अखिलेश यादव कहीं केंद्र में दिलचस्पी के चलते राहुल गांधी को नापसंद तो नहीं कर रहे
अखिलेश यादव बताना चाह रहे हैं कि गठबंधन से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके सामने लोक सभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी को मजबूत करना है. देखें तो, अखिलेश यादव का ये ख्याल बुरा नहीं है - वैसे भी उनके पास 2019 के बाद भी तीन साल का वक्त रहेगा.
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डिंपल यादव नहीं तो कन्नौज से चुनाव कौन लड़ेगा? ये वो सवाल जिसके जवाब में समाजवादी पार्टी के भविष्य की रणनीति छुपी लगती है. अखिलेश यादव ने ये बात तब कही थी जब राहुल गांधी ने वंशवाद की राजनीति के संदर्भ में उनका नाम लिया था. हाल ही में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन को वक्त की बर्बादी बताया और आगे से इससे परहेज के संकेत दिये.
कुछ मीडिया रिपोर्ट में अखिलेश यादव की लोक सभा चुनाव की तैयारियों का जिक्र है जिससे मालूम होता है कि कन्नौज सीट को लेकर समाजवादी पार्टी अध्यक्ष गंभीरतापूर्वक सोच विचार कर रहे हैं. स्वाभाविक तौर पर सवाल उठता है - क्या अखिलेश यादव कन्नौज से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं?
कन्नौज से कौन?
कन्नौज से फिलहाल अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव सांसद हैं. पहली बार डिंपल निर्विरोध सांसद चुनी गयी थीं, लेकिन दूसरी बार जीत का अंतर मजह 19 हजार रहा. 2014 में डिंपल ने बीजेपी के सुब्रत पाठक को हराया था.
दिल्ली पर नजर तो नहीं...
कन्नौज सीट पर 2012 में उपचुनाव हुआ था जिसमें डिंपल के खिलाफ न तो कांग्रेस और न ही बीएसपी ने अपने उम्मीदवार उतारे. दो निर्दलीयों ने पर्चा जरूर भरा था, लेकिन आखिर तारीख तक उन्होंने भी नामांकन वापस ले लिया. कहने भर को बीजेपी ने भी अपने उम्मीदवार के नाम का ऐलान किया था, लेकिन इतनी देर कर दी कि बीजेपी कैंडिडेट नामांकन दाखिल ही नहीं कर पाया.
तीन साल बीतते बीतते हालत ये हुई कि मोदी लहर में डिंपल जैसे तैसे अपनी सीट बचा पायीं. मुलायम सिंह यादव के अलावा, 2014 में एक सीट डिंपल की भी रही जहां समाजवादी पार्टी जीतने में कामयाब रही. तब यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री रहे.
2009 में डिंपल फिरोजाबाद से लोक सभा का चुनाव लड़ी थीं, लेकिन कांग्रेस के राज बब्बर उनकी राह का रोड़ा बन गये. बाद में जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन गये तो उन्हें अपनी सीट छोड़नी पड़ी और उसे डिंपल के हवाले कर दिया.
कन्नौज को अखिलेश यादव अपनी कर्मभूमि मानते हैं - और माना जाता है कि मुख्यमंत्री रहते भी उन्होंने जहां तक हो सका पूरा ख्याल रखा. ये बात अलग है कि मोदी लहर में सीट बचाने के लिए डिंपल को संघर्ष करने पड़े.
कहीं बीजेपी के दबाव में तो नहीं बदली रणनीति?
अब जबकि अखिलेश यादव ने परिवारवाद को झुठलाने के लिए डिंपल के चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी है, सवाल यही उठता है कि कन्नौज से समाजवादी पार्टी को मैदान में किसे उतारना चाहिये.
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक समाजवादी पार्टी ने गंभीरता से विचार करने के बाद पाया कि कन्नौज से डिंपल की जगह अखिलेश के अलावा किसी और के लिए दांव आजमाने का जोखिम लेना ठीक नहीं होगा.
अभी तो पूरे तीन साल हैं
विधानसभा चुनाव से पहले जब राहुल गांधी गुजरात दौरे पर थे, तभी अमित शाह ने स्मृति ईरानी और योगी आदित्यनाथ सहित अपने लाव लश्कर के साथ अमेठी पर धावा बोला था. उन्हीं दिनों बीजेपी की उन तैयारियों का भी पता चला कि किस तरह वो यूपी की उन सभी सीटों पर कब्जे की तैयारी में है जो मुलायम और गांधी परिवार के कब्जे में हैं.
कहीं ऐसा तो नहीं कि डिंपल को चुनाव न लड़ाने के पीछे समाजवादी पार्टी ने पर्दे के पीछे सेफ तरकीब निकाली हो. वैसे कन्नौज मुलायम परिवार के लिए तो वैसा ही है जैसे गांधी परिवार के लिए अमेठी और रायबरेली. ऐसा तो नहीं कि समाजवादी पार्टी को भी डिंपल की जीत पर पहले जैसा यकीन न हो?
2014 में समाजवादी पार्टी के सारे उम्मीदवारों के हार जाने के बावजूद मुलायम परिवार की सभी सीटों की जीत ने राजनीति में दिलचस्पी रखनेवालों को शंका जाहिर करने का मौका दे दिया था. आखिर क्या सेटिंग थी कि सब हार गये, सिर्फ परिवार की सीटों को छोड़ कर? शंका और सवाल के लिए वैसे भी आग नहीं सिर्फ धुएं की जरूरत ही होती है.
चर्चा तो ये भी है कि मुलायम सिंह यादव भी मैनपुरी का रुख कर सकते हैं - और आजमगढ़ से किसी और किस्मत आजमाने का मौका दिया जा सकता है.
मायावती 2012 में चुनाव हारने के बाद राज्य सभा पहुंच गयी थीं, हालांकि, बोलने न देने का आरोप लगा कर पिछले साल उन्होंने इस्तीफा दे दिया. तब माना गया था कि मायावती विपक्ष में बैठना नहीं चाह रही थीं और उनके पास राज्य सभा की सीट पर किसी को भी भेजने का मौका था - उन्होंने मौके का फायदा खुद ही उठा लिया.
अखिलेश यादव ने कहा है कि वो गठबंधन नहीं बल्कि वो लोक सभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी को मजबूत करने में लगे हैं. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अखिलेश यादव के मन में भी कुछ दिन के लिए केंद्र की राजनीति में हिस्सा लेने का विचार आया हो? ख्याल बुरा तो कहीं से नहीं लगता. वैसे भी केंद्र की राजनीति में मुलायम सिंह का अब वो दबदबा नहीं दिखता. जब से मोदी सरकार बनी है तब से तो वो सत्ता पक्ष का ही सपोर्ट करते नजर आ रहे हैं. बीते कई सेशन में विपक्ष के किसी मसले पर वॉकआउट करने की स्थिति में भी सत्ता पक्ष के अलावा सिर्फ मुलायम और उनके परिवार के लोग सदन में बैठे देखे गये हैं.
मुमकिन है अखिलेश यादव का कोई और प्लान हो. हो सकता है कांग्रेस से अलग चुनाव लड़ कर अपनी सीटें बढ़ाने की कोशिश में हों. फिर केंद्र में पहुंच कर विपक्ष में अपनी भूमिका बढ़ाने की योजना हो. अखिलेश के साथ प्लस पॉइंट ये है कि उन्हें केंद्र सरकार से सीबीआई के जरिये ब्लैकमेल होने का डर भी नहीं है. अगर चुनाव जीत कर अखिलेश यादव केंद्र में पहुंच भी जाते हैं तो अगले विधानसभा की तैयारी के लिए उनके पास पूरे तीन साल होंगे - चुनाव तो 2022 में होने हैं.
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