हिमाचल में कांग्रेस के भाग से कैसे टूटा राजनीति का छींका!
हिमाचल चुनाव की घोषणा के बाद गांधी परिवार की अनुपस्थिति को लेकर जब बार-बार मीडिया में सवाल होने लगे. आखिर में प्रियंका को मोर्चे पर लगाया गया. पहले उनकी 16 सभाएं करने की योजना थी और लेकिन उन्होंने मात्र 4 सभाओं को करके कोटा पूरा किया. बावजूद कि नतीजे कांग्रेस के पक्ष में हैं लेकिन असल राजनीतिक खेल तो वहां नतीजों के बाद से शुरू होने वाला है. देखते जाइए.
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जब हिमाचल, गुजरात में विधानसभा चुनाव और दिल्ली में निगम चुनावों की घोषणा हुई, तमाम पार्टियों ने अपनी पटकथा पर काम शुरू कर दिया था. सिवाय कांग्रेस के. चुनाव पूर्व दोनों राज्यों में भाजपा, आप, और कांग्रेस की सक्रियता देख लीजिए. लेकिन कांग्रेस के 'बड़े संन्यासी' ऐसे हर चुनाव से पहले या तो मौन साध लेते हैं. या फिर भाग खड़े होते हैं. कई उदाहरण हैं. राहुल गांधी संसद में 'बवाल' काटने के बाद अपने सांसदों को अकेला छोड़कर बिल्कुल अहम मौके पर गायब हो जाते हैं. सदन में मौजूद 'बेचारे सांसदों' को जूझना पड़ता है. कांग्रेस का मौजूदा शीर्ष नेतृत्व यहां विधानसभा, निगम चुनावों से भी भागा नजर आया. बावजूद कि इस बार उनके पास भारत जोड़ो यात्रा का एक जोरदार बहाना था. गुजरात में तो जरूरी बयान तक देने से परहेज किया गया. गुजरात को लेकर कांग्रेस की तरफ से फौरी प्रतिक्रियाएं नहीं आ रही थीं. बिल्कुल सन्नाटा था. बिलकिस बानो का मामला देख लीजिए. रवैये की भारी आलोचना के बाद पार्टी ने बहुत बाद में कुछ औपचारिक बयान देकर पल्ला झाड़ लिया.
हिमाचल को लेकर भी तस्वीर कुछ ऐसी ही थी. कांग्रेस के पास यहां भी कोई चेहरा ही नहीं था. कांग्रेस एक नेता विहीन राज्य में भगवान भरोसे मैदान में उतरी थी. जयराम ठाकुर के मुकाबले कोई नेतृत्व नहीं दिया जा सका.यहां हमेशा सरकारी कर्मचारी एक बड़ा मुद्दा बनते रहे हैं. और सरकारी कर्मचारियों के सहारे वहां की सरकार बदलती रही हैं. लेकिन इस बार विपक्ष यानी कांग्रेस वह मुद्दा भी चुनाव से पहले खड़ा नहीं कर पाई थी. आप ऐसे भी कह सकते हैं कि जयराम ठाकुर की सरकार ने मौका ही नहीं दिया. कुल मिलाकर हिमाचल (गुजरात भी) को लेकर कांग्रेस के पास इंटरनल रिपोर्ट्स बेहतर नहीं थीं. चुनाव के पहले तक का हाल यही था.
प्रियंका और राहुल गांधी.
हिमाचल के चुनाव से गायब कांग्रेस के दिग्गज नेता क्या कर रहे थे?
लगभग सभी सर्वे उनके खिलाफ थे. और यही वजह रही कि हिमाचल में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का 'टिड्डी दल' पूरी तरह गायब नजर आया. दिग्गज चेहरों ने पार्टी उम्मीदवारों का प्रचार करने की बजाए 'भारत जोड़ो यात्रा' में राहुल की नज़रों के सामने बने रहने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई. खूब फोटो खिंचवाएं गए. सोशल मीडिया अपडेट किया गया. और ट्विटर क्रांति के बाद देश बदलकर सेलिब्रिटी चेहरे वापस घरों लौट गए. अब चूंकि राहुल जी आजादी के 75 साल बाद स्वयं एक महान यात्रा के जरिए देश जोड़ने निकले हैं तो सवाल ही नहीं कि वे चुनावी कैम्पेन पर जाते. सर्वे भी खराब था. पार्टी का कोई नेता बलि का बकरा बनने को भी तैयार नहीं था. चरणजीत सिंह चन्नी जैसे कुछ माननीय विदेश से अब तक लौटे भी हैं या नहीं- दावे से नहीं कहा जा सकता. चन्नी हाल ही में कांग्रेस का बड़ा दलित चेहरा बने थे जिन्हें फिलहाल खड़गे रिप्लेस कर चुके हैं. खड़गे कितने दिन तक बड़ा चेहरा रहेंगे, यह देखने वाली बात होगी.
प्रियंका को 16 की जगह सिर्फ 4 जनसभाएं क्यों करनी पड़ीं?
गुजरात और हिमाचल में जब मीडिया गांधी परिवार की अनुपस्थिति को लेकर सवाल-जवाब करने लगा- आनन फानन में यूपी की तरह प्रियंका गांधी के सुरक्षित कंधों पर सारा दारोमदार थोप दिया गया. वैसे भी उनका घर तो हिमाचल में ही है और भारत जोड़ो यात्रा में भी वे शामिल नहीं थीं. चूंकि राहुल के हिस्से का 'हलाहल' (जहर) उन्हें यूपी और पंजाब में पीना पड़ा था, हिमाचल के लिए तैयार होने के अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था. उन्हें मजबूरन जाना पड़ा. कैसे मजबूरन जाना पड़ा इसे यूं समझिए कि पहाड़ी राज्य में कांग्रेस पहले प्रियंका की कम से कम 16 जनसभाएं चाहती थी. बाद में उनकी 12 जनसभाएं तय हुई. लेकिन आतंरिक सर्वे से प्रियंका और पार्टी के अंदर उनका निजी इकोसिस्टम सहम गया. उन्हें लगा कि यूपी के बाद एक और हारे राज्य का ठीकरा प्रियंका के माथे पर आ जाएगा.
उनके राजनीतिक औचित्य पर ही सवाल होने लगेंगे कि इतनी मेहनत के बावजूद कांग्रेस हार गई (सर्वे में हार ही रहे थी). फिर औपचारिकता के लिए उनकी सिर्फ 4 सभाएं फाइनल हुईं. खानापूर्ति. वह भी बिल्कुल आख़िरी में. उससे पहले गांधी परिवार का कोई चुनावी अभियान दूर-दूर तक नजर नहीं आता. सर्वे में तय था कि आतंरिक संघर्ष से जूझ रही भाजपा सत्ता बचा ले जाएगी. मतगणना रुझानों में बहुत लंबे वक्त तक त्रिशंकु स्थिति बनी दिखी भी. भाजपा सत्ता के नजदीक नजर आई. कुछ सीटों पर कांग्रेस के फासले बहुत ज्यादा नहीं हैं. यहां भाजपा के बागियों ने सीधे-सीधे कांग्रेस को फायदा पहुंचाया. भाजपा के करीब 17 बागी निर्णायक साबित हुए. सीटों का गणित चुनाव आयोग की वेबसाइट पर जाकर देखा जा सकता है.
हिमाचल में कांग्रेस के लिए वीरभद्र सिंह ने एक मजबूत जमीन बनाई थी. वह काडर आज भी असरदार है. बावजूद कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व उसे सही वक्त पर सही दिशा नहीं दे पाता. बावजूद कि यहां बदलाव का ट्रेंड रहा है. यहां सत्ता में काबिज रही सरकार को जाना पड़ता है. लेकिन यह तब होता है जब विपक्ष पांच साल तक सड़क पर सरकार के खिलाफ संघर्ष करते नजर आती है. जैसा कि ऊपर ही बताया गया- यहां सरकारी कर्मचारियों के मसले को बड़ा मुद्दा बनाया जाता रहा है. लेकिन पांच साल में कांग्रेस की सरकार में ऐसा कोई आंदोलन नजर नहीं आया. आखिर तक सीधे घोषणापत्र में जगह दी गई. जयराम ठाकुर यहां कांग्रेस पर नकेल कसने में कामयाब रहे, मगर अंदरुनी मोर्चे पर अपनी ही पार्टी के भीतर धराशायी हो गए. भाजपा में जबरदस्त आतंरिक कलह था. वह किस तरह था, चाहें तो यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं. भगवान ने भले कांग्रेस की मदद नहीं की मगर भाजपा के बागियों ने उनका काम आसान कर दिया.
हिमाचल की दिलचस्प राजनीति तो अब शुरू होगी, इतिहास का इशारा तो यही है
चूंकि बिल्ली के भाग से राजनीति का छींका फूट चुका है तो अब तमाम चीजें कांग्रेस के लिए सिरदर्द से कम नहीं होंगी. कलह का विषय मुख्यमंत्री की कुर्सी ही है. कांग्रेस के गले की हड्डी कह सकते हैं. चूंकि कोई चेहरा था ही नहीं तो अब जबकि अपेक्षाओं से अलग मलाई खाने की बारी आई है- मुख्यमंत्री पद पाने की अंधीधुन रेस नजर आने वाली है. दावेदारों के अपने तर्क होंगे. लेकिन पंजाब और राजस्थान के अनुभव से साफ़ समझा जा सकता है कि कांग्रेस में किसे क्या मिलेगा- दस जनपथ बहुत सोच विचारकर निष्ठावान कार्यकर्ता की तलाश करेगा. एक खड़ाऊ मुख्यमंत्री. कांग्रेस का इतिहास रहा है कि दस जनपथ से भेजे गए नेताओं को राज्यों में हमेशा खारिज किया गया है या संदिग्ध रूप से देखा गया है.
और भाजपा की जो राजनीति हाल के कुछ वर्षों में दिखी है, उनकी राजनीतिक संभावनाएं सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं होतीं. बल्कि वे चुनाव के बाद भी कोशिश में लगे ही रहते हैं. कांग्रेस मुक्त भारत के रूप में भाजपा का मिशन कोई छिपी बात नहीं है अब. मध्य प्रदेश, गोवा, महाराष्ट्र के उदाहरण मौजूद हैं. राजस्थान की कोशिशें देख लीजिए. पंजाब का उदाहरण देख लीजिए. हिमाचल में कांग्रेस सरकार बनाकर सत्ता चला सके यह भी लगभग असंभव ही नजर आ रहा है. कांग्रेस का हर नेता भूपेश बघेल या कैप्टन अमरिंदर सिंह नहीं हो सकता जो गांधी परिवार और उसके विचार को चुनौती देते हुए कामयाबी से अपनी राजनीति कर सके.
कुल मिलाकर मान कर चलें कि नतीजों के साथ हिमाचल की चुनावी दिलचस्पी अभी ख़त्म नहीं होगी. बल्कि यह तो अभी एक शुरुआत भर है.
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या,
आगे-आगे देखिये होता है क्या.
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