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Updated: 09 नवम्बर, 2015 11:57 AM
शेखर गुप्ता
शेखर गुप्ता
  @shekharguptaofficial
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बतौर प्रधानमंत्री मोदी के लिए बिहार चुनाव में हार फायदेमंद साबित हो सकती है, बशर्ते कि वह हकीकतों को पहचानें और उन्हें विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी करें.

बिहार भारतीय राजनीति का सबसे अहम राज्य कभी नहीं रहा. यहां तक कि झारखंड के अलग होने के पहले भी सांसदों की संख्या के आधार पर उसका स्थान उत्तर प्रदेश के बाद ही आता था. आज 40 लोकसभा सीटों के साथ वह उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के बाद चौथे स्थान पर है. पांचवें स्थान पर तमिलनाडु है. लेकिन बिहार ऐसा राज्य है जिसे अमेरिकी राजनीति से 'बेलवेदर' शब्द लेकर रहनुमाई करने वाला राज्य कहा जा सकता है. यह लिखने के लिए साहस की दरकार है, लेकिन पिछले 50 सालों की राजनीति पर नजर डालें तो पता चलेगा कि पश्चिम बंगाल से एकदम उलट बिहार आज जो सोचता है, देश वही बात आने वाले समय में सोचता है.

कांग्रेस को पहला झटका 1960 के दशक के मध्य में लगा था. सन 1967 में निम्न मध्य वर्ग के गठजोड़ का उदय होने लगा था और इंदिरा गांधी द्वारा संक्षिप्त रूप से थामे जाने तक यह बढ़ता रहा. फिर 1974 में जय प्रकाश नारायण का आंदोलन हुआ और अंतत: लालू प्रसाद सामने आए. हर मामले में राज्य में आए बदलावों ने राष्ट्रीय राजनीति पर निर्णायक असर डाला. हालिया चुनाव नतीजे भी उसी तरह अहमियत रखते हैं.

आजादी के बाद सत्ता कांग्रेस के हाथ में रही और उसने करीब आधी सदी तक बिना किसी चुनौती के शासन किया क्योंकि विपक्ष बंटा हुआ था. लेकिन एक बार उसके प्रतिद्वंद्वी और संसाधन एकजुट होने लगे तो राजनीति बदल गई. मौजूदा दौर में सबकुछ बहुत तेज गति से होता है. इसलिए अतीत में जो काम कई दशकों में हुआ वह इस बार केवल 18 महीनों में हो गया. विपक्ष की एकता की ताकत को अब अच्छी तरह समझा जा रहा है. बिहार ने एक बार पुन: उसकी पुष्टि की है. यह चुनाव आगामी विधानसभा चुनावों की जमीन तैयार करेगा. असम, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में क्या होगा, यह सोचना अभी जल्दबाजी है लेकिन असम में कांग्रेस, बदरुद्दीन अमल की एआईयूडीएफ और वाम दल अपनी राजनीति की समीक्षा करेंगे. पश्चिम बंगाल में वाम दल और कांग्रेस यही करेंगे.

तमिलनाडु में जहां भाजपा महत्त्वपूर्ण पहुंच बनाने की उम्मीद में थी, वहां उसे अपनी संभावनाओं को नए सिरे से आंकना होगा. बिहार नतीजे मई 2014 के बाद नरेंद्र मोदी के लिए पहला झटका नहीं हैं. दिल्ली पहला झटका था लेकिन वह पूर्ण राज्य नहीं है. आम आदमी पार्टी को एक अलग प्रभाव माना गया और सोचा गया कि वह राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली नहीं साबित होगा. बिहार एक अलग हकीकत है इसलिए मोदी को दो अहम फैसले लेने होंगे. पहला, अब तक कल्पना थी कि जल्दी ही राज्यसभा में पार्टी की सदस्य संख्या बढ़ेगी. अब वह नई परिस्थिति में अपने शासन को कैसे सुसंगत बनाएंगे? क्या अब वह विपक्ष से बात करने को राजी होंगे और संसद के चलने और विधेयकों को पारित कराने के लिए सही गणित बिठा पाएंगे? यह काम जितना आसान लगता है उतना है नहीं. इसके लिए उनको चुनाव प्रचार के रंग से बाहर आकर अपेक्षाकृत शांत अंदाज में शासन करना होगा.

दूसरा, मोदी को अपनी राजनीति पर भी गौर करना होगा. मोदी-शाह नेतृत्व मॉडल पर अब सवाल उठेंगे. अमित शाह को बिहार में खूब तवज्जो दी गई. बिहार में उनके चित्र लगे और पोस्टरों पर मोदी के साथ उनकी तस्वीर छपी. उन्होंने एक ही दिन में पांच चुनावी सभाओं को संबोधित किया. इन सबसे यही संकेत निकला कि वह पार्टी में मोदी के बाद दूसरे नंबर के नेता हैं. दो गुजरातियों के इस दबदबे को लेकर आंतरिक असहमति पहले भी थी. अब इस पर प्रश्न उठेंगे. मोदी को यह विचार करना होगा कि क्या पार्टी पर उनकी पकड़ कमजोर हो रही है? क्या बतौर प्रधानमंत्री उनको दिल्ली और बिहार जैसे विधानसभा चुनावों में पार्टी का इस तरह नेतृत्व करना चाहिए? इतना ही नहीं बिहार चुनाव के बाद उनको समझ लेना चाहिए कि ध्रुवीकरण चुनाव नहीं जिता सकता है और वर्ष 2015 के भारत में किसी को पीटने के लिए वोट नहीं मिल सकता. यह भी कि पाकिस्तान और आतंकवाद समाचार चैनलों और ट्विटर के लिए जोशोजुनून का मुद्दा हो सकते हैं लेकिन आम जनता के लिए नहीं. मोदी और शाह ने बिहारी मानस को समझने में चूक की है. उनके प्रचार अभियान में राजनीतिक बुद्धिमत्ता नदारद थी. बिहार में जिस तरह सम्राट अशोक का चुनावी इस्तेमाल करने की कोशिश हुई वह निहायत मूर्खतापूर्ण हरकत थी. उम्मीद है कि भाजपा देश के अन्य हिस्सों में ऐसा नहीं करेगी. बिहार नतीजे असम में ध्रुवीकरण के जरिये जीत की योजना को प्रभावित करेंगे.

दूसरा फैसला मोदी को करना है और वह उनके पार्टी सदस्यों के लिहाज से बहुत मानीखेज होगा. पहले फैसले का संबंध भारत से है पार्टी से नहीं. अगर मोदी अब छवि निर्माण, चुनावी राजनीति और विभाजनकारी प्रचार के बजाय प्रशासन पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो यह बहुत अच्छी बात होगी. संक्षेप में कहें तो अगर यह झटका उनको प्रधानमंत्री के रूप में काम करने को प्रेरित करता है तो यह बड़ी सफलता होगी. अब उनको विपक्ष के शीर्ष नेतृत्व से संपर्क करना चाहिए और संसद का माहौल सुधारना चाहिए. ऐसा करके वह प्रशासनिक मोर्चे पर कुछ गतिशीलता पैदा कर सकेंगे. उनको विभाजनकारी बातों तथा असहिष्णुता के खिलाफ बोलना चाहिए और खुद को सोशल मीडिया के गालीगलौज करने वाले दस्तों, गैर जिम्मेदार सहयोगियों, पार्टी सदस्यों और चापलूसों से दूर रखना चाहिए. उनकी वजह से हासिल कुछ नहीं होता बल्कि उनकी सरकार के इर्दगिर्द नकारात्मकता का माहौल ही बनता है.

बिहार नतीजों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मोदी का 2014 की गर्मियों वाला करिश्मा अब समाप्त हो चुका है. अब चुनाव मतदाताओं की पसंद, जनता की राय आदि सब प्रदर्शन पर ही निर्भर करेंगे. अगर आप इस बात को बिहार पर लागू करें नतीजे खुद स्पष्ट होंगे. जनता की राय और संतुष्टि के लिहाज से चार सबसे अहम विभाग हैं कृषि, दूरसंचार, खाद्य और कौशल विकास. इन सभी विभागों के मंत्री, राधा मोहन सिंह, रवि शंकर प्रसाद, राम विलास पासवान और राजीव प्रताप रूडी, बिहार से ही हैं और उन्होंने राज्य में जमकर प्रचार भी किया. इनके प्रदर्शन पर गौर कीजिए. दाल की कीमतें ऐतिहासिक ऊंचाई पर हैं. कृषि का काम रुका हुआ है क्योंकि मंत्री जी जैविक खेती के अलावा कोई बात ही नहीं करते. दो करोड़ नए रोजगार की बात मजाक साबित हुई है और स्मार्ट फोन वाली इस पीढ़ी को कॉल ड्रॉप, बढ़ती दरें और नेट न्यूट्रैलिटी पर अस्पष्टता जैसी बातें नाराज करती हैं. इस चुनाव में नीतीश का सबसे असरदार जुमला वही था, जिसमें उन्होंने प्रसाद को कॉल-ड्रॉप मंत्री कहा या बीएसएनएल का मतलब 'भाई साहब नहीं लगेगा' बताया.

मोदी की वर्ष 2014 की जीत वादों की जीत थी. अब वह चेक भुनाया जा चुका है. फिर वेंबली के अपने प्रवासी भारतीय श्रोताओं के लिए वह कितने भी अच्छे वक्ता क्यों न हों अब उनका आकलन प्रदर्शन के आधार पर होगा. इसमें प्रशासन, वास्तविक आंकड़े, मुद्रास्फीति, विकास, रोजगार, सामाजिक समरसता आदि मुद्दों पर होगा. बिहार ने उनके चुनावी रथ को रोक दिया है. बतौर प्रधानमंत्री यह उनके लिए अब भी सुनहरा अवसर हो सकता है, बशर्ते वह विनम्रतापूर्वक हकीकत को स्वीकार करें.

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लेखक

शेखर गुप्ता शेखर गुप्ता @shekharguptaofficial

वरिष्ठ पत्रकार

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