असम: भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री बनाने की कवायद जितनी शांत दिखती है, होती नहीं
राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद भाजपा की संसदीय समिति ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करती रही है. भाजपा में चलन रहा है कि मुख्यमंत्री वहीं बनता है, जो भाजपा या संघ का करीबी हो. कांग्रेस की पृष्ठभूमि से आने वाले हिमंता बिस्वा सरमा इस मामले में अपवाद नजर आते हैं.
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असम विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आने के बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर कमान किसे सौंपी जाएगी. असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल (Sarbananda Sonowal) और हिमंत बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) के बीच जारी 'कुर्सी' की रेस में 'कांग्रेस के बागी' ने बाजी मार ली. भाजपा की संसदीय समिति ने हिमंत बिस्वा सरमा को असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के ऊपर तरजीह दी. वैसे, हिमंत बिस्व सरमा की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी जितनी शांत दिखती है, उतनी है नहीं. सिटिंग मुख्यमंत्री की जगह एक नये चेहरे को असम की बागडोर थमाना भाजपा के लिए इतना भी आसान नहीं रहा होगा.
हिमंता बिस्व सरमा की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी जितनी शांत दिखती है, उतनी है नहीं.
भाजपा में मोदी-शाह युग की शुरुआत होने के बाद से ही सभी विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़े गए हैं. चुनाव नतीजों के बाद भाजपा की संसदीय समिति ही राज्य के मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करती रही है. भाजपा में चलन रहा है कि मुख्यमंत्री वहीं बनता है, जो भाजपा या संघ का करीबी हो. कांग्रेस की पृष्ठभूमि से आने वाले हिमंत बिस्वा सरमा इस मामले में अपवाद नजर आते हैं. इसी के साथ एक चलन और है, जिसका इतिहास भाजपा में काफी पुराना है. वह है मुख्यमंत्री की घोषणा के ऐन मौके पर टकराव का. भाजपा को मुख्यमंत्री पद के लिए हमेशा ही माथापच्ची करनी पड़ी है. सर्बानंद सोनोवाल और हिमंत बिस्व सरमा का मामला पहला नहीं है. ये पहले भी होता रहा है और आगे भी होता ही रहेगा, इसकी भरपूर संभावना अभी से नजर आने लगी है.
केशुभाई पटेल के नाम पर नरेंद्र मोदी साबित हुए इक्कीस
1995 में गुजरात के मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला के बीच खींचतान काफी बढ़ गई थी. भाजपा के इन दो नेताओं के बीच 'जंग' में केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. इस दौरान नरेंद्र मोदी गुजरात में आरएसएस के बैनर तले भाजपा को मजबूत करने में जुटे थे. 1998 में दोबारा चुनाव हुए और केशुभाई पटेल को फिर सीएम बनाया गया. लेकिन, उनकी इस जीत का सारा श्रेय संघ से भाजपा में आए संजय जोशी ले उड़े. गुजरात में केशुभाई के बाद नंबर दो की हैसियत रखने वाले नरेंद्र मोदी को दिल्ली मुख्यालय भेज दिया गया. उस समय तक केशुभाई के साथ हर समय नजर आने वाले मोदी का उनसे 36 का आंकड़ा बन चुका था. दिल्ली आने पर नरेंद्र मोदी ने आरएसएस और केंद्रीय नेताओं के बीच और मजबूती से अपनी जड़ें जमा लीं. मोदी पर लालकृष्ण आडवाणी का भी वरदहस्त रहा ही.
केशुभाई पटेल की जगह पर नरेंद्र मोदी को बनाया गया गुजरात का मुख्यमंत्री.
केशुभाई पटेल का यह कार्यकाल प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए बीता. 1998 में गुजरात के व्यापारिक बंदरगाह कांडला में तूफ़ान ने तबाही मचाई. 1999 और 2000 में सौराष्ट्र और कच्छ में सूखा पड़ा. 2001 में आए गुजरात भूकंप के बाद केशुभाई पटेल पर आपदा प्रबंधन को लेकर सवाल खड़े किए जाने लगे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वीएचपी की उनसे नाराजगी भी उस दौर में काफी बढ़ गई थी. जिसके बाद उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी. केशुभाई इस्तीफे के बाद अपने खेमे के नेता को मुख्यमंत्री पद पर लाना चाहते थे, लेकिन संघ इसके लिए तैयार नहीं हुआ. टकराव की स्थिति बनी, लेकिन आखिर में नरेंद्र मोदी के नाम पर मुहर लग ही गई.
उमा भारती के सामने आए शिवराज सिंह चौहान
2004 में मध्य प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती के खिलाफ कर्नाटक के हुबली में एक विवादित ईदगाह में तिरंगा फहराने के मामले में गैर-जमानती वारंट जारी हो गया. इसके बाद उमा भारती को 'कुर्सी' छोड़नी पड़ी, लेकिन वो अपनी जगह बाबूलाल गौर को सीएम बनाने पर राजी हो गईं. कहा जाता है कि उमा ने बाबूलाल गौर को 'गंगाजली कसम' दिलाई थी कि जब वो कहेंगी, तो गौर इस्तीफा दे देंगे. इस दौरान उमा भारती ने सांसदों-विधायकों को साथ लेकर शक्ति प्रदर्शन से लेकर तिरंगा यात्रा के जरिये फिर से सत्ता संभालने की जिद तक हर वो काम किया, जिसकी वजह से उनकी संघ और भाजपा से नाराजगी बढ़ती चली गई. कुछ महीनों बाद कर्नाटक सरकार ने केस वापस ले लिया. भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर को इस्तीफा देने के लिए कह दिया गया. गौर का इस्तीफा जिसके लिए लिया जा रहा था, वो थे शिवराज सिंह चौहान.
उमा भारती की 'गंगाजली कसम' तोड़ते हुए बाबूलाल गौर ने शिवराज सिंह चौहान के लिए इश्तीफा दे दिया था.
उमा भारती ने बाबूलाल गौर को उनकी कसम याद दिलाई. जिस पर गौर ने कह दिया कि आपने मुझे आपके लिए इस्तीफा देने की कसम दिलाई थी. मैं इस्तीफा नहीं दे सकता, इस बात की नहीं. किसी समय उमा दीदी के खास रहे शिवराज सिंह चौहान से उन्हें ही चुनौती मिलने लगी. शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश अध्यक्ष के पद का चुनाव जीता और सीएम पद पर दावा ठोंक दिया. ऐन मौके पर फिर से उमा भारती और भाजपा के बीच टकराव की स्थिति बन गई. उमा भारती ने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. उठापटक का दौर जारी रहा और उमा भारती के सभी खास नेताओं को एक-एक कर शिवराज सिंह चौहान के पक्ष में ले आया गया. शिवराज सिंह चौहान को दिल्ली से वापस मध्य प्रदेश भेजा गया. शिवराज ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. शिवराज सिंह चौहान को कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह से हारने के बाद सीएम की कुर्सी मिली थी.
अर्जुन मुंडा और रघुबर दास के बीच की अदावत
झारखंड में भाजपा के प्रमुख आदिवासी चेहरों में से एक अर्जुन मुंडा ने 2010 में सीएम बनने के बाद किए गए कैबिनेट विस्तार में रघुवर दास को जगह नही दी थी. मुंडा के इस फैसले के साथ ही रघुवर दास और उनके बीच एक अघोषित युद्ध की शुरुआत हो गई. 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में मोदी लहर से मिले बहुमत के बाद भी अपनी सीट से चुनाव हार गए थे. झारखंड के तीन बार मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा हार के बाद भी लगातार भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से 'कुर्सी' के लिए मुलाकात करते रहे. झारखंड के राजनीतिक इतिहास के हिसाब से भाजपा के सामने किसी आदिवासी चेहरे को ही आगे लाने मजबूरी थी.
झारखंड के राजनीतिक इतिहास के हिसाब से भाजपा के सामने किसी आदिवासी चेहरे को ही आगे लाने मजबूरी थी.
दरअसल, झारखंड में अब तक जितने भी सीएम हुए, वो सब आदिवासी चेहरे ही थे. लेकिन, भाजपा ने लगातार पांचवी बार विधायक बने रघुवर दास पर दांव लगाने का मन बनाया. आरएसएस के आदेश को मानना भाजपा के लिए काफी हद तक मजबूरी रहा है. रघुवर दास के साथ अर्जुन मुंडा का ये टकराव मुख्यमंत्री बनने के दौरान भी दिखा. मुंडा ने भरपूर कोशिश करी कि दास को सीएम न बनाया जाए. लेकिन, शीर्ष नेतृत्व ने मुंडा और उनकी नाराजगी को साइडलाइन करते हुए दास को कुर्सी पर बैठा दिया.
मौर्य को पीछे छोड़ आदित्यनाथ का अचानक उभरना
उत्तर प्रदेश की पूरी राजनीति जातीय समीकरण पर टिकी हुई है. यूपी के बारे में कहा जाता है कि यहां लोगों की रगों में लहू की जगह जाति बहती है. 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत मिलने के बाद भाजपा के सामने एक बार फिर से वही समस्या खड़ी हुई, जो हर जगह खड़ी होती रही है. पीएम नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़े गये यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद सीएम के नाम को लेकर भाजपा पशोपेश में पड़ी थी. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते पार्टी को मिले इस बहुमत का श्रेय केशव प्रसाद मौर्य की झोली में जा गिरा था. भाजपा भी प्रदेश में एक गैर-यादव ओबीसी नेता को ही 'कुर्सी' देने के पक्ष में नजर आ रही थी. अचानक ही सीएम पद की रेस में योगी आदित्यनाथ का नाम सबसे ऊपर आ गया. सूबे में योगी को सत्ता देने की वकालत संघ की ओर की गई थी.
आरएसएस के आदेश को मानना भाजपा के लिए काफी हद तक मजबूरी रहा है.
केशव प्रसाद मौर्य को अपनी मेहनत पानी में जाती दिखी, तो उन्होंने अपने तेवर कड़े कर लिए. एक बार फिर से टकराव की स्थिति बन पड़ी. भाजपा को इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. भाजपा को संघ की बात भी माननी थी. इस स्थिति में सभी जातियों के समीकरण साधने के लिए भाजपा ने एक सीएम और दो डिप्टी सीएम का फॉर्मूला निकाला. योगी आदित्यनाथ को सीएम बनाया गया. इसके साथ ही केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा को डिप्टी सीएम का पद दिया गया.
गडकरी से ऊपर देवेंद्र फडणवीस का आना
2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में संघ के करीबी नेताओं में गिने जाने वाले नितिन गडकरी को मुख्यमंत्री बनाने की मांग ने अचानक से जोर पकड़ लिया था. ऐसा तब हुआ था, जब भाजपा की संसदीय समिति ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र फडणवीस के नाम पर पहले ही मुहर लगा दी थी. महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा कद रखने वाले नितिन गडकरी ने केंद्र से राज्य की राजनीति में लौटने के लिए पूरा दम लगा दिया था. गडकरी के घर के बाहर विधायकों ने शक्ति प्रदर्शन कर उनके पक्ष में माहौल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. नितिन गडकरी को संघ का भी साथ मिलना तय था. गडकरी ने अपने एक करीबी नेता सुधीर मुनगंटीवार को लॉबिइंग के लिए केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली के पास भी भेजा था.
गडकरी और दिवंगत शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के बीच की करीबी दोस्ती से महाराष्ट्र का हर नेता बखूबी वाकिफ रहा है.
दरअसल, नितिन गडकरी को शिवसेना का करीबी माना जाता है. गडकरी और दिवंगत शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के बीच की करीबी दोस्ती से महाराष्ट्र का हर नेता बखूबी वाकिफ रहा है. भाजपा और शिवसेना के बीच किसी भी विवाद पर हमेशा गडकरी ही मध्यस्थ की भूमिका निभाते रहे हैं. मुख्यमंत्री पद के लिए नितिन गडकरी को शिवसेना का समर्थन भी मिलना तय था. लेकिन, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने नितिन गडकरी के शक्ति प्रदर्शन को नकारते हुए और संघ की नाराजगी के झेलते हुए उन्हें केंद्र सरकार के साथ ही बनाए रखने का फैसला किया.
येदियुरप्पा और सदानंद गौड़ा में वर्चस्व की लड़ाई
2006 में सदानंद गौड़ा को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने कर्नाटक का प्रदेश अध्यक्ष बनाया. दक्षिण भारत के किसी राज्य में भाजपा को पहली बार जीत दिलाने का श्रेय सदानंद गौड़ा को ही जाता है. 2008 में भाजपा को कर्नाटक में जीत दिलाने का श्रेय गौड़ा के सिर ही जाता है, लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सका. कर्नाटक में लिंगायत समुदाय का 18 फीसदी वोट है और बीएस येदियुरप्पा इस समुदाय के प्रभावशाली नेता माने जाते हैं. गौड़ा वोक्कलिंगा समुदाय से आते हैं, जिसकी आबादी राज्य में 12 फीसदी है, लेकिन, लिंगायत समुदाय की आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में भी अच्छी-खासी आबादी है. यहां भी सदानंद गौड़ा और येदियुरप्पा के नाम पर टकराव की स्थितियां बन गईं. भाजपा हाईकमान येदियुरप्पा को कुछ खास पसंद नहीं करता था, लेकिन येदियुरप्पा का कर्नाटक के विधायकों में दबदबा था. लिंगायत वोटों को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने बीएस येदियुरप्पा के नाम पर मुहर लगा दी.
लिंगायत वोटों को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने बीएस येदियुरप्पा के नाम पर मुहर लगा दी.
वहीं, 2011 में कोयला खनन मामले में नाम आने के बाद येदियुरप्पा को पद से इस्तीफा देना पड़ा. तब उनकी जगह सदानंद गौड़ा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाया गया. भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कर्नाटक की भाजपा सरकार की छवि को गौड़ा ने काफी हद तक सुधारने की कोशिश की. लेकिन, येदियुरप्पा से इस्तीफा लेने पर लिंगायत समुदाय नाराज हो गया. जिसकी वजह से एक साल के भीतर ही 2012 में सदानंद गौड़ा को इस्तीफा देना पड़ा. उनकी जगह जगदीश शेट्टार को कर्नाटक का सीएम बना दिया गया. बीएस येदियुरप्पा को वापस मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने पर उन्होंने अपनी खुद की पार्टी बना ली. जिसकी वजह से 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. हालांकि, 2014 में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय भाजपा में कर दिया था.
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