ये एक ओवरस्मार्टनेस है. शायद उस महिला एल.आर ने भी ये सब करते करते वक्त अपने किसी ऊपरी अधिकारी से परमिशन नहीं ली होगी.
नेता का बेटा था और रिकॉर्डिंग शुरू थी इसलिए पुलिस ने उसे मारा-पीटा नहीं वार्ना आप या मैं होते तो मैं वो डंडा जो रोक दिया था इस महिला ने शायद ऐसे कितने ही डंडे हमपर बरसते. और आप-मैं कुछ नही कर पाते.
कुछ अपवादों को बाद करें तो, वर्दी पहनने के पहले दिन से एक सामान्य से पुलिस के मन में भी ये सोच पनपना शुरू हो जाती है 'अब हम जो चाहें कर सकते हैं और हमारा कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता.'
आम लोगों के साथ पुलिस की भाषा की शालीनता का स्तर छुपा नहीं है!
उस महिला कांस्टेबल के व्यवहार पर आपका लाइक-कमेंट-शेयर-या-फॉरवर्ड करने का आधार यदि इस बात को लेकर है कि फ़िलहाल तो नेता के लड़के के साथ हुआ है तो ठीक है, तो हमें सतर्क होने की ज़रुरत है. फिल्मो में भले ही सिंघम और जयकांत शिकरे अलग-अलग हों यहां तो दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
हम जिस VVIP कल्चर को ख़त्म करने की बात कर रहे हैं. उसे फलने-फूलाने वाले ये पुलिस वाले ही हैं. ये अपना काम ठीक से करते तो इन नेताओं की हिम्मत तक नहीं होती.
सिर्फ नेताओं के परिवारजन ही नेताओं के नाम का इस्तामल कर के गाड़ियां नहीं घुमाते. घर में एक पुलिस वाला होता है तो पूरा परिवार भी 'पुलिस' लिखवा कर घूमता रहता है. एक पुलिस वाले के नाम का कितने ही लोग, कितनी ही जगह इस्तेमाल करते हैं, ये बात हमसे अछूती नहीं है. और अब ये बात हमारे समाज का हिस्सा भी बन चुकी है भले ही गलत क्यों न हो.
नेता का लड़का तो छूट जाएगा लेकिन आज जिस पुलिस-कल्चर को प्रोत्साहन दिया जा रहा है यही प्रोत्साहन कल आमजन पर उपयोग में लिया जाएगा. इसलिए इस पुरे प्रकरण में इस पुलिस-कल्चर को नज़र अंदाज किये बगैर उसका विरोध होना ही चाहिए.
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