राम रहीम को पेरोल देना क्या न्याय व्यवस्था का राजनीतिकरण नहीं है?
राम रहीम को आजीवन पैरोल ही दे दो ना. माना कोई उसकी पैरोल के खिलाफ अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाएगा. लेकिन अदालत स्वतः संज्ञान तो ले ही सकती है. बलात्कारी और हत्यारे को स्पष्ट राजनैतिक स्वार्थ के लिए यूं जब तब पैरोल दे दिया जाना क्या न्याय व्यवस्था का राजनीतिकरण नहीं है?
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पिछली बार राम रहीम 15 अक्टूबर 2022 को 40 दिन की जेल से बाहर आया था और करीब 23 नवंबर को वापस सुनारिया जेल गया था. अब करीब 55 दिन जेल में रहने के बाद फिर पैरोल मिल गया है. पैरोल के लिए वजह देनी होती है. सो राम रहीम भी वजह दे देता है. बेवजह ही. इस बार बेवजह सी वजह है कि डेरा सच्चा सौदा के दूसरे गुरु शाह सतनाम की 25 जनवरी को जयंती है. इस दिन उसे एक बड़ी धार्मिक सभा करनी है. हजारों भक्तों को मुफ्त खाना खिलाना है. सारा कुछ इस "विधर्मी" को ही करना है.
विडंबना देखिए राज्य प्रशासन ने उसे पैरोल देकर कर्तव्य का निर्वहन कर दिया चूंकि मुख्यमंत्री कहते हैं कि पैरोल उसका अधिकार है. धन्य है बलात्कारी और हत्यारे के अधिकार सुनिश्चित करना राज्य सरकार की प्राथमिकता जो है. जबकि इसी देश में अस्सी साल का बूढ़ा आसाराम बापू पैरोल नहीं पाता. सजायाफ्ता की कसौटी पर दोनों में ख़ास फर्क नहीं है. तो क्या राम रहीम को बार बार इसलिए पैरोल मिल जाती है कि वह हार्ड कोर क्रिमिनल नहीं है? पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट का नज़रिया तो यही है. ऐसा तब है जब वह बलात्कारी के साथ साथ हत्यारा भी है. आसाराम की पैरोल की अर्जी उच्चतम न्यायालय ने 2021 में यह कहते हुए खारिज कर दी थी कि आपने जो किया वो साधारण अपराध नहीं है.
दरअसल राम रहीम वोट बैंक है. इसलिए उसकी राजनीतिक वैल्यू है. उसे पैरोल मिल जाती है सिर्फ़ मांगने भर की देरी है. उसे अदालत का रुख़ नहीं करना पड़ता और जब राज्य सरकार से प्रभावित प्रशासन उसे ग्रांट कर देता है तो संबंधित राज्य पंजाब हरियाणा में विरोध भी नहीं होता. वोटरों की नाराज़गी का डर तो हर पार्टी को है ना. उधर आसाराम इस मापदंड पर खरा नहीं उतरता. और तो और, इक्का दुक्का नेता को छोड़कर अमूमन कोई भी राजनीतिक पार्टी, सत्ताधारी हो या विपक्ष, आसाराम के साथ खड़ा नहीं दिखना चाहता. इसकी सॉलिड वजह भी है, उसका घृणित जुर्म. अमूमन उम्रदराज सजायाफ्ता के आवेदन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाता है. परंतु आसाराम के मामले में उसका उम्रदराज होना ही बार बार आड़े आ जाता है.
क्योंकि उसका जुर्म पॉस्को एक्ट के तहत है, जिससे बढ़कर घृणित कुकृत्य दूजा हो ही नहीं सकता. यदि वह आदतन रहा है या कहें एडिक्शन है उसे तो पता नहीं कितने कुकृत्य किये होंगे उसने. फिर वाह राम रहीम जैसा कूटनीतिज्ञ भी नहीं है, बोलबचन भी है. मसलन हांक जो दिया करता था कि सारे नेता, अधिकारी मेरी जेब में हैं. मेरे पास आते रहे हैं. साथ ही मानें या ना मानें आसाराम का हिंदू पापी होना भी वजह है. पैरोल दे दी तो पक्षपाती करार दे दिया जाएगा फिर भले ही पैरोल अदालत ही क्यों ना दे दे. कहां उलझ गए हम?
बात राम रहीम की हो रही है. दरअसल इस पापात्मा का सबसे बड़ा पाप है. इसने अपना नाम राम रहीम रख लिया. बेहतर है "रार" कहें उसे. उसे साल 2022 में पहली बार 21 दिनों का फरलो तब मिला था जब पंजाब का चुनाव था. इसके बाद जून में हरियाणा जेल विभाग ने उसे 30 दिनों के लिए पैरोल दी तब जब हरियाणा निकाय चुनाव थे. फिर 15 अक्टूबर को वह बाहर आ गया. 3 नवंबर को हरियाणा के आदमपुर विधानसभा में उपचुनाव था. कहने का मतलब संजोग, प्रयोग और दुर्योग साथ साथ और बार बार घटित हुए. सो कभी 20 दिन तो कभी 30 दिन कभी 40 दिन और एक बार फिर 40 दिनों की पैरोल मिलना न्याय व्यवस्था का मखौल ही है.
बशर्ते इसे नज़ीर मानते हुए तमाम लंबी अवधि के सजायाफ्ता कैदियों को जब मांगे तब पैरोल दे दी जाएं. अधिकार तो सबके हैं ना. हां, फ़र्क़ ''रार'' के वीवीआईपी होने भर का है तो इस नाते उसे पैरोल की अवधि के दौरान ज़ेड प्लस सुरक्षा दे दी जाती ही है. वाह! क्या बात है? सोशल स्टेटस सिंबल भी तो होना चाहिए वीआईपी रेपिस्ट और मर्डरर का और वह तो वीवीआईपी है. उसके जघन्य अपराध अक्षम्य जो हैं, "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा, गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः" परंपरा वाले आर्यावर्त की मान्यताओं को ध्वस्त जो कर दिया उसने. पैरोल के दौरान वह सत्संग करता है, गाने लॉन्च करता है. पिछली बार तो बागपत से हुए उसके वर्चुअल सत्संग में बीजेपी नेत्री और करनाल की मेयर रेणु बाला गुप्ता ने "रार" को 'पिताजी' कहकर बुलाया था. कहा था आशीर्वाद दीजिए. यही नहीं हरियाणा विधानसभा के डिप्टी स्पीकर रणबीर गंगवा भी राम रहीम का आशीर्वाद लेने पहुंच गए थे.
इसके अलावा करनाल के बीजेपी जिला अध्यक्ष योगेंद्र राणा, डिप्टी मेयर नवीन कुमार और सीनियर डिप्टी मेयर राजेश कुमार भी शामिल हुए थे. माना कोई उसकी पैरोल के खिलाफ अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाएगा, अदालत स्वतः भी तो संज्ञान ले सकती है. बलात्कारी और हत्यारे को स्पष्ट राजनैतिक स्वार्थ के लिए यूं जब तब पैरोल दे दिया जाना क्या न्याय व्यवस्था का राजनीतिकरण नहीं हैं? दरअसल बेशर्मी की सारी हदें पार हो चुकी हैं. कौन कहेगा कानून सबके लिए बराबर है? क्या यही अच्छे दिन हैं कि गुंडों बलात्कारियों की जय जय हो या जय जय कराई जाए? वाकई "रार" ने तो क्रांति ला दी है.
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